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डिग्री को ही मोहताज

कॉलेजों की संबद्धता पर फैसले में देरी से लाखों छात्रों का भविष्य अधर में, तीन साल में डिग्री दूर की कौड़ी
मांगा नतीजा, मिली लाठीः पटना में छात्रों पर लाठीचार्ज

यह देश में उच्‍च शिक्षा की हालत का गजब नमूना है और वह भी 'सुशासन बाबू' नीतीश कुमार के बिहार का, जो अपनी उपलब्धियों की पताका में शिक्षा को सबसे ऊपर रखते आए हैं। कहां तो बीए, बीएससी या बीकॉम की डिग्री लेकर नौजवान आगे की पढ़ाई करते या रोजगार की तलाश करते, लेकिन साल भर की देरी से मगध विश्वविद्यालय ने 2015-18 सत्र के फाइनल ईयर के नतीजे जब 15 फरवरी को जारी किए तो करीब 86 हजार छात्रों के रिजल्ट ही रोक लिए। विश्वविद्यालय का कहना है कि जब तक इन कॉलेजों की संबद्धता पर शिक्षा विभाग फैसला नहीं लेता, नतीजे जारी नहीं किए जाएंगे।

राज्य के शिक्षा मंत्री कृष्णनंदन वर्मा ने आउटलुक से कहा, “संबद्धता के लिए विश्वविद्यालयों ने शिक्षा विभाग को जिन कॉलेजों के आवेदन भेज रखे हैं उनकी जांच की जा रही है और जल्द ही इस मामले का निपटारा हो जाएगा।” राज्य की उच्च शिक्षा निदेशक डॉ. रेखा कुमारी का कहना है, “निर्धारित मापदंडों के अनुसार आवेदन की जांच चल रही है और इस महीने के अंत तक संबद्धता का मामला निपट जाएगा। ऐसे कॉलेज जो लीज की जमीन पर चल रहे हैं उन्हें किसी सूरत में संबद्धता नहीं दी जाएगी।” लेकिन उन छात्रों का क्या होगा, जिनका भविष्य अधर में है? पटना हाइकोर्ट ने बीते साल नवंबर में सरकार को इस मामले का निपटारा छह सप्ताह में करने का निर्देश दिया था। हाइकोर्ट के आदेश पर ही असंबद्ध कॉलेजों के छात्रों को विश्वविद्यालय ने फाइनल ईयर की परीक्षा में बैठने की इजाजत दी थी।

संबद्धता विवाद का असर अन्य सत्र के छात्रों के भविष्य पर भी पड़ रहा है। मगध विश्वविद्यालय से संबद्ध पटना के रामलखन सिंह यादव कॉलेज से बीए (सत्र 2016-19) की पढ़ाई कर रहे अजीत सिंह ने बताया कि उनकी सेकेंड ईयर की परीक्षा अब तक नहीं हुई है। बकौल अजीत, उन्हें पांच महीने पहले ही पता चला है कि उनके कॉलेज के पास संबद्धता नहीं है। बताया जाता है कि केवल मगध विश्वविद्यालय में ही सेकेंड ईयर के करीब 1.30 लाख छात्र ऐसे कॉलेजों से हैं, जिनके पास संबद्धता नहीं है।

ऐसा नहीं है कि इससे केवल मगध विश्वविद्यालय के ही छात्र प्रभावित हैं। पटना विश्वविद्यालय को छोड़ राज्य के सभी विश्वविद्यालयों में कमोबेश ऐसी ही स्थिति है। राज्य में कुल 11 विश्वविद्यालय हैं जिनके तहत 571 डिग्री कॉलेज संचालित हैं। इनमें से 250 कॉलेज ही सरकार से अंगीभूत हैं। यानी इनका संचालन सरकार करती है। शेष कॉलेजों को संबद्धता देने और रद्द करने का चक्र लगातार चलता रहता है। फिलहाल, 125 कॉलेज ऐसे हैं जिनके पास संबद्धता नहीं हैं, लेकिन छात्रों का एडमिशन लगातार जारी है। यही कारण है कि 2018-21 के सत्र में एडमिशन लेने वाले छात्रों में से करीब डेढ़ लाख छात्रों का भविष्य पहले ही साल अधर में लटक गया है, जबकि उनका कॉलेज बिहार विद्यालय परीक्षा समिति (बीएसईबी) के ऑनलाइन फैसिलिटेशन सिस्टम फॉर स्टूडेंट्स (ओएफएसएस) पोर्टल पर रजिस्टर्ड है। असल में विश्वविद्यालयों ने एकेडमिक काउंसिल, संबद्धता समिति, सिंडीकेट और सीनेट से मंजूरी पा चुके उन कॉलेजों के नाम भी ओएफएसएस पोर्टल के लिए भेज दिए जिनकी संबद्धता पर शिक्षा विभाग ने अब तक फैसला नहीं किया है।

