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प्यार का दूसरा नाम है आजादी

कुछ नई वर्जनाएं, कुछ नई मनाहियां इन दिनों बिना आवाज किए डर पैदा कर रहीं
आज के संदर्भ में आजादी

एक दिन देखा कि कुछ युवा ढपली लेकर नाच-गाकर कहे जा रहे हैं, ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह!’

टेप पर टेप आते रहे, दिखाए जाते रहे, कुछ ने कहा कि विभाजनवादी गाना गाया था। कुछ बोलते रहे, नहीं गाया था। सच्चाई जो हो सो हो, मीडिया में ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ बन चुका था। विभाजन की बात बर्दाश्त से बाहर थी।

कुल बहत्तर बरस पहले ही तो हमें ‘एक इंडिया’, ‘एक भारत’, ‘एक हिंदुस्तान’ मिला। ‘आपातकाल’ लगा तो फिर लोग ‘आजादी’ के लिए लड़े। एक नए देश के भी  ‘टुकड़े-टुकड़े’ हों, यह बात हजम होने वाली न थी! मच्छर मारने के लिए प्रशासन हथौड़ा चला बैठा! बस इतने से ‘आजादी’ का ‘हनन’ हो गया।

फिर समय बदल चुका था। सत्ता बदल चुकी थी। 2014 वाली नई सरकार थी जो मनमोहन ब्रांड नहीं, मोदी ब्रांड थी, जो कांग्रेस ब्रांड नहीं भाजपा और संघ ब्रांड थी, जो ‘कंट्री फर्स्ट’ कहने वाली और घोषित रूप से राष्ट्रवादी ब्रांड की सरकार थी।

उसे यह ‘टुकड़े-टुकड़े वाद’ से निकलता उग्रवादी अलगाववाद कैसे पसंद आता? लेकिन इसके साथ-साथ एक दूसरी सच्चाई भी उभरने लगी। लोगों ने देखा कि कोई ‘गो मांस’ के संदेह पर मार दिया जाता है, कोई गाय लाता-ले जाता है तो लिंच कर दिया जाता है, कोई ‘वंदे मातरम्’ न कहने पर राष्ट्रद्रोही करार दे दिया जाता है, कोई ‘जय श्री राम’ न कहने पर ठोक दिया जाता है और कोई ‘जय श्री राम’ कहने पर अंदर कर दिया जाता है।

लोग इससे परेशान हुए, कहने लगे कि यह असहिष्णुता है, यह आजादी पर हमला है, यह हेट क्राइम है, यह खतरनाक है, यह हिंदुत्व की तानाशाही है। बुद्धिजीवी सिग्नेचर करने लगे कि यह ठीक नहीं, इसे रोका जाना चाहिए।

इसका जवाब आया कि जब हिंदू लिंच किए जाते हैं तो ये नहीं बोलते, सिर्फ मुस्लिमों के लिए बोलते हैं। यह एकतरफा नजरिया है, पक्षपात है। एक हेट दूसरी हेट से टकराकर न्यूट्रलाइज हो गई। सिर्फ हेट रह गई।

आजादी के आगे एक शब्द हमेशा लिखा रहता है कि खबरदार! हम अक्सर आजादी को तो साफ-साफ पढ़ लेते हैं लेकिन आगे लिखे हुए ‘खबरदार’ शब्द को या तो पढ़ते ही नहीं या पढ़कर भूल जाते हैं। चरम आजादी, परम आजादी, अनंत आजादी मिथ ही है। हर आजादी अपने बंधन लेकर आती है। हम आजादी का उपयोग करते रहते हैं, बंधनों को भूल जाते हैं।

‘लिबर्टी’ यानी ‘फ्रांसीसी क्रांति’ से निकला हुआ व्यक्ति की मुक्ति का एक अमोघ मंत्र! ‘इक्वेलिटी’, ‘फ्रेटर्निटी’ का तीसरा जुड़वां मंत्र यानी ‘लिबर्टी’। दुनिया को हाथ उठाकर अभय का संदेश देती मूर्ति (1886) अमेरिका के न्यूयॉर्क मेनहटन में लगी हुई है।

