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चंपारण शताब्दी वर्ष के बहाने गांधी से साक्षात्कार

गांधी को याद करना तभी कुछ काम का होगा जब हम उनके आंदोलन खड़ा करने और संगठन बनाने के तरीकों पर गौर करें, इसके लिए चंपारण में उनके प्रयोग डालते हैं नई रोशनी
गांधी ने चंपारण से जो चिंगारी सुलगाई वह आज ज्यादा बड़े रूप में दिखती है

चंपारण सत्याग्रह का सौंवा साल बीत गया और अब देश गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है। इसकी तैयारियों में केंद्र सरकार ज्यादा चौकस लगती है पर राष्ट्रपिता से जुड़े इस आयोजन को हजारों संस्थाएं और लाखों लोग भी अपने-अपने ढंग से सफल और प्रभावी बनाने में जुटे हैं। आम तौर पर बापू को बिसराए रहने वाला हमारा मीडिया भी कई तरह से उन्हें याद करने की तैयारी में है। उम्मीद करनी चाहिए कि हमारे-आपके बीच से कोई मुन्ना भाई या एटनबरो जैसा कोई कल्पनाशील दिमाग गांधी जैसी फिल्म बनाकर सामने लाए। सरकारी आयोजनों से तो इस तरह की रचनात्मकता की उम्मीद नहीं की जा सकती। इस संदर्भ में गांधी शताब्दी वर्ष के आयोजन को ही याद करना अप्रासंगिक न होगा, जो उनके उत्तराधिकार का दावा करने वाली कांग्रेसी सरकार ने ही आयोजित किया था। यह तो भाजपा-संघ वाली सरकार है जो प्रवचनकारों, बाबाओं, नोबल लारेट्स के जरिए गांधी के बहाने अपना प्रचार चाहती है।

चंपारण वाले आयोजन में तो यह सरकार एक राज्य सरकार से भी पिछड़ गई थी। स्वच्छता मिशन का शोर पहले ही शुरू हो गया था और उसे गांधी के चंपारण आंदोलन से जुड़ा बताया गया, पर चंपारण शताब्दी मनाने का होश तब आया जब नीतीश कुमार ने बाजी मार ली (तब नीतीश महागठबंधन के मुख्यमंत्री थे)। फिर हड़बड़ी में दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रधानमंत्री का भाषण हुआ, हर चैनल पर उसका प्रसारण हुआ, बाद में बिहार में भी नीतीश के आयोजन के समांतर खड़ा होने की कोशिश हुई। कहना न होगा कि इन दो समांतर रेखाओं के मिलन अर्थात भाजपा-जदयू गठबंधन सरकार के गठन के साथ सरकारी आयोजन का खेल खत्म हुआ। यह बताने में हर्ज नहीं है कि आम लोगों, आंदोलनकारियों के परिवार वालों, गांधीवादी और अन्य राजनीतिक जमातों की तरफ से भी बड़े आयोजन हुए। खूब सारे लोगों ने भागीदारी की। जब मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह कॉलेज के छात्रों और अध्यापकों ने गांधी के मुजफ्फरपुर पहुंचने का दृश्य फिर से खड़ा किया तो स्टेशन पर दस हजार से ज्यादा लोग थे।

मैंने अपने स्तर से चंपारण सत्याग्रह की पढ़ाई दो-तीन वजहों से शुरू की थी। एमए में आजादी की लड़ाई का स्पेशलाइजेशन होने के चलते और तब फ्रांसीसी क्रांति में सूचनाओं की आवाजाही पर एक दिलचस्प किताब पढ़ने के चलते मेरे मन में चंपारण सत्याग्रह के संचार से संबंधित अध्ययन और किताब लिखने की बात बैठी हुई थी। दूसरे, मैं खुद चंपारण के ऐसे गांधीवादी परिवार से हूं जिसके एक सदस्य उस समय मोतिहारी स्टेशन पर हाजिर थे जब गांधी चंपारण आए। मेरे छोटे दादा तब से गांधी के प्रभाव में रहे जो पिता, चाचाओं और घर की महिलाओं तक पर असर डालने वाला साबित हुआ। मेरे पिता पोस्ट बेसिक स्कूल के प्राचार्य थे। हम उसी परिसर में रहने से लेकर हर काम करते थे। तीसरा कारण मोदी राज के आगमन के साथ अपनी पत्रकारिता का सिमटते जाना था। मुझे लगा, इस बात का शोर मचाने से बेहतर है कि कोई स्‍थायी महत्व का काम कर लिया जाए। काम की खूबी थी या चंपारण शताब्दी वर्ष का मामला कि गांधी के संचार कौशल वाला काम पूरा होते ही कई और किताबों की मांग आई या अपनी बुद्धि में सूझी और पांच किताबें बन गईं। हालांकि यह काम ज्यादा श्रमसाध्य साबित हुआ और कमाई पत्रकारिता के मुकाबले कुछ भी नहीं हुई। पर जरूरतें कम करने की सीख तो गांधी बाबा देते ही हैं।

