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अपनी-अपनी पवित्र भूमि की महायात्रा

कोरोना और लॉकडाउन से गरीब-मजदूरों का अपने गांव का सफर दुनिया की पवित्र-त्रासद यात्राओं के समान
अपने दुख में अकेलेः गांव-घर की यात्रा में सड़क पर एक पड़ाव

 

येरुशलम यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म तीनों की प्राचीन पवित्र नगरी रहा है। यह प्राचीन यहूदी राज्य का केंद्र और राजधानी था। येरुशलम ईसा मसीह की कर्मभूमि है। यहीं ईसा मसीह की समाधि का पवित्र स्थान है। येरुशलम में अल-अक्सा मस्जिद भी है जो मुसलमानों के लिए मदीना और काबा के बाद तीसरा सबसे पवित्र स्थान है क्योंकि इसी स्थान से हजरत मोहम्मद स्वर्ग गए थे।

आठवीं शताब्दी तक इस्लाम धर्म बहुत शक्तिशाली हो गया था। इसके मुसलमान अनुयायियों ने ईसाइयों के धार्मिक पवित्र स्थानों पर भी अपना आधिपत्य जमा लिया था। इसकी प्रतिक्रिया में रोमन कैथोलिक चर्च और यूरोप के ईसाई राजाओं ने इस पवित्र भूमि को वापस पाने के लिए क्रूसेड का आदेश दिया। ईसा की समाधि पर अधिकार करने के लिए लाखों लोग परिवार सहित पैदल ही अपनी पवित्र-भूमि की ओर चल पड़े थे। ये लोग अपार कष्टों और दुखों को झेलते हुए अपनी पवित्र-भूमि का स्पर्श कर लेना चाहते थे। ईसाइयों ने येरुशलम में ईसा की पवित्र समाधि पर अधिकार करने के लिए सन 1095 से सन 1291 के बीच सात बार पवित्र-युद्ध किए थे।

वर्तमान में हमारे देश का परिदृश्य भी कुछ उस महायात्रा जैसा बन गया है। हमारे देश के करोड़ों लोग कोरोना-रोग के भय और रोजगार खत्म होने से अपने-अपने गांव की यात्रा पर चल दिए हैं, मानो डरा-सहमा कोई अपनी मां की पवित्र गोद में छिप जाना चाहता हो।

इस विश्वव्यापी क्रूसेड की अनुभूति स्वीडन के साहित्यकार पेर लागरक्विस्त (1891-1974) को गहराई से हुई। उन्होंने तीन लघु उपन्यासों में मानव नियति के प्रश्नों को बड़ी मर्मस्पर्शी भाषा में विवेचित किया है।

हिंदी के महान साहित्यकार सच्चिदानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने नोबेल पुरस्कार विजेता उपन्यासकार पेर लागरक्विस्त के इन तीनों लघु उपन्यासों को हिंदी में महायात्रा नाम से प्रस्तुत किया है। प्रभात प्रकाशन से 1988 में प्रकाशित पुस्तक की ‘भूमिका’ में ‘अज्ञेय’ कहते हैं कि इन तीनों उपन्यासों में एक कथा-क्रम है, इसीलिए इसे ‘त्रयी’ कहा गया है।

पेर लागरक्विस्त को उनके उपन्यास बारब्बास के लिए 1951 का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। इसे सम्मिलित करते हुए इन चारों को ‘चतुष्टयी’ कहा गया है। अज्ञेय अपनी ‘भूमिका’ में कहते हैं, “उपन्यासों की वस्तु मानवीय नियति है, मानव का आस्तित्विक संकट आस्था का टूटना, श्रद्धा का टूटना, धर्म और ईश्वर का छिन जाना- क्या ये एक मृत्यु नहीं है... लागरक्विस्त के चरितनायक जीवनरूपी विस्मय के समक्ष हार मान लेते हैं, उसे समझ न पाते हुए उसके आगे घुटने टेक देते हैं। क्या बुद्धि की पकड़ का यह उत्सर्ग भी एक मृत्यु है?” भारत के इस महा-पलायन के समय महायात्रा के धार्मिक-तत्वचिंतन की नहीं, यात्रा के दुखों और कष्टों को समझने की जरूरत है।

पेर लागरक्विस्त विस्त के उपन्यास महायात्रा में तीर्थयात्रियों के लिए बनी धर्मशाला में रात के समय एक ओर प्रार्थना में जुटे हुए लोगों का मर्मर स्वर उठ रहा था। वहीं, दूसरी तरफ जुआरियों की आवाजों और हंसियों से वह स्थान गूंज रहा था। सभी येरुशलम जा रहे थे। इन तीर्थयात्रियों में लुच्चे-लफंगे, साधु-संत और बदमाश सब एक साथ। यहां हर किसी को जीना है। हालांकि जीना क्यों जरूरी है, यह कौन जानता है? यहां इन यात्रियों के सहारे जीने वाले लोग भी साथ-साथ चल रहे हैं। सब अपना सामान लिए चलते हैं- छल्ले और अंगूठियां, कड़े और बाजूबंद और चांदी के चम्मच और प्याले।