इस लिबर्टी के पीछे कितनी ‘एंटी-लिबर्टी’ छिपी है, कितना दमन छिपा है, इसे देखना हो तो जरा जॉन परकिंस की किताब इकोनॉमिक हिटमैन देख लें और जान लें कि आजादी के नाम पर अमेरिका ने सीआइए के जरिए किस-किस मुल्क की किन-किन सरकारों को किस-किस तरह से उठाया-गिराया है। आज वही अमेरिका आजादी और मानवाधिकार का सबसे बड़ा हिमायती है! यह भी कैसी विडंबना रही कि जिस फ्रांस की क्रांति (1789) से ‘लिबर्टी’ का मंत्र दुनिया को मिला, उसी फ्रांस ने दुनिया के कई देशों की लिबर्टी को छीना, अपना गुलाम बनाया और जिस ब्रिटेन ने हमें जनतंत्र दिया उसी ने हमें पौने दो सौ साल तक ‘लिबर्टी’ के नाम पर ही गुलाम बनाए रखा।

यह कमबख्त लिबर्टी है ही ऐसी बला कि उसी का नाम जपने वालों ने दुनिया के कमजोर समाजों को बरसों तक अपना गुलाम बनाए रखा।

जो जितना ‘लिबर्टी-लिबर्टी’ करते हैं, उतना ही गुलाम बनाते है, दमन करते हैं। काॅलोनी बनाते हैं, फिर दबे कुचले लोग उनसे लड़ते हैं, उनको उखाड़ फेंकते हैं, अपना राज कायम करते हैं और फिर अपनों को ही गुलाम बनाने की जुगत में लग जाते हैं।

आजादी कभी अकेली नहीं आती। उसके ठीक पीछे छाया की तरह ‘गुलामी’ लगी आती है। हर आजादी की एक हद है और उसके आगे ‘खबरदार’ भी लिखा रहता है। इसको हमें नहीं भूलना चाहिए। आजादी जब भी आती है, अपने साथ कहे-अनकहे बंधन लिए आती है, जिम्मेदारियां लिए आती है। ‘परम स्वतंत्र न सिर पे कोऊ’ वाली स्थिति नहीं होती।

इन दिनों हमारी आजादियों के मालिक अक्सर पूछा करते हैं कि इतनी आजादी है-इतनी लिबर्टी है, और कितनी चाहिए?

अपना संविधान देश के सभी नागरिकों को बिना किसी किस्म के भेदभाव के निजी संपत्ति रखने की आजादी, अभिव्यक्ति की आजादी और संगठन बनाने की आजादी देता है। लेकिन ज्यों ही हमारी आजादी किसी दूसरे की अजादी का हनन करती है, आजादी ‘लिमिटेड’ होने लगती है। परम स्वतंत्रता कुछ नहीं होती।

आप अखबार निकाल सकते हैं, पत्रिकाएं और किताबें छाप सकते हैं, खबर और मनोरंजन चैनल चला सकते हैं। कानून के दायरे में आपको अभिव्यक्ति की पूरी आजादी है, लेकिन एक ‘लेकिन’ के साथ।

आप चाहें तो ‘फेसबुक’ पर सब की ऐसी की तैसी कर सकते हैं, अपने ‘ट्विटर हैंडल’ पर किसी को भी जली-कटी सुना सकते हैं और जो पसंद न हो उसे ‘ट्रोल’ कर सकते हैं, उसे गरिया सकते हैं, चाहें तो अफवाहें उड़ा सकते हैं।

आप को आजादी है कि आप सत्य को असत्य, ट्रुथ को पोस्ट ट्रुथ, न्यूज को फेक न्यूज और आदमी को भी फेक आदमी बना सकते हैं। आप अपनी व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी चलाकर, अपना मित्र समूह बनाकर, अपना संगठन बनाकर, किसी को कुछ भी कह-सुन सकते हैं। आप इस दुनिया को संवारने के साथ इसे नष्ट करने के हजार तरीके भी सुझा सकते हैं।

