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अपनी आर्थिक लाचारी का जवाब मांगने का वक्त

दिल्ली की गद्दी को सबसे अधिक समर्थन देने वाली हिंदी पट्टी उन्हीं के जरिए छली गई, जिन पर उसने भरोसा किया, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि ये मुद्दे हिंदी पट्टी के लोगों के चुनावी नतीजे क्यों नहीं प्रभावित करते?
असली मुद्दे कहांः चुनावी रैलियों में गहमागहमी, पर सवाल गायब

यह आज का शायद सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है कि आजादी के बाद से ही दिल्ली की गद्दी की सियासत तय करने वाले हिंदी पट्टी के राज्यों की आर्थिक दशा देश में सबसे कमजोर क्यों है? इनके पिछड़ेपन की वजहें क्या हैं? लेकिन इन वजहों पर गौर करने के पहले आइए जरा हालात के आंकड़ों पर नजर डालें। सरकार ने 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में माना कि वैश्विक रुझान और पड़ोसी चीन के विपरीत भारतीय राज्यों में वृद्धि और प्रति व्यक्ति आय में गिरावट बरकरार थी। यह गिरावट पिछड़े हिंदी प्रदेशों में सबसे तीखी थी। 2016-17 में, बिहार और उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय सबसे कम थी। उत्तराखंड को छोड़कर छह हिंदी भाषी राज्य सबसे कम आय वाले नौ राज्यों में शामिल थे। 2001-02 में, बिहार की आय सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय वाले राज्य पंजाब की एक-चौथाई थी। 2016-17 में भी तस्वीर अलग नहीं थी। बिहार की प्रति व्यक्ति आय इस वर्ष उच्चतम प्रति व्यक्ति आय वाले राज्य हरियाणा की आय के पांचवें हिस्से से कम थी।

प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू आय लोगों की खुशहाली की मोटी तस्वीर दिखाती है। लेकिन यूएनडीपी के मानव विकास सूचकांक (एचडीआइ) और बहु-आयामी गरीबी सूचकांक (एमडीपीआइ) भी कोई अलग तस्वीर पेश नहीं करते। सुधार के बावजूद रैंकिंग में मामूली अंतर के साथ वही नौ राज्य निचले पायदान पर बने हुए हैं।

दिलचस्प है कि विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों के आर्थिक सूचकांक एक अलग कहानी कहते हैं। मसलन, इनमें कई राज्यों में शीर्ष बीस फीसदी वर्ग में ऊंची जातियों के पुरुषों के लिए विकास संकेतक उतने ही अच्छे हैं, जितने समान रूप से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले राज्यों में हैं। मतलब यह कि वहां वृद्धि या विकास ने समाज के सभी वर्गों या तबकों को प्रभावित नहीं किया है। यह केंद्र और राज्य सरकारों, दोनों की विफलता को बतलाता है। यह बतलाता है कि सरकारें सुधारवादी नीति के एजेंडे को पेश करने में नाकाम रही हैं। व्यापक सामाजिक आंदोलनों की गैर-मौजूदगी ने भी विकास की राजनैतिक अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया और यह संतुलन कुछ दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों के पाले में झुक गया।

नौकरियों और आय का नाजुक आधार

रोजगार और आय आधार स्तंभ हैं, जिसके साथ विकास प्रक्रिया आगे बढ़ती है। जो लोग वेतनभोगी हैं, उनके जीवन की गुणवत्ता रोजगार, मजदूरी और कमाई की गुणवत्ता पर निर्भर करेगी। किसानों या छोटे-बड़े गैर-कृषि उद्यमियों की तरह स्वरोजगार करने वालों के लिए यह उनकी उत्पादकता और शुद्ध आय पर निर्भर करेगा। गरीब राज्यों में अच्छी गुणवत्ता वाले रोजगारों की कमी है। इन राज्यों में अधिकांश श्रमिक नियमित/वेतनभोगी की तुलना में स्व-रोजगार या अस्थाई रोजगार में हैं। नियमित/वेतनभोगी नौकरियों को बेहतर गुणवत्ता वाले रोजगार का अनुमानित सूचक माना जाता है। भारत में 2011-12 में सभी श्रमिकों का 19.9 फीसदी नियमित रोजगार में था। इसका महज 5.5 फीसदी बिहार, 9.7 फीसदी छत्तीसगढ़, 10.4 फीसदी मध्य प्रदेश, ओडिशा में 10.6 फीसदी और उत्तर प्रदेश में 10.7 फीसदी था। इसके अलावा, 2011-12 में देश में युवा श्रमिकों का प्रतिशत 20.8 था। लेकिन रोजगार पाने वाले युवाओं के बीच नियमित काम का हिस्सा कई राज्यों की तुलना में कम था, जो रोजगार संरचना में एक अलग तरह की गिरावट को बतलाता है। यह गिरावट हाल के वर्षों में कुछ ज्यादा ही रही है और इसके लिए नीतियां ही जिम्मेदार रही हैं।