बिहार राज्य संबद्ध डिग्री महाविद्यालय शिक्षक-शिक्षकेत्तर कर्मचारी संघ के अध्यक्ष रामविनेश्वर सिंह के मुताबिक दो कारणों से यह मामला इतना गंभीर हो गया है। उनका आरोप है कि कॉलेज संचालकों से पैसा नहीं मिलने पर विश्वविद्यालय प्रशासन नियमों का हवाला देकर बीच में ही संबद्धता समाप्त कर देता है। साथ ही अनुदान देने से बचने के लिए सरकार भी संबद्धता के आवेदन लटका कर रखती है। उन्होंने आउटलुक से कहा, “कॉलेजों में एडमिशन चोरी-छिपे नहीं हुए हैं। अब शिक्षा विभाग और विश्वविद्यालय एक-दूसरे पर गलती थोपने की कोशिश कर रहे हैं।”

गौर करने वाली बात यह है कि मगध विश्वविद्यालय ने फाइनल ईयर के जिन छात्रों के नतीजे रोके हैं उनके फर्स्ट और सेकेंड ईयर के नतीजे बिना किसी विवाद के जारी हुए थे। पीड़ित छात्र अमरदीप कुमार और दीपक कुमार ने आउटलुक को बताया कि उन्हें बीते साल जून में यह पता चला कि उनके कॉलेज के पास संबद्धता नहीं है। उस वक्त फाइनल ईयर की परीक्षा के लिए फॉर्म भरे जा रहे थे। अमरदीप कुमार मगध विश्वविद्यालय के कन्हौली स्थित बीआरएसवाई कॉलेज का, तो दीपक इसी विश्वविद्यालय के अरवल जिले स्थित शहदेव प्रसाद यादव कॉलेज का छात्र है। दोनों कॉलेज करीब चार दशक पुराने हैं और छात्रों को मगध विश्वविद्यालय डिग्री प्रदान करता रहा है।

बिहार लोकसेवा आयोग के सदस्य रहे शिव जतन ठाकुर ने बताया, “बिहार स्टेट यूनिवर्सिटी एक्ट 1976 के मुताबिक कोई भी पाठ्यक्रम शुरू करने से पहले कॉलेज के लिए राज्य सरकार से अनुमति लेना जरूरी है। यूनिवर्सिटी की टीम कॉलेज का निरीक्षण कर उसकी रिपोर्ट शिक्षा विभाग को भेजती है। इसके आधार पर राज्य सरकार फैसला करती है।” उन्होंने बताया कि पिछले तीन दशक में सरकार की ओर से एक भी कॉलेज अंगीभूत नहीं किया गया है। इसके कारण छात्र ऐसे कॉलेजों में एडमिशन लेने को मजबूर हैं जो नियम-कायदों के हिसाब से नहीं चलते। ऐसे ज्यादातर कॉलेजों में पढ़ाई नहीं होती। उनकी भूमिका एडमिशन लेने और परीक्षा दिलवाने तक ही सीमित रहती है।   ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ यूनिवर्सिटी एंड कॉलेज टीचर्स एसोसिएशन के महासचिव प्रो. अरुण कुमार का कहना है कि जब से सरकार ने संबद्ध कॉलेजों को अनुदान देने का फैसला किया, तब से ये कॉलेज सरकार से धन पाने के जरिया बनकर रह गए हैं। लोग कॉलेज खोल रहे हैं और रिश्वत देकर दो-तीन साल के लिए संबद्धता हासिल कर लेते हैं। दोबारा संबद्धता भी बिना चढ़ावे के नहीं मिलती। दरअसल, नीतीश सरकार ने संबद्ध कॉलेजों के लिए 2008 में अनुदान की घोषणा की थी। 2012 से कॉलेजों को अनुदान देना शुरू किया गया। वर्ष 2011 का अनुदान संबद्ध कॉलेजों को बीते साल यानी 2018 में जारी किया गया। प्रो. कुमार ने बताया कि जिन कॉलेजों के पास संबद्धता है, उनकी हालत भी समय पर अनुदान नहीं मिलने से खराब है। वे कहते हैं, “सरकार एक तरफ उच्च शिक्षा में छात्रों की संख्या बढ़ाने पर जोर देती है। दूसरी तरफ, न खुद कॉलेज खोल रही और न संबद्ध कॉलेजों को समय से अनुदान दे रही है।”

हालांकि राज्य के शिक्षा मंत्री कृष्णनंदन वर्मा इन आरोपों को सिरे से नकार देते हैं। उन्होंने आउटलुक से कहा, “लालू-राबड़ी के राज में राज्य की शिक्षा व्यवस्था रसातल में चली गई थी। उसे पटरी पर लाने की कोशिश जारी है। सत्र में देरी में पहले की अपेक्षा सुधार आया है। जिन जगहों पर गड़बड़ियां सामने आई हैं, उनकी जांच की जा रही है। पूरी तरह चीजें दुरुस्त करने में समय तो लगेगा ही।” लेकिन, कितना समय लगेगा? लालू-राबड़ी राज को खत्म हुए तो डेढ़ दशक से ज्यादा बीत गया। ताजा सवाल यह है कि ऐसे छात्रों का क्या होगा जिनके कॉलेज को सरकार संबद्धता नहीं देगी। उच्च शिक्षा निदेशक डॉ. रेखा कुमारी कहती हैं, “सरकार इसका उपाय तलाश रही है। कुछ छात्रों को ऐसे कॉलेजों में शिफ्ट भी किया गया है जो अंगीभूत हैं या संबद्ध हैं।”

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