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कट्टर ब्राह्मणवादी सोच सबसे बड़ी चुनौती

हर परिवर्तनकारी साहित्य और शिक्षा केंद्रों पर भाजपा-संघ का हमला समतामूलक परंपराओं से ही थमेगा
अलिखित स्मृति में संस्कृति और परंपरा गुम

आधुनिक साहित्य की मुख्य भूमिका एक खास समाज और राष्‍ट्र के लोगों को सामाजिक, आध्यात्मिक और राजनैतिक रूप से बेहतर और समान जीवन-स्तर तथा समान मानवीय व्यवहार हासिल करने की दिशा में गाइड करना है। हर मायने- मंदिर, स्कूल-कॉलेज, बाजार वगैरह- सभी में हर स्‍त्री-पुरुष, जाति, धर्म, कबीले को समान अवसर का अधिकार होना चाहिए। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और उसका मातृ संगठन राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन बुनियादी साहित्यिक आदर्शों का सत्ता के बल पर जीवन के हर क्षेत्र में विरोध कर रहा है। यही आज उन लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, जो परिवर्तनकारी साहित्य की रचना करना चाहते हैं। मुझे इसे कुछ विस्तार में बताने दीजिए।

भारत में साहित्य प्राचीन काल और मध्ययुग में वेद, पुराण, रामायण और महाभारत जैसे ब्राह्मणवादी लेखन में सिमट गया था। वैदिक समाज वर्ण में विभाजित था और तीन उच्च वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को ईश्वरीय देन की तरह देखा जाता था, जिन्हें पढ़ने-लिखने और जनेऊ पहनने का अधिकार है। इस तरह हिंदू धर्म में स्पष्ट विभाजन रूढ़ हो गए। चौथे वर्ण शूद्र को दास बना दिया गया और उन्हें लिखने के अयोग्य ठहरा दिया गया। उन्हें पढ़ने और लिखने का कोई अधिकार नहीं था।

फिलहाल देश में शूद्र जातियों में जाट, यादव, कुर्मी, गूजर, पटेल, मराठा, लिंगायत तथा वोक्कालिंगा (कर्नाटक में), नायर तथा मेनन (केरल में), मुदलियार तथा नायकर (तमिलनाडु में), रेड्डी तथा कम्मा और वेलम्मा (आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में), शूद्र (पश्चिम बंगाल, ओडिशा से लेकर असम तक) और सभी राज्यों के तमाम अन्य पिछड़े समुदाय (ओबीसी) हैं। यह देश में सबसे बड़ा सामाजिक समूह है। भारत के तमाम दलित और आदिवासी भी तथाकथित शास्‍त्रीय हिंदू साहित्य के दायरे से बाहर थे। हालांकि उनके पास विभिन्न क्षेत्रों में बेहद समृद्ध ज्ञान रहा है।

प्राचीन काल और मध्ययुग में सिर्फ ब्राह्मणों को ही लिखने की इजाजत थी और वे खुद के बारे में और राजाओं के बारे में ही लिखा करते थे। बाद में ब्राह्मणों ने गुप्‍तवंश के काल में बनियों के बारे में भी लिखा। लेकिन मैंने बनिया लेखकों के बारे में गूगल पर तलाशा तो उसमें सिर्फ गांधी, लाला लाजपत राय और राममनोहर लोहिया के नाम ही प्रारंभिक लेखकों के नाम पर मिले।

