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गांधी का मतलब

डेढ़सौवीं जयंती वर्ष में हम महात्मा की पूजा न करें, उनके बताए रास्तों को समझें और चलें
आज गांधी स्वच्छता अभियान चलाते तो झाड़ू से सांप्रदायिकता-जातीयता-दुराचार-व्यभिचार-भ्रष्टाचार-दिखावेबाजी सबकी पिटाई-सफाई होती

यह भी अच्छा खेल है हमारा, कि जब थे तब उन्हें गोली मार दी, और अब जब वे नहीं हैं तो हम मासूमियत से पूछते हैं कि वे होते तो क्या होता! गालिब बहुत पहले कह कर चले गए कि न था तो खुदा था/ न होता तो खुदा होता/ डुबोया मुझको होने ने/ न मैं होता तो क्या होता/ हुई मुद्दत  कि गालिब मर गया/ पर याद आता है/ वो हर इक बात पर कहना/ कि यूं होता तो क्या होता!

गांधी गालिब के इस संदर्भ में बहुत याद आते हैं कि वे भी हर इक बात पर कहते थे कि यूं होता तो क्या होता! जो कुछ होता आया था वैसा नहीं करके, जो कभी हुआ नहीं, वह करने की जिद महात्मा गांधी को इतना ऊंचा उठा ले गई कि हम हैरान होते हैं कि क्या हाड़-मांस का मानव भी इतना ऊंचा उठ सकता है! कुछ ऐसा ही तो आइंस्टाइन के मन में उमगा होगा जब उनने कहा कि आने वाली नस्लें शायद यह भरोसा ही न करें कि हाड़-मांस का ऐसा कोई इनसान इस धरती पर चला भी था!

गांधी होते तो वे हमारे सारे मानक बदल देते! वे बदल देते हमारी यह सोच कि विकास का मतलब ऊपर से उड़ेला जाने वाला धन, कहीं बाहर से जुटाया हुआ निवेश या दिखावे की चमक-दमक या कि घंटे के हिसाब से बदली जाने वाली पोशाक होता है। वे हमें समझा लेते कि विकास कहीं ऊपर से आता नहीं है, न लाया जा सकता है। विकास इनसान व समाज से अलग कोई चीज नहीं है। वह तो हमारे भीतर से पैदा होने वाला स्वाभिमान और समता का वह मिला-जुला तत्व है जिसे वे स्वदेशी कहते हैं। इस स्वाभिमान व समता को साकार करने के लिए उन्होंने खादी और ग्रामोद्योग का मंत्र भी और तंत्र भी हमारे सामने रखा। खुद नियमित चरखा चलाकर, थोड़े-से लोगों को चरखा चलाने के लिए प्रेरित कर उन्होंने ऐसा दबाव खड़ा किया कि सुदूर इंग्लैंड में लंकाशायर की कपड़ा मिलें बंद होने लगीं। वे होते तो आजाद हिंदुस्तान के लाखों गांवों में, करोड़ों से चरखा चलवा कर अब तक ग्रामों का ऐसा विकास करवा चुके होते कि वे सभी आजादी से अपना ग्रामस्वराज्य चला रहे होते। ग्रामीण हिंसा में जलती हमारी बदहवास ग्रामीण आबादी अब तक अपनी आत्मनिर्भरता की ताकत से दुनिया के व्यापार-जगत का दिशा-निर्देश करती होती। वे कहते ही थे न कि मैं गुजराती बनियां हूं, घाटे का सौदा नहीं करता हूं।

आज जब सारी दुनिया खत्म होते संसाधनों का रोना रो रही है, गांधी का वह जीवन हमें रास्ता बताता जो कम-से-कम संसाधनों में, अच्छे-से-अच्छा गरिमामय जीवन जीता था। उनके आश्रम में सभी श्रम में भी और उपभोग में भी बराबरी की हिस्सेदारी करते थे, और फिर भी बच्चों व बीमारों के लिए आवश्यक अलग तरह की व्यवस्था रहती थी। आश्रम में आने वाला हर कोई, जाति-पद-विद्वता आदि का भेद किए बिना सफाई का काम करता था। वह गांधी का सफाई अभियान नहीं था, सफाई की जीवन-शैली थी। रोज-रोज होने वाले इस सफाई अभियान का कोई फोटो आपको कहीं देखने को नहीं मिलेगा, क्योंकि गांधी कैमरे को सफाई का उपकरण नहीं मानते थे। वे कहते ही थे कि गंदे मन से सड़क की सफाई कोई मतलब नहीं रखती है। कोई तो बताए या कोई सूचना के अधिकार से यह पता करे कि प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर राज्यों तक में फैले सरकारी तंत्र में, पिछले पांच साल में सफाई के काम के लिए रखे कितने कर्मचारी कम हुए हैं? क्या स्वच्छता-जागरण के इन पांच साल में कम-से-कम ऐसा नहीं होना चाहिए था कि अब प्रधानमंत्री से लेकर नौकरशाही का सबसे छोटा पुर्जा तक, सभी अपनी मेज की सफाई खुद ही करने लगे हैं? मन, मूल्य और तन की गंदगी साफ हो तब बाहर फैली गंदगी की सफाई आसान व स्वाभाविक बन जाती है। इसलिए आज गांधी कोई स्वच्छता अभियान चलाते तो उसके झाड़ू से सांप्रदायिकता-जातीयता-दुराचार-व्यभिचार-भ्रष्टाचार-दिखावेबाजी और घनघोर अपव्यय वाली शासन शैली आदि सबकी पिटाई-सफाई होती। कोई माल्या या नीरव मोदी नहीं, उनके निशाने पर वह व्यवस्था होती जो माल्याओं-नीरवों के बगैर न चल सकती है, न पनप सकती है।    