चंपारण से संबंधित पढ़ाई के दौरान खुद गांधी, राजेंद्र बाबू, आचार्य कृपलानी, अनुग्रह बाबू, वनमाला पारिख और राजकुमार शुक्ल जैसे समकालीनों का लेखन और फिर सरकारी दस्तावेज, खुफिया पुलिस के रिकॉर्ड तथा गांधी के पत्राचार वगैरह पढ़ा-जाना। तब लगा कि संचार से ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य यही बात स्थापित करना है कि गांधी सत्य, अहिंसा, ‌निडरता और पश्चिमी विकास के मॉडल का अपना जो विकल्प पेश करना चाहते थे, उसके पहले प्रयोग को ही फोकस में रखा जाए क्योंकि यहीं से एक नई शुरुआत हुई। गांधी के जीवन में भी, चंपारण और बिहार में भी, कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन में तथा दुनिया भर के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में भी। इसका असर देखने चलेंगे तो पाएंगे कि उसी साल हुई रूसी क्रांति पुआल की आग की तरह धधाकर उभरी और सौ साल से पहले ही खुद डूबी और समाजवाद की पूरी विचारधारा को ले डूबी। दूसरी ओर गांधी ने चंपारण से जो चिंगारी सुलगाई वह आज ज्यादा बड़े रूप में दिखती है और दुनिया गांधी में एक विकल्प देख रही है। हर बड़ी राजनैतिक लड़ाई में गांधी के तरीके अपनाए जा रहे हैं।

गांधी से पहले चंपारण के किसानों ने डंडे के जोर से, अर्जी-पिटीशन से, अदालतों से और सामूहिक हिंसा के जरिए भी निलहों को भगाने की कोशिश की थी। गांधी ने यह सब छोड़ सिर्फ सच को उजागर करने और अहिंसक ढंग से बात रखने की कोशिश की और यह सब करने की ताकत पैदा करने के लिए निर्भयता अपनाई। तब चंपारण में क्या, पूरे बिहार में कोई एक भी रचनात्मक काम करने वाला न था। कांग्रेस का कोई पूर्णकालिक कार्यकर्ता नहीं था। खुद गांधी ने न नील देखा था, न चंपारण। बिहार भी नहीं गए थे, न जमीनी दस्तावेज वाली कैथी लिपि जानते थे, न भोजपुरी जानते थे। यही नहीं, उन्‍होंने न कोई जनसभा की, न किसी को सभा करने दी, न एक पैसा चंदा किया, अखबारों को दूर रहने को कहा, दस महीने में सिर्फ छह विज्ञप्तियां जारी हुईं। गो-सेवा की, स्कूल बनाए, शिल्प और खादी के प्रयोग किए। उल्लेखनीय है कि गांधी गो-सेवक थे, गो-भक्त नहीं। उतने ही कम समय में उन्होंने गोशाला भी बनवा दी थी।

उन्होंने सबसे पहला काम सच को उजागर करने, बल्कि सबके देखने लायक बनाने का किया। स्टाम्प पेपर पर तीन-तीन गवाहों और बड़े-बड़े वकीलों के जिरह से निकली हजारों गवाहियों के माध्यम से उन्होंने जो सच अंग्रेजी शासन, निलहों और दुनिया को दिखाया, उसे कोई नहीं काट सका। तकरीबन पच्‍चीस हजार गवाहियों को जुटाने के क्रम में ही सरकार और निलहों ने लगभग हथियार डाल दिया। दूसरी तरफ हम अाज के कई बड़े मामलों में देखते हैं कि अदालतें सबूतों का इंतजार ही करती रहती हैं और सारे अभियुक्त छूट जाते हैं। गांधी ने यह भी पूरा खयाल रखा कि हिंसा न हो। दस्तावेजों से पता चलता है कि प्रशासन कम से कम दो मौकों पर फौज को तैयार रहने को कह चुका था और निलहों ने अपनी कोठी फूंक कर हिंसा भड़काने की कोशिश की। गांधी को जहर देने का प्रयास भी हुआ।

