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पुरुषों के किले पर धावा

हर विधा में, हर विषय पर लिख रही हैं ‌स्त्रियां, राजनैतिक घटनाक्रमों, जीवनी, आलोचना, यात्रा संस्मरण जैसे विषयों में नई लेखिकाएं कर रहीं सार्थक हस्तक्षेप
स्‍त्री-लेखन

नई आर्थिक नीति और भूमंडलीकरण के बाद भारतीय समाज का चेहरा ही नहीं, हिंदी साहित्य का भी परिदृश्य काफी बदल गया है। आठवें और नौवें दशक के बाद साहित्य की दो और पीढ़ियां आ गई हैं। खास बात यह है कि ‌स्त्रियां बहुत बड़ी तादाद में आईं हैं और वे लगातार लिख रही हैं। फेसबुक और ब्लॉग ने उन्हें बड़ा अवसर और मंच प्रदान किया है। मनीषा कुलश्रेष्ठ जैसी रचनाकार, जो हिंदी का पहला ब्लॉग चलाती थीं, आज स्थापित लेखिका हो गई हैं। अब ‌स्त्रियां हर विधा और हर विषय में लिख रही हैं।

नए साल के आरंभ में ही कई लेखिकाओं की विभिन्न विधाओं में किताबें आई हैं चाहे उपन्यास हो या कहानी संग्रह, कविता या जीवनी, यात्रा संस्मरण या अनुवाद, संपादित पुस्तकें या वैचारिक विमर्शकारी पुस्तकें। ये इस बात का सबूत हैं कि ‌स्त्रियां समाज में रचनात्मक हस्तक्षेप कर रही हैं। हिंदी की सुपरिचित क‌वयित्री अनामिका ने अमीर खुसरो के जीवन पर आधारित उपन्यास आईनासाज लिखा है, तो युवतर लेखिका अणुशक्ति सिंह ने पौराणिक पात्र शर्मिष्ठा पर अपना पहला उपन्यास लिखा है। युवा कहानीकार सोनाली मिश्र ने शिवाजी पर ऐतिहासिक उपन्यास लिखने का प्रयास किया है, तो शरद सिंह ने शिखंडी जैसे थर्ड जेंडर पात्र पर उपन्यास लिखा है। वंदना राग का भारत और चीन के परिवारों को लेकर 1857 के बाद के समय का एक उपन्यास बिसात पर जुगनू भी  शीघ्र  प्रकाश्य है। इसमें अस्मिता के प्रश्नों को उठाया गया है।

इस तरह इन लेखिकाओं को ऐतिहासिक और मिथकीय चरित्रों को पात्रों में गढ़ने की जरूरत महसूस हुई है। फिर, ये लेखिकाएं पात्रों की पुनर्रचना कर रही हैं और उसे समकालीन संदर्भों से जोड़ रही हैं। अनामिका अमीर खुसरो को साझी संस्कृति और धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा प्रतीक बताती हैं और कहती हैं, “पिछले कुछ दशकों में हर मुसलमान को जिस तरह आतंकवाद से एकाकार करके देखने का चलन प्रचारित हुआ, उसका सबसे भास्वर प्रत्युत्तर तो खुसरो हैं जिनका साहित्य संगीत और सूफी आंदोलन में महत्वपूर्ण  योगदान है।” खुसरो को खड़ी बोली का पहला कवि भी माना जाता है। ब्रजभाषा से लेकर फारसी में भी उनकी  रचनाएं हैं। जाहिर है, अनामिका आज के माहौल में  इस उपन्यास से समाज को संदेश देना चाहती हैं।

इस साल विश्व पुस्तक मेले में अणुश‌क्ति की शर्मिष्ठा भी चर्चा और आकर्षण का केंद्र रही। दरअसल, यह कुरु वंश की आदि विद्रोहिणी है। लेखिका के मन में यह कहानी युवा काल से ही पकती रही है। यह स्‍त्री-विमर्श को भारतीय परंपरा में दिखाने का प्रयास है। यह पौराणिक पात्र भले हो पर सिंगल मदर की भी कहानी है। राष्ट्रवाद के दौर में सोनाली ने शिवाजी को अपना प्रतीक बनाया है। उनका कहना है कि उन्होंने काफी शोध करके समग्र राष्ट्रवाद को पेश करने के लिए इसे लिखा है। लेकिन क्या उन्होंने इसे छद्म राष्ट्