इस यात्रा में एक अकेली सुंदर लड़की भी चल रही है। वह सहयात्रियों के साथ सो भी जाती है। उस लड़की का मानना है कि उसके पास यही एक रास्ता है मसीहा की समाधि तक पहुंचने का। वह कहती है कि उसे चाहे जो कुछ भुगतना पड़े, उसका कोई असर उस पर नहीं पड़ता क्योंकि उसके लिए शरीर का कोई महत्व नहीं है, वह खुशी से उसका बलिदान कर रही है ताकि यात्रा के अंत में उसकी आत्मा को शांति मिले। उस पवित्र भूमि तक तो जहाज से भी जाना होगा और उसका खर्चा बहुत पड़ता है। वह पैसा कहीं न कहीं से तो आना ही होगा। वह कहती है कि उसे कोई परवाह नहीं है, कहती है कि इस देह का, इस निस्‍सार देह का क्या होता है उसकी उसे जरा भी परवाह नहीं।

इस महायात्रा में सेना के जत्थे तोड़ दिए गए और सैनिकों को छुट्टी दे दी गई जैसा मुहावरा है, “घर भेज दिया गया” (ऐसा ही तो पलायन करने वाले मजदूरों के साथ किया गया है और किया जा रहा है)।

लेखक महायात्रा में आगे कहता है, “लेकिन घर हमारे थे कहां! हम सब लुटेरे बन गए या हममें से अधिकतर तो बन ही गए। हम लोगों ने अपनी टोलियां बनाईं और लूटपाट करते घूमने लगे– उजड़े, निचुडे़ वीरान देश में जहां जो कुछ बचा था उस पर झपटते हुए।” एक पात्र पूछता है, “लोग एक तरफ इतना दिमाग खर्च करते हैं कि कैसे जिएं- बराबर इसकी बात करते हैं। लेकिन कोई किसलिए जिए- क्या इसका कोई जवाब तुम्हारे पास है?”

इस महायात्रा में वह भटकता हुआ ग्रामीण क्षेत्र में चला गया। यह नहीं कि वह कोई वीरान और मरुस्थलीय जगह थी, सब जुती हुई जमीन थी, लेकिन खेत उपेक्षित पड़े थे, न जाने कब से निराई नहीं हुई थी क्योंकि उनमें जहां-तहां नए पौधे और झाड़ उग रहे थे।

पेर लागरक्विस्त आगे लिखते हैं, “चारों ओर इतना सन्नाटा था मानो सारी दुनिया मर चुकी है। कोई स्वर निकलता भी कहां था? उस उजड़ी, सूनी दुनिया का सन्नाटा तोड़ने वाली कोई चीज कहीं नहीं थी।” ‘महायात्रा’ में चल रही स्‍त्री अपने शुभचिंतक और लालची साथी से कहती है कि, “तुमसे तो वह हियूबर्ट अच्छा है। अगर ठग है तो साफ-सुथरा, ईमानदार ठग है, निरा ठग। तुम्हारी तरह ठग और अध-सुधरे पाखंडी की खिचड़ी तो नहीं।”

कोई-कोई व्यक्ति लंबी पैदल यात्रा आरंभ करने से पहले पैरों के छाले सहला रहा था, या उन पर फेरीवालों से खरीदे हुए मरहम लगा रहा था, कुछ फेरीवाले भी और माल बेचने के लिए फुर्ती से यात्रियों के बीच चक्कर काट रहे थे। पवित्र और कष्टों की यात्रा में भी लोग अपना लाभ देखते हैं। एक बुढ़िया चिल्ला रही थी कि रात में किसी ने उसे लूट लिया। उसे पता तब लगा जब उसने कुछ खरीद कर दाम चुकाने के लिए जेब में हाथ डाला। लेकिन किसी को उसकी परवाह नहीं थी। किसी को दूसरे के लिए फुरसत ही नहीं थी।

यात्रा के एक पड़ाव पर “मेजों पर बैठने की जगह नहीं थी और इसीलिए नाश्ता बारी-बारी से दिया जा रहा था। फिर भी सब तीर्थयात्रियों के लिए खाने की व्यवस्था वहां नहीं थी। केवल निर्धन और बेचारे लोगों के लिए यहां प्रबंध किया जा रहा था। जो संपन्न थे वे इसी भवन में किसी दूसरी जगह पर खा रहे थे। उनके पास अपने घोड़े और अपनी गाड़ियां थीं।”

अंत में, पेर लागरक्विस्त कहते हैं, “तुम सोचते हो कि तुम्हारा भाग्य, तुम्हारा दुख, सलीब पर तुम्हारी यात्रा तुम अकेले ही सहते हो, लेकिन तुम अच्छी तरह जानते हो कि ऐसा नहीं है। तुम केवल अनगिनत लोगों के अंतहीन जुलूस में से एक हो। सारी मानव जाति को सलीब पर चढ़ा दिया गया है, मनुष्य मात्र सलीब पर टंगा है।” यही नजारा इस कोरोनाकाल में हमारे देश में गरीब मजदूरों-कामगारों के साथ दिखा।

(लेखक शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं)

 

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लॉकडाउन में लोगों का लंबे सफर पर निकल पड़ना, आठवीं सदी में ईसा की समाधि पर अधिकार के लिए क्रूसेड में लाखों लोगों के पैदल निकल पड़ने जैसा ही

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क्रूसेड की अनुभूति को शब्द देने के लिए स्वीडन के महान लेखक पेर लागरक्विस्त को उनके उपन्यास बारब्बास के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था

 

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