प्रवासी मजदूरों की पीड़ा

राज्यों में रोजगार और कमाई के अवसरों के अभाव में श्रमिक खासतौर पर युवा बड़ी संख्या में उन राज्यों में पलायन करते हैं, जहां काम की मांग होती है। इन राज्यों में रोजगार की प्रवृत्ति भी अलग-अलग होती है। कुछ अधिक कुशल युवाओं को बेहतर रोजगार मिलता है, तो ज्यादातर कम योग्य साल भर या कुछ महीनों के लिए प्रवासी के तौर पर काम करते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार से सबसे अधिक स्थायी/अर्ध-स्थायी प्रवासी श्रमिक आते हैं। पलायन ने रोजगार का एक अवसर मुहैया कराया है और कुछ परिवारों की जिंदगी में कुछ सुकून भी आया है।

उच्च वृद्धि के वर्षों 2002-03 और 2011-12 के बीच थोड़ी उम्मीद देखी गई थी। इससे गैर-कृषि नौकरियों मुख्य रूप से निर्माण के साथ-साथ मैन्यूफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र में अपेक्षाकृत उच्च विकास हुआ। खेतिहर मजदूर और श्रमिकों ने कम कुशल लेकिन बेहतर भुगतान वाले तात्कालिक गैर-कृषि क्षेत्र की तरफ रुख कर लिया। इन श्रमिकों की आपूर्ति करने वाले बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में रोजगार का ढांचा विकसित राज्यों की तुलना में काफी विविध है। हालांकि, इनमें से अधिकांश नौकरियां मैनुअल और थकाऊ थीं, लेकिन इसने पलायन करने वाले राज्यों में अत्यधिक गरीबी को कम करने में मदद की। इसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम जैसे कार्यक्रमों से मदद मिली। 2004-05 और 2011-12 के दौरान वास्तविक मजदूरी में काफी तेजी से वृद्धि देखी गई। लेकिन उसके बाद गिरावट शुरू हो गई।

छोटे धंधों और नौकरियों पर सीधा हमला

2012-13 के बाद अर्थव्यवस्था में मंदी के साथ रोजगार सृजन में मंदी की शुरुआत हुई। 2011-12 में रोजगार को लेकर एनएसएसओ के आकलन और 2015-16 के श्रम ब्यूरो के अनुमान की तुलना से पता चलता है कि इस अवधि में कुल मिलाकर रोजगार वृद्धि लगभग शून्य थी। लेकिन पहले की अवधि के विपरीत, जब कृषि रोजगार में नकारात्मक और गैर-कृषि रोजगार में सकारात्मक वृद्धि हुई, तो इस दौरान दोनों क्षेत्रों में स्थिरता देखी गई। खेतिहर मजदूरों का अधिकांश हिस्सा निर्माण क्षेत्र में गया और इस क्षेत्र में भी स्थिरता दिखी। दूसरे शब्दों में, एनडीए सरकार के सत्ता में आने पर अर्थव्यवस्था को फिर से सुचारु करने और नौकरी में वृद्धि लाने की सख्त जरूरत थी। हालांकि, एनडीए सरकार ने शुरुआत में ही मनरेगा से ग्रामीण रोजगार को मिलने वाली सुरक्षा को नामंजूर कर दिया। ऐसा सिर्फ 2015-16 में हुआ कि ग्रामीण रोजगार संकट बढ़ गया और इस कार्यक्रम को पुनर्जीवित करने के लिए विचार किया जाने लगा। हालांकि, तब तक लघु उत्पादक अर्थव्यवस्था में नौकरियों और आय पर चोट करने वाले दूसरे कदम उठाए जा चुके थे।