उनकी गरीबी में दरिद्रता नहीं थी, उन्मुक्तता का आनंद था। वे उपभोग की मर्यादा तय करने की बात करते थे। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा कहा करते थे कि वे गांधी जी से मिल पाते तो उनसे यही पूछते कि इतने कम संसाधनों में ऐसा सुशोभित जीवन कैसे जिया जाता है। वे पूछ नहीं सके क्योंकि गांधी उनकी पहुंच में नहीं थे, हम कर नहीं सके क्योंकि हम गांधी को समझ नहीं सके।

दूसरे किसी अर्थ में हों या न हों, गांधी इस अर्थ में हमारे बीच जीवित हैं कि हम भारत में, और दुनिया के लोग अपने-अपने हिस्सों में जब किसी समस्या से घिरते हैं तो बाहर निकलने का रास्ता तलाशते हुए गांधी तक पहुंचते हैं, लेकिन गांधी का रास्ता स्वीकार नहीं कर पाते हैं। उनके रास्ते इतने सरल कभी नहीं रहे। आप उन्हें टुकड़ों में समझने और अपनाने की जितनी कोशिश करेंगे, उतनी ही बुरी स्थिति में पड़ेंगे, क्योंकि गांधी की समग्रता में ही उनकी परिपूर्णता है। हम आज उस दौर में हैं जो ‘शॉर्टकट’ की खोज करता है- जल्दी और आसान रास्तों से सफलता! लेकिन सबसे जल्दी और सबसे आसान रास्ता तो वही है न कि जो आपको आपकी मंजिल तक पहुंचाता हो। जो मंजिल तक पहुंचता ही न हो वह चाहे जितना आसान हो, जितना छोटा हो हमारे किस काम का? गांधी सारे जीवन यही कहते, करते और समझाते रहे। लेकिन गांधी के तथाकथित परमशिष्यों, जवाहरलाल, सरदार, राजेंद्र प्रसाद, मौलाना आजाद, कृपालानी से लेकर जयप्रकाश, लोहिया जैसे टेढ़े-मेढ़े शिष्यों के पल्ले वे तब पड़े नहीं जब पड़ना बेहद जरूरी था। इसलिए हम आज हाथ मलते और सर पटकते नजर आते हैं।    

गांधी पूछते हैं कि हम पहले तय यह करें कि हम चाहते क्या हैं? इस बारे में सहमति हो जाए तब हम यह देखेंगे कि हम जो चाहते हैं, वह हो कैसे। चुनौती बेरोजगारी की है। हर सरकार बताती है कि वह किस तरह नए रोजगारों का सृजन करेगी। लेकिन न मनचाही परिस्थितियां मिलती हैं, न मनचाहे लोग, न पर्याप्त संसाधन न उपयुक्त साधन! हमारी सारी कोशिश आंकड़ों के जंजाल में उलझ कर रह जाती है और हम ख्याली पकौड़े तलते मिलते हैं।