तीसरा काम लोगों में सच बयान करने का साहस भरने का था जिसकी शुरुआत गांधी ने खुद जिला छोड़ने का सरकारी आदेश न मानकर की। फिर तो हजारों किसान खुफिया पुलिस की मौजूदगी में भी बयान देने से नहीं डरे। गांधी ने चंपारण और धीरे-धीरे पूरे देश से गोरी चमड़ी का डर निकाल दिया जो दुनिया से उपनिवेशवाद की विदाई का सबसे प्राथमिक आधार बना। यह काम उन्होंने कितनी होशियारी से किया, इसके अनेक दिलचस्प किस्से संस्मरणों और दस्तावेजों में मिले। लोगों के मन से डर निकालने के लिए कृपलानी को जेल भेजना, साथियों के मन से गोरी चमड़ी का डर निकालने के लिए चार्ल्स एंड्रूज को फिजी भेजना और कलक्टर द्वारा भेजी गई चीजों का दिखावे/प्रदर्शनी के लिए उपयोग करना शामिल है। फिर सादगी और समानता वाले अपने आचरण से उन्होंने तब के हजारों-लाखों में कमाई करने वाले वकीलों को भी साधारण जीवन जीने की सीख दी। जैसे ही गांधी को लगा कि नील के सवाल पर लड़ाई जीत गए हैं, उन्होंने स्वास्थ्य, शिक्षा, सफाई, ग्रामोद्योग और वैकल्पिक विकास के अपने मॉडल का प्रयोग शुरू किया, बाहर से कार्यकर्ता बुलाए और स्थानीय लोग भी जुटे।

चंपारण्‍ा पर मेरे अपने काम को लेकर ज्यादा मुगालता नहीं है। मेरी जानकारी में ही कम से कम चंपारण पर हाल में पचास काम हुए हैं जिनमें दो-तीन तो बहुत ऊंचे स्तर के हैं। इनके प्रकाशन की सूचना नहीं है। बड़े भाई हेमंत चंपारण सत्याग्रह की हजारों गवाहियों में से सौ गवाहियों के आधार पर सौ परिवारों के तब की और आज की स्थिति की तुलना कर रहे हैं।

इतिहास के अध्यापक अशोक अंशुमान लोक संचार से लेकर तब के अखबारों पर बढ़िया काम कर रहे थे। असल में दिल्ली में पत्रकार होने और कई बार मांग पर लिखने की आदत के चलते मैं न सिर्फ गांधी के संचार कौशल बल्कि चंपारण सत्याग्रह, गांधी के तीस सहयोगियों, ऐतिहासिक तथ्यों और कल्पना के आधार पर गांधी की तब की डायरी लिखने में सफल रहा। अच्छे प्रकाशकों की तरफ से आग्रह भी ज्यादा किताबें लिखने का कारण बना। इस दौरान बिहार सरकार अपने स्कूली बच्चों के लिए जो चित्रकथा वाली किताब तैयार करा रही थी उससे भी जुड़ा रहा पर भाजपा के सहयोग से सरकार बनाने के बाद मैंने अपना सहयोग समेट लिया।

खैर, किताबों और दर्जन से ज्यादा बड़े लेखों पर पाठकों की प्रतिक्रिया और देश भर से आने वाले बुलावे बताते हैं कि मेरा काम लोगों ने पास कर दिया है। शिमला के एडवांस्ड स्टडी इंस्टीट्यूट में इतिहासकारों के जलसे से लेकर पटना के समागम तक में मेरे बोलने का जो असर दिखा वह बहुत संतोष देने वाला था।

जाहिर है, इन अनुभवों ने गांधी में नई रुचि जगाई। यह गांधी और कस्तूरबा की महानता और मेरी पढ़ाई के साथ एक और बात पर  टिका है। इस बीच गांधी पर पढ़ाई-लिखाई कम हुई है, स्तरीय नहीं हुई है। चंपारण सत्याग्रह वर्ष के नाम पर ही जितनी औसत किस्म की किताबें आईं, हजारों लेख छपे, उनके बीच जरा भी मेहनत और लगन से किया काम आगे दिखे यह भी संभव है। इसे मैं चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष की अपनी उपलब्धि मानता हूं।

अफसोस रहा तो सिर्फ यह कि काम देर से क्यों शुरू किया। छोटे बाबा और उनके दोस्तों से संस्मरण सुने थे, पर लिखने के लिए सुनना और रिकॉर्ड करना नहीं हो पाया था। जब ऐसे लोगों को याद करने लगा तो कोई भी नहीं मिला। बड़ी तेजी से वह पीढ़ी ताे विदा हुई ही, उसके बाद की यानी उनसे कहानी सुनने वाले भी विदा हो गए। फिर याद आया कि सौ साल मेरे किताब लिखने के लिए कौन बैठा रहता। उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले वर्ष गांधी के कामों को याद करते हुए ज्यादा फलदायी होंगे।

(लेखक की किताबें ‘प्रयोग चंपारण’ भारतीय ज्ञानपीठ, ‘चंपारण सत्याग्रह की कहानी’ और ‘चंपारण सत्याग्रह के सहयोगी’ सस्ता साहित्य मंडल, ‘मिस्टर एम.के. गांधी की चंपारण डायरी’ प्रभात प्रकाशन और ‘चंपारण पुराण’ प्रकाशन विभाग से प्रकशित हुई हैं) 

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