हिंदी पट्टी पर तीन हालिया मार

इनमें पहली और सबसे जोरदार मार नोटबंदी थी। प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर, 2016 को 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों को रद्द करने की घोषणा की। इसकी सबसे ज्यादा चोट असंगठित क्षेत्र पर पड़ी। अब ऐसा लगता है कि इस फैसले के लिए सरकार में सिर्फ प्रधानमंत्री ही जिम्मेदार थे। शुरू में दलीलें दी गईं कि नोटबंदी से काले धन पर अंकुश लगेगा, नकदी प्रचलन को कम किया जा सकेगा, जाली नोटों को खत्म किया जा सकेगा और लेन-देन में अधिक पारदर्शिता आएगी। जिस दिन नोटबंदी की घोषणा हुई, उसी दिन शाम साढ़े पांच बजे भारतीय रिजर्व बैंक की बैठक हुई और जैसा कि उस बैठक के मिनट से स्पष्ट है कि बैठक में मौजूद बोर्ड के निदेशक नोटबंदी के लिए दिए गए कारणों से सहमत नहीं थे। फिर भी इस फैसले के साथ आगे बढ़ गए। इसके नतीजे जो हुए, उससे पता चला कि आरबीआइ बोर्ड की आशंकाएं सही थीं।

अर्थव्यवस्था के विभिन्न उद्योगों/क्षेत्रों में आय और रोजगार पर असर का बारीक मूल्यांकन बतलाता है कि आय और रोजगार में काफी कमी हुई है। खासतौर पर, श्रम-सघन क्षेत्रों और अर्थव्यवस्था के छोटे/मध्यम/ अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों पर भ्‍ाारी मार पड़ी। इसकी पुष्टि छोटे स्तर के सर्वेक्षणों से भी हुई। उद्योग संघों ने अपने सदस्यों के लाखों मालिकों का सर्वे किया था। कुछ सर्वे के अनुसार, रोजगार में 40 से 50 प्रतिशत तक की गिरावट आई। कुल आर्थिक नुकसान का अनुमान सकल घरेलू उत्पाद के दो प्रतिशत के करीब है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने शुरू में यही अनुमान लगाया था।

अपने गृह राज्यों में नौकरी गंवाने के अलावा सूरत के हीरा या कपड़ा उद्योग, देश भर में निर्माण परियोजनाएं और अन्य उद्योगों में काफी श्रमिकों की छंटनी हुई। इन उद्योगों में काम करने वाले अधिकांश उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान और ओडिशा के थे। ये श्रमिक अपने गृह राज्य लौट गए और महीनों तक बेरोजगार रहे।

दूसरा कदम 2017 में कृषि रोजगार और संबद्ध क्षेत्रों में उठाया गया। 23 मई, 2017 को पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा जारी एक अधिसूचना के जरिए पशु बाजारों में पशु व्यापार पर प्रतिबंध लगाया गया। अधिसूचना में बैल, गाय, भैंस, बछिया और बछड़ों के साथ-साथ ऊंटों के व्यापार को शामिल किया गया। इससे मवेशियों के व्यापार में भारी कमी आई, जिससे खेत की संपत्ति का मूल्य कम हो गया है। खेती करने के साथ मवेशियों और चमड़ा तथा मांस के कारोबार में शामिल लोगों की आय और रोजगार कम हो गए।

किसान पूरे देश में पशुधन बाजारों और मेलों के जरिए 2.5 करोड़ या अधिक मवेशी बेचते रहे हैं। इन बाजारों या मेलों में उनके पास खरीदारों के कई विकल्प होते हैं। पशुधन के परिवहन और बिक्री पर औपचारिक और अनौपचारिक प्रतिबंध से किसान अपनी संपत्ति और आय के मूल्यों में कमी पाते हैं और हताशा में अपने अनुत्पादक जानवरों को ग्रामीण इलाकों में छोड़ देते हैं, जिससे फसलों का नुकसान होता है।

अंत में, एनडीए सरकार ने तीसरा सबसे बड़ा कदम जीएसटी के रूप में उठाया। इसका अनौपचारिक क्षेत्र के उद्यमों और नौकरियों पर भारी नकारात्मक प्रभाव पड़ा। प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने 30 जून 2017 की मध्यरात्रि को 'आधी रात की स्वतंत्रता' की याद दिलाते हुए जीएसटी को बड़े धूमधाम से पेश किया। इसके लागू होने के बाद कर-व्यवस्था में कई सौ बदलाव किए गए हैं। इनमें अधिकांश बदलाव गुजरात चुनावों से ऐन पहले किए गए।