सब कुछ मनोनुकूल और आदर्श परिस्थिति तो ईश्वर को भी नहीं मिली होगी तभी तो हमारे जैसे लोग भी बने और हमें ऐसी दुनिया भी मिली। तो बात सीधी है कि जो ईश्वर को नहीं मिला, उसकी कामना हम भी न करें। गांधी गांवों को अपना आधार इसलिए नहीं बनाते हैं कि वहां सब कुछ आसानी से हो जाएगा बल्कि इसलिए बनाते हैं कि वहां वह सब कुछ स्वाभाविक रूप से उपलब्ध है जिसकी हमें जरूरत है। गांधी का गांव वह है जहां मनुष्य व प्रकृति दोनों अपने स्वाभाविक रूप में पलते-बनते और रहते हैं। गांव के सच को लेकर युवा जवाहरलाल ने गांधी से सीधा ही कहा था न कि गांव गोबर के ढेर हैं जिनमें कुछ भी नया, आधुनिक व संभावनापूर्ण नहीं उग सकता है। तब गांधी ने उनसे कहा था कि तुम जिसे गांव कह रहे हो वह तो हमारे शहरों द्वारा चूस कर फेंक दी गई सिट्ठी है। ये मेरी कल्पना के गांव नहीं हैं। अपनी कल्पना के गांव की जो तस्वीर वे जवाहरलाल के लिए खींचते हैं, उसके सामने आज के स्मार्ट सिटी की सारी कल्पना फीकी पड़ जाती है। वे गांव के जन व गांव के धन के नव संयोजन के बल पर एक नए हिंदुस्तान के सृजन की बात करते हैं, कारपोरेट के आंचल में दुबक कर, उसके लूट का बाजार खड़ा करने की योजना नहीं बनाते हैं।

वे कहते हैं कि यह पेच बहुत पुराना है कि जहां संसाधन हैं, वहां लोग नहीं हैं, जहां लोग हैं वहां संसाधन नहीं हैं। इसलिए उनका सीधा रास्ता यह है कि जहां लोग हैं वहां हम पहुंचें और उनके पास जो संसाधन हैं उससे काम शुरू करें। गांवों के पास स्थायी प्राकृतिक संसाधन हैं- जल, जंगल और जमीन! गांधी कहते हैं कि इन्हीं संसाधनों का मनमाना दोहन करके तो औद्योगिक क्रांति के बाद का संसार बनाया है हमने। चूक यह की हमने कि मशीनें, कारखाने, परियोजनाएं आदि सबकी-सब वहां स्थापित कीं, जहां लोग नहीं थे।

हमारे परंपरागत समाज की चालक-शक्ति वे थे जो मेहनत से उत्पादन करते थे, औद्योगिक क्रांति ने समाज का चालक उसे बना दिया जिसके पास पूंजी थी। श्रमिक से धनिक की तरफ समाज की इस छलांग ने पूंजी तो बेहिसाब बढ़ाई लेकिन उसे बहुत छोटे समूह तक सीमित कर दिया। पूंजी वाले इस समूह ने अपनी सुविधा देख कर विकास के पैमाने तय किए। पूंजीसंपन्न वर्ग ने रास्ता यह निकाला कि मनुष्यों को अपनी जगह से उखाड़ कर वहां लाया जाए, जहां साधन बनाया गया है। इस तरह कारखानों व दूसरे प्रतिष्ठानों के इर्द-गिर्द शहरों-नगरों-कस्बों का निर्माण होने लगा। गांव प्राकृतिक संरचना है जो प्रकृति के आधार पर बना-बसा और संपन्न हुआ; शहर कृत्रिम संरचना है जिसके पीछे पूंजी की ताकत और श्रमिक वर्ग की लाचारी है। आबादी बढ़ने, आवश्यकताएं बढ़ने के साथ-साथ औद्योगिक विकास की यह जटिल संरचना और भी जटिल होती गई। फिर इसमें एक दूसरा पेच यह आ पड़ा कि मशीनों से हो रहा बेहिसाब उत्पादन बिके कहां? तो रास्ता यह निकाला गया कि उत्पादन वहां पहुंचाया जाए जहां लोग हैं। यहां से बाजार एक नई ताकत बन कर, गांव-नगर तक पहुंचा। एक बाजार पर्याप्त नहीं था, तो नए-नए बाजार खोजने और वहां पहुंचने की होड़ शुरू हुई और इस तरह वह भयानक उपनिवेशवाद पांव फैलाने लगा जिसने सारी दुनिया में गुलामी का एक दौर चलाया। हम भी उस चक्की में लंबे समय तक पिसते रहे।