आज आपकी आजादी आपकी मुट्ठी में है। आपके पास कंप्यूटर है, इंटरनेट है, 3जी और 4जी है, आपके पास गूगल है, यूट्यूब है, मोबाइल है, स्मार्टफोन है, फेसबुक अकाउंट है, ट्विटर हैंडल है, वॉट्‍सऐप ग्रुप हैं, इंस्‍टाग्राम है, और भी बहुत सारे साइबर मंच हैं। आप हर क्षण एक साइबर दुनिया बनाते हैं-बिगाड़ते हैं। आप चाहे जिसे एक सेकंड का देवता बना सकते हैं और उसे अगले ही क्षण दानव बना सकते हैं। आप जिसकी चाहें उसकी ऐसी की तैसी कर सकते हैं और करा सकते हैं। आप अपनी सेल्फी को, अपने हर क्षण के फोटो को, रेखांकनों को, कविता, कहानी और अच्छे-बुरे चुटकुलों को और अपनी ओपिनियनों को अपने आप महान और अद्भुत कहलवा सकते हैं और स्वयं कह सकते हैं। आप जितने चाहें उतने ‘व्यूज’ और ‘लाइक्स’ खरीद सकते हैं।

ये दुनिया आपकी मुट्ठी में है, क्योंकि आप अपने से डिस्कनेक्टेड लेकिन अनजानी दुनिया से सीधे कनेक्टेड हैं। आप हर समय संप्रेषित हैं, आप हर समय संवाद में हैं, आप किसी से और कोई आपसे चैट कर रहा है। आपके हाथ में आपकी दुनिया है, आप भली-बुरी पिक्चर देख रहे हैं, पोर्न देख रहे हैं, क्राइम देख रहे हैं, मारा-मारी वाले पबजी जैसे खेल खेल रहे हैं, आप कोई खतरनाक साइबर खेल खेल कर मर रहे हैं या मार रहे हैं।

एक भरी पूरी संसद है, सरकार है, विपक्ष भी है। आजाद मीडिया है, परम आजाद सोशल मीडिया है, आप विरोध के लिए आजाद हैं, आप शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर सकते हैं, प्रोटेस्ट कर सकते हैं, हड़ताल कर सकते हैं, भूख हड़ताल कर सकते हैं। अदालतें आजाद हैं, कानून आजाद है, वकील आजाद हैं, मुवक्किल आजाद हैं, यानी आजादी ही आजादी है।

आदमी इतना आजाद कब था, औरतें कब इतनी आजाद थीं? दलित इतने आजाद कब थे? एक तकनीक ने, एक मोबाइल ने सबको एक लेवल पर लाकर आजाद कर दिया, बराबर बना दिया। लेकिन लोग कहते हैं कि कुछ नई वर्जनाएं, कुछ नई मनाहियां इन दिनों बिना आवाज किए चुपचाप कानों में फुसफुसाने लगती हैं कि यों आप आलोचना करने के लिए आजाद हैं लेकिन देश की आलोचना मना है, राष्ट्र की आलोचना मना है, फौज पर सवाल उठाना मना है, कश्मीर नीति की आलोचना करना मना है, नेताओं का मजाक उड़ाना मना है, नीतियों का मजाक उड़ाना मना है।

एक ने एक कार्टून बना दिया तो अंदर हो गया, किसी ने किसी बड़े की खिल्ली उड़ा दी तो अंदर हो गया। ऐसा लगता है कि इस जनतंत्र में हर जगह छोटे-बड़े तानाशाह उभर आए हैं। वे खुलेआम नहीं डराते, लेकिन ‘डर’ फील होता है।

यों आप आलोचना के लिए पूरी तरह आजाद हैं, लेकिन कुछ वर्जनाएं भी हैं। देश या राष्ट्र की आलोचना स्वीकार्य नहीं, फौज की आलोचना भी मना है, यों आप खूब आलोचना करें, आपका स्वागत है, लेकिन...