आधुनिक भारत में शूद्रों ने किसी महत्वपूर्ण साहित्य की रचना नहीं की। उनके बारे में भी किसी ने नहीं लिखा। जब मेरी पीढ़ी को यह एहसास हुआ और मैंने उनके जीवन, ज्ञान, हुनर और इतिहास के बारे में लिखना शुरू किया तो भाजपा और आरएसएस की ताकतें भारी विरोध पर उतर आई हैं। 2015 में इन ताकतों ने एक तेलुगू अखबार में मेरे लेख ‘ईश्वर लोकतांत्रिक है या नहीं’ पर मुकदमा ठोक दिया। 2016 में ब्राह्मणवादी ताकतों ने मेरी किताबों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया और मुझे तथा मेरी जाति को अपशब्दों से नवाजा। उसके बाद ही मैंने अपने नाम के आगे ‘शेफर्ड’ जोड़ा, ताकि दुनिया को पता चले कि मेरे पुरखों का पेशा भेड़ चराना था। 2017 में दो तेलुगू राज्यों (तेलंगाना और आंध्र प्रदेश) के आर्य वैश्य एक तेलुगू पुस्तिका (मेरी किताब ‘पोस्ट-हिंदू इंडिया’ का एक अध्याय) “सामाजिका स्मग्गलेर्लु कोमातोल्लु” के खिलाफ आंदोलित हो उठे। एक आर्य वैश्य सांसद टी.जी. वेंकटेश ने मुझे मार डालने की धमकी दे डाली। इस पुस्तिका के साथ मेरी पूरी अंग्रेजी किताब ‘पोस्ट-हिंदू इंडिया’ को सुप्रीम कोर्ट में घसीटकर ले जाया गया। खुशकिस्मती से, सुप्रीम कोर्ट ने किताब पर पाबंदी लगाने से इनकार कर दिया। फिर, स्‍थानीय अदालतों में कई मुकदमे लगाए गए। अभी भी मैं उन मुकदमों में अपना वक्त और संसाधन जाया कर रहा हूं।

इस साल उन ताकतों ने मेरी दुनिया भर में चर्चित चार किताबों को दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्‍त्र के पाठ्‍यक्रम से बाहर करने की योजना बनाई। ये किताबें हैंः 1.गॉड एज पॉलिटिकल फिलासफर-बुद्धाज चैलेंज टु ब्राह्मनिज्म, 2. ह्वाइ आइ एम नॉट ए हिंदू-ए शुद्रा ‌क्रिटिक ऑफ हिंदुत्व फिलासफी, कल्चर ऐंड पॉलीटिकल इकोनॉमी, 3. पोस्ट-हिंदू इंडिया-ए डिस्कोर्स ऑन दलित-बहुजन सोसिओ-स्प्रिच्युल ऐंड साइंटिफिक रिवोल्यूशन, और 4. बफालो नेशनलिज्म-ए क्रिटिक ऑफ स्प्रिच्युल फासिज्म।

मेरी किताबों के उप-शीर्षकों पर गौर करना महत्वपूर्ण है। उनमें शूद्र समाज और हर तरह की उत्पादन ज्ञान व्यवस्‍था में उनके योगदान की चर्चा है। शूद्र, चाहे धनी हो या गरीब, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, अपने इतिहास और ज्ञान परंपरा में विविध योगदान के प्रति जागरूक नहीं है। दूसरों की उन्हें लिखने की इजाजत देने और उन्हें शिक्षित करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। दलितों के अंतरजातीय विवाह का विरोध तभी थमेगा, जब शूद्र बदलेंगे। ब्राह्मणवादी दक्षिणपंथी विचारधारा इस मामले में बेहद सतर्क है कि इस सामाजिक समूह में किसी तरह के बदलाव की इजाजत न दी जाए।

पहली बात तो यही कि मुझे इस साहित्य को प्रकाशित करवाने में काफी कठिनाई आती है। कोई शूद्र प्रकाशन नहीं है। हालांकि उनकी संख्या भी बड़ी है और उनके पास क्षेत्रीय स्तर पर काफी खेती, धन और राजनैतिक ताकत है। वे साहित्य और इतिहास के प्रति जागरूक नहीं हैं। उनमें आज तक घर में लाइब्रेरी रखने की संस्कृति नहीं है। इस तरह एक बड़ा समाज आज भी किताबें नहीं पढ़ता है। इसलिए किताबों का बाजार ठंडा है।

हालांकि भक्ति-काल में कबीर और तुकाराम जैसे कुछ शूद्र लेखकों ने कुछ क्षेत्रीय भाषाओं में लेखन कार्य किया लेकिन वह मूल रूप से काव्य अभिव्यक्तियां थीं। उससे भारत में उत्पादक जनता के बारे में कोई खास सैद्धांतिकी नहीं उभरी। पूरे समाज के बारे में अच्छी सैद्धांतिकी के विकास के लिए उत्पादक जन-जीवन के बारे में लिखा जाना चाहिए। शूद्रों और दलितों का सार्वजनिक जीवन काफी विस्तृत है। लेकिन शूद्रों के बारे में कुछ नहीं लिखा गया। दलितों के बारे में भी थोड़ा ही लिखा गया है। सबसे ऊंचे शूद्र नेता सरदार पटेल थे। उनकी पढ़ाई-लिखाई इंग्लैंड में हुई थी लेकिन उन्होंने भी न अपने बारे में लिखा, न शूद्रों के बारे में। लेकिन लाला लाजपत राय (बनिया पृष्‍ठभूमि के और महात्मा गांधी से उम्र में बड़े थे) ने अपने बारे में आत्मकथा के रूप में लिखा। मेरी राय में अपने बारे में लिखना एक चुनौती है। राजा राममोहन राय ने ब्राह्मणों में आधुनिक नजरिए का सूत्रपात किया।