जीएसटी के लिए 'एक देश एक कर' प्रणाली का तर्क दिया गया। इसके अलावा मौजूदा सरकार का उद्देश्य अनौपचारिक क्षेत्र को औपचारिक बनाने के लिए कर-व्यवस्था का उपयोग करना भी है। यह प्रयास अनौपचारिक क्षेत्र की प्रकृति की एक बुनियादी गलतफहमी पर आधारित है, जो कर चोरी करने वाली संस्थाओं और वास्तविक अनौपचारिक क्षेत्र के बीच भ्रम पैदा करता है। इससे इस क्षेत्र की आय और रोजगार में एक संकुचन की स्थिति पैदा होती है, जो देश के रोजगार का लगभग 40 फीसदी है।

जीएसटी कर के दायरे को बड़ी संख्या में उद्योगों के साथ बढ़ाया गया। इनमें बड़ी संख्या में अनौपचारिक क्षेत्र के उद्यमी भी शामिल थे। इनमें कपड़ा (खादी भी शामिल) और परिधान, हस्तकला, फर्नीचर और लकड़ी का काम, विभिन्न प्रकार के जॉबवर्क और रीसाइक्लिंग उद्योग शामिल हैं। शुरुआती रिपोर्टों से पता चलता है कि कई क्षेत्रों और उद्योगों को जीएसटी के मापदंडों का पालन करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जिससे आर्थिक गतिविधि कम हो गई और रोजगार में नुकसान हुआ। निर्यात क्षेत्र में रिफंड में देरी से पूंजी की भारी कमी हो गई और इसलिए फिर से आर्थिक गतिविधियां शिथिल हो गईं, जिससे रोजगार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। यह याद रखना चाहिए कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान वगैरह में औद्योगिक संरचना ऐसी है कि इसका आधार अनौपचारिक क्षेत्र में है और वहां लंबी आपूर्ति शृंखलाएं हैं, जो इसके पालन को कठिन और जटिल बनाती हैं। पिछले 20 महीनों में नौकरियों और अर्थव्यवस्था पर जीएसटी का प्रभाव महत्वपूर्ण और नकारात्मक रहा है।

उपेक्षा की शिकार हिंदी पट्टी

यह स्पष्ट है कि भारत में गरीब राज्य -ज्यादातर हिंदी पट्टी में- एक प्रकार की उपेक्षा और सुधारवादी नीति दृष्टि की कमी के शिकार रहे हैं। शासकों को इसके लिए जवाबदेह न ठहराने में एक मिलीभगत भी दिखती है। हालांकि, एनडीए सरकार के कार्यकाल में नीति कम अनुकूल रही है। इसके तीन प्रमुख निर्णयों ने नौकरियों और आय को नष्ट कर दिया है। राज्यों में श्रमिकों की संख्या बढ़ी है, जो पहले से ही असुरक्षित रहे हैं। इन सभी नीतियों से बचा जा सकता था या उनका बेहतर विकल्प तलाशा जा सकता था और वैकल्पिक नीतियों के जरिए लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता था।

यह और भी बुरा है कि नीति-निर्माताओं का रवैया शुतुरमुर्ग की तरह रहा है। वे श्रम ब्यूरो और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के रोजगार पर सर्वे रिपोर्टों को जारी करने में यह कहकर बाधा पहुंचा रहे हैं कि ये विश्वसनीय नहीं हैं। वह सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ द इंडियन इकोनॉमी जैसी विश्वसनीय रिपोर्ट को भी मानने से इनकार कर चुके हैं और पिछले चार साल में रोजगार के खत्म होने के कई प्रमाणों को काटने के लिए बेकार के साक्ष्य पेश कर रहे हैं। चुनावों के दौरान यह जरूरी है कि नौकरियों और आय पर ध्यान केंद्रित रखा जाए। लेकिन यह देखा जाना बाकी है कि क्या लोगों को फिर भावनाओं और बयानबाजी से बहकाया जाएगा या लोग नीति-निर्माताओं को उन भारी गलतियों के लिए जवाबदेह ठहराएंगे।

इन आंकड़ों से ही पता चलता है कि कैसे दिल्ली की गद्दी को सबसे अधिक समर्थन देने वाली हिंदी पट्टी उन्हीं के जरिए छली गई, जिन पर उसने भरोसा किया। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि ये मुद्दे हिंदी पट्टी के लोगों के चुनावी नतीजे क्यों नहीं प्रभावित करते? उम्मीद है, इस बार जनादेश में ये मुद्दे प्रभावी बनेंगे, और हिंदी प्रदेशों की तस्वीर बदलेगी।

(लेखक जेएनयू में प्रोफेसर रह चुके हैं और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ रिजनल डेवलपमेंट के चेयरपर्सन रहे हैं)

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