ये ‘लेकिन’ ही आजादी की असली शर्त है। यह कब कहां लग जाए, नहीं मालूम। आप इस ‘लेकिन’ को ‘क्रॉस’ नहीं कर सकते। आप कुछ भी करते रहिए, लेकिन बहुत ‘लेकिन-लेकिन’ न करिए। पुरानी सरकार नरम सरकार थी, विरोध सह लेती थी। अब नई सरकार है। उसे जल्दी-जल्दी ‘राष्ट्र निर्माण’ करना है। इसलिए वह ‘नो नॉन्सेंस’ टाइप है। लोग कहते हैं कि वक्त ही पलटी खा गया है। समय सचमुच पलटी मार गया है। पहले आजादी ज्यादा थी, अब खतरे ज्यादा हैं। कुछ वो भी खतरे हैं, कुछ हम भी खतरे हैं, कुछ वो डरते हैं, कुछ हम डरते हैं।

कुछ संत जन बताते हैं कि डर एक स्थायी भाव है। कुछ का खयाल है कि अगर आज इतनी हाय-हाय कांय-कांय है, शोर है, झगड़ा है, घृणा है तो इसीलिए कि बहुत-बहुत आजादी है। जब कोई चीज ‘बहुत-बहुत’ होती है तो समझिए कि वह नहीं होती। हर आजादी के आगे ‘गुलामी’ लिखी है।

आपको लिखने-बोलने की आजादी है लेकिन सब कुछ बेअसर है। आप एक रेले में हैं। स्वयं भी एक रेला हैं जिसमें आप हम सब बहे जाते हैं और फिर अचानक खुद को अकेला पाकर कहते हैं कि ये मेरे साथ क्या हो रहा है? आप हम सब साइबर आजादी के एक ‘प्रोडक्ट’ हैं, नायक नहीं बल्कि एक प्रक्रिया के उत्पाद हैं।

लेकिन इस एहसास से आप हम सब वाकिफ नहीं कि अब आप उत्पादक नहीं, सिर्फ एक ‘उत्पाद’ हैं। इसीलिए हर तरफ इतनी खिसियाहट है, गुस्सा है और हर आदमी में है। साइबर स्पेस आपको अपने शून्य में बिलोता रहता है। आपको डर है कि एक दिन संसद खत्म कर दी जाएगी। आप सोचते हैं कि एक तानाशाही, कभी न जाने के लिए आ गई है और आपकी आजादियां खतरे में हैं, क्योंकि इन दिनों की सत्ता आपके कहे पर नहीं चलती, न आपकी कुछ सुनती है। उसके लिए आप एकदम बेकार हो गए हैं। कल तक आपकी कीमत थी, अब आपकी कीमत नहीं रही। अचानक व्यर्थ होने का ऐसा एहसास आप जैसे ज्ञानी-गुमानियों को कब रहा?

इसलिए जब-तब आपको आजादी पर खतरा नजर आता रहता है। जिसे आप खतरा कहते हैं आम जनता उसे प्यार करती दिखती है, और आप इस जनता को ही कोसने लगते हैं। आप जिस भाषा में सोचते हैं जनता उससे बेगानी है, आप जनता से बेगााने हैं। आपको फिर से एक मायूसी हासिल होती है, आप फिर रोने लगते हैं क्योंकि यह दुनिया वह नहीं जिसे आप अपनी उधारू अंग्रेजी में अब तक सबके लिए बनाते आ रहे थे। आपकी लक्षित जनता के पास जितनी आजादी है, उसी में मस्त है। उसके पास मोबाइल है, स्मार्ट फोन है, उसे गैस चूल्हा मिल रहा है, बिजली मिल रही है, टॉयलेट मिल रहा है, घर मिल रहा है, तो वह अपनी इस लाभकारी आजादी को आपकी तरह ‘खतरा’ क्यों समझे?

और फिर यह कौन-सा संघर्ष है जो आप जनता के बीच न जाकर और उस भाषा में लड़ते हैं जो उसकी नहीं है? फिर आप भी उसी साइबर स्पेस में मरते हैं और उसी में कंज्यूम होते रहते हैं जो उन्हीं का बनाया संजाल है। कुछ भी सार्थक न कर पाने के एहसास से भरकर आप खिसियाते रहते हैं। वो ‘हेट’ देते हैं तो आप भी ‘हेट’ देने लगते हैं!

‘हेट’ से ‘हेट’ नहीं कटती, ‘हेट’ से आजादी नहीं आती, आजादी प्यार का ही दूसरा नाम है।

(लेखक साहित्यकार, आलोचक और मीडिया विश्लेषक हैं)

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