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने दलित जीवन के बारे में अध्ययन और दलितों को अपने बारे में लिखने की प्रेरणा दी। वह उनकी महान उपलब्धि थी। उनकी साहित्यिक पहचान मंडल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने के बाद के दौर में बनने लगी है। साहित्य, सिद्धांत, सामाजिक वृत्तांत, सांस्कृतिक अध्ययन, जीवनी हर विधा में शूद्र समाज के बारे में लिखे जाने की जरूरत है। यह समाज अपने सामाजिक विस्तार में काफी व्यापक है और विविध उत्पादक ज्ञान से जुड़ा हुआ है। शूद्र सामाजिक ताकतें कृषि से लेकर हस्तकला और समाज सेवा से जुड़ी हुई हैं। फिर भी उनके बारे में कुछ नहीं लिखा गया। जब तक वे खुद इसके प्रति जागरूक नहीं होंगे और लिखने की कला नहीं सीखेंगे, तब तक कुछ नहीं होगा।

शूद्र, दलित, आदिवासी साहित्य लेखन में सबसे बड़ी चुनौती सत्तारूढ़ भाजपा और आरएसएस की ताकतों से मिलती है। उनके साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे नए ज्ञान के उत्पादन में यकीन नहीं करते। उनके बौद्धिकों, नेताओं, सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं को सिखाया जाता है कि नया लेखन शास्‍त्रीय हिंदू लेखन को नकार देगा। हिंदू बुद्धिजीवियों को सिर्फ शास्‍त्रीय साहित्य ही पढ़ना और उसी के बारे में बार-बार लिखना चाहिए। उनका मानना है कि विज्ञान, तकनीक, खगोलशास्‍त्र, औषधि शास्‍त्र, भौतिक शास्‍त्र, रसायन शास्‍त्र और तमाम शास्‍त्र वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, कौटिल्य अर्थशास्‍त्र और मनु के धर्मशास्‍त्र में उपलब्‍ध हैं। जैसे कैथोलिक ईसाई मानते रहे हैं कि हर ज्ञान बाइबिल में उपलब्‍ध है। आखिर मार्टिन लूथर ने किसान ईसाइयों को साथ लेकर क्रांति का बिगुल बजाया तब यह सब बदला। किसान ईसाई हमारे शूद्रों जैसे ही थे।

भाजपा-आरएसएस का पूरी गंभीरता से मानना है कि भारतीय संविधान पश्चिमी दिमाग की उपज है जिसे भारत (उनकी भाषा में हिंदुस्‍थान) को नहीं अपनाना चाहिए था। आजादी के बाद मनु संहिता को ही संविधान के रूप में अपना लिया जाना चाहिए था। वे शायद सार्वजनिक मंचों पर ऐसा नहीं कह पाते लेकिन अंतरतम में यही विश्वास है। अपने इसी विश्वास के साथ वे भारत और उसके प्रदेशों में राज कर रहे हैं। वे किसी रचनात्मक विचार वाली किताब को प्रकाशित होते देखना नहीं पसंद करते। इन सैद्धांतिक मुद्दों पर भाजपा-आरएसएस में कोई आंतरिक बहस नहीं चलती। यही वजह है कि उनके खेमे से क्रांतिकारी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक मूल्यों की कोई एक भी किताब नहीं है।

धर्म, शास्‍त्रीय साहित्य और लोगों के सामाजिक रिश्तों की सभी परंपराओं पर सवाल करने की प्रक्रिया से ही दुनिया भर में सभी महान लेखन का जन्म हुआ है। जब समाज इतनी जातियों में बंटा हो तो ज्ञान हर जाति-समुदाय में छुपा रह जाता है और किताब की शक्ल में नहीं आ पाता है। जब यह सकारात्मक और महान ज्ञान किताब की शक्ल में लिखा जाता है तो ब्राह्मणवादी पंडितों को लगता है कि यह उन धार्मिक पुस्तकों के खिलाफ है जिन्हें वे पढ़ते और जानते हैं।