यह इतिहास और उसका यह परिणाम गांधी ने देखा और समझा तथा 1909 में लिखी अपनी कालजयी पुस्तक हिंद स्वराज्य में बड़ी ही लाक्षणिक शैली में हमें समझाया भी। लेकिन गांधी किताबी विद्वान नहीं थे। उनके व्यक्तित्व में क्रांतिकारी विचारक और योद्धा का अनोखा संगम था। इसलिए उन्होंने इनसान, पूंजी और बाजार का यह विष-चक्र तोड़ने की योजना बनाई और खादी-ग्रामोद्योग का पूरा दर्शन खड़ा किया। दर्शन ही खड़ा नहीं किया, बल्कि उसे अपनी प्रयोगशाला में उसी तरह जांचा-परखा जिस तरह कोई भी वैज्ञानिक अपनी खोज को जांचता-परखता है। विदेशी के बहिष्कार और स्वदेशी के स्वीकार का उनका पूरा आंदोलन वह प्रयोगशाला थी जिसमें वे इसकी व्यावहारिकता और इसके परिणामों को परख रहे थे। खादी का काम जिस गति से बढ़ा और खादी ने विदेशी सामान के बाजार को जिस तरह चोट पहुंचाई तथा खादी का विकसित होता बाजार जिस तरह सुदूर इंग्लैंड में लंकाशायर की कपड़ा मिलों को बंदी की कगार पर ले गया, उसने यह प्रमाणित कर दिया कि खादी-ग्रामोद्योग की उनकी अवधारणा में शक्ति भी है और संभावना भी।

खादी-ग्रामोद्योग की उनकी पूरी अवधारणा के पीछे उनकी सोच यह है कि जहां संसाधन हैं और लोग हैं वहां ही विकास के साधन पहुंचाएं हम। लक्ष्य यह है कि हर इनसान की बुनियादी जरूरतें पूरी हों ही! जब लाखों गांवों में ऐसा अर्थतंत्र विकसित होगा तो पूंजी के सम वितरण का शास्‍त्र बनाना होगा, और तब हम यह समझ सकेंगे कि सारे देश की दौलत समेट कर दिल्ली पहुंचाना और फिर वहां से वितरित करना कितनी अवैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसमें पूंजी का भयंकर अपव्यय होता है, भ्रष्टाचार को खुला खेलने का मौका मिलता है और लोगों की जरूरत का नहीं, बाजार की जरूरत का उत्पादन होता है। इसलिए भूखे को अनाज नहीं मिलता, बीमार को दवा नहीं मिलती, कला-साहित्य को माहौल नहीं मिलता। खरीदने की हैसियत वालों को सब कुछ मिलता है।

गांधी ने देख लिया था कि औद्योगिक क्रांति के गर्भ से सत्ता-संपत्ति-बाजार का त्रिभुज पैदा हो रहा है। इस खतरनाक दुरभिसंधि को समझ कर उन्होंने गांवों को शासन की बुनियादी इकाई और उत्पादन का प्राथमिक स्थल बनाने का शास्‍त्र गढ़ा और उसे लागू करने का तंत्र विकसित किया। और यह सब तब किया जब वे देश की राजनीतिक गुलामी की लड़ाई का अनोखा नेतृत्व कर रहे थे। दुनिया आर्थिक मंदी से घिरी है। इतिहास बताता है कि जब-जब ऐसी गहरी आर्थिक मंदी ने संसार को घेरा है, विश्वयुद्ध हुए हैं। अर्थ और युद्ध का यह रिश्ता गांधी की समझ में 1909 में ही आ गया था और उन्होंने बार-बार लिखा और कहा था कि अर्थ-व्यवस्था जितनी बड़ी बनेगी, उतनी ही विकराल होगी।        

खादी की बड़ी-बड़ी, चमकीली दुकानें खादी की आत्मा का हनन करती हैं, क्योंकि खादी व्यापार व बिक्री के बढ़ते आंकड़ों में छिपा व्यवसाय है ही नहीं। जो हर पहर अपनी पोशाकें बदलते हैं और समाज में उसकी कीमत का आतंक बनाते हैं, उनकी पोशाक खादी की है या पोलिएस्टर की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह खादी की भी हो फिर भी गांधी की नहीं है। आज पर्यावरण का भयावह खतरा, संसाधनों की विश्वव्यापी किल्लत, नागरिकों की और प्राकृतिक संसाधनों की अंतरराष्ट्रीय लूट आदि को जो जानते-समझते हैं, वे सब स्वीकार करते हैं कि गांधी इस शताब्दी के सबसे आधुनिक और वैज्ञानिक चिंतक थे जिन्होंने अपने दर्शन के अनुकूल व्यावहारिक ढांचा विकसित कर दिखलाया। जो जनता स्वावलंबी नहीं है वह स्वतंत्र और लोकतांत्रिक कैसे हो सकती है, गांधी का यह सवाल आज भी अनुत्तरित है। 

गांधी का यह मतलब है। हम गांधी की पूजा न करें, उनके रास्तों का शोध करें, और वह भी गांधी के लिए नहीं, अपने लिए। यह गुत्थी हम जितनी जल्दी सुलझा सकेंगे, उतनी जल्दी नई संभावनाएं खुलने लगेंगी।

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं) 

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