वे सदियों से यही सोचते रहे हैं कि शूद्र और दलित मूर्खों की जमात हैं क्योंकि उनके उत्पादन ज्ञान का कोई मोल नहीं है। जब मैं लिखता हूं कि उनके ज्ञान को स्कूल-कॉलेज की कक्षाओं में ले जाए बिना भारत नहीं बदलेगा और न ही वह यूरोप, अमेरिका और चीन से मुकाबला कर पाएगा तो उन्हें लगता है कि यह तो जोर का झटका है। भाजपा-आरएसएस का बौद्धिक नजरिया पाकिस्तान से होड़ की बात से ही अटा हुआ है। यही वजह है कि वे अपने समाज को मानव समानता के ऊंचे लक्ष्य की ओर प्रेरित नहीं करते। भाजपा-आरएसएस और पाकिस्तान के मौलवी-मौलाना गैरबराबरी और जहालत को बनाए रखने के लिए ही एक-दूसरे से होड़ में लगे रहते हैं।

लेकिन आधुनिक भारतीय साहित्य को मानव समता और विकास की उलटी दिशा पकड़नी चाहिए। शूद्र जीवन से प्रभावित कोई नया सार्थक साहित्य हमें बताएगा कि उत्पादन क्षेत्र और कर्मकांड दोनों में स्‍त्री-पुरुष बराबरी स्‍थापित की जानी चाहिए। पवित्रता-अपवित्रता का भाव शूद्रों के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक कर्मकांडों का अभिन्न अंग नहीं होता। सबरीमला मामले में भाजपा-आरएसएस का नजरिया भारतीय आध्यात्मिकता के लिए बड़े खतरे की तरह है। कुछ ब्राह्मण पुरोहितों की लिखी संहिता का भी शूद्रों की आध्यात्मिक परंपराओं से कोई लेनादेना नहीं है। शूद्रों के बिना किसी मंदिर में भारी संख्या में लोगों का जुटना संभव नहीं है। केरल के शूद्र नायरों को भी ब्राह्मण मंत्रों को ही अपनी कर्मकांड संहिता मनवा दिया गया है। दरअसल शूद्रों की अपनी संस्कृति, परंपरा और इतिहास के बारे में बेपरवाही ही बड़ी समस्या है जो समतामूलक है लेकिन अलिखित स्मृति में गुम होती गई है।

शूद्र समुदाय की मूल आस्‍था यह है कि देवी-देवता स्‍त्री-पुरुष में भेद नहीं करते और यौन स्राव वगैरह को अपवित्र नहीं मानते। महिलाओं का रजोधर्म तो महीने में एक बार होता है लेकिन पुरुषों का वीर्य-स्राव तो रोज ही हो सकता है। शूद्र, दलित, आदिवासी समाजों में कई ऐसी कहावतें हैं कि देवी-देवताओं ने स्‍त्री-पुरुष को समान बनाया है और वे पुरुष और स्‍त्री दोनों के आध्यात्मिक भाव को एक ही नजर से देखते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में बहुसंख्यक आध्यात्मिक मान्यताओं और परंपराओं की ही झलक दिखाई है। लेकिन भाजपा-आरएसएस ने ‌स्त्रियों को ही स्त्रियों के खिलाफ गोलबंद कर दिया। यह तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मिस्र वगैरह के कट्टर मौलानाओं के कारनामों से भी बदतर है।

उनकी चाहत है कि हमारे विश्वविद्यालय अरब देशों की तरह होने चाहिए। फर्क सिर्फ यह है कि वहां एकपंथी मुसलमान हैं और यहां एकपंथी हिंदू। यही साहित्य, समाज और राजनीति की आज सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि विश्वविद्यालयों को तो गंभीर विचारों और परिवर्तनकारी साहित्य लेखन का केंद्र होना चाहिए। भाजपा-आरएसएस इन विश्वविद्यालयों को खत्म ही कर देना चाहते हैं।

(लेखक राजनीति शास्‍त्री और टी-एमएएसएस के अध्यक्ष हैं। सामाजिका स्मग्गलेर्लु कोमातोल्लु, ह्वाइ आइ एम नॉट ए हिंदू, पोस्ट हिंदू इंडिया उनकी चर्चित कृतियां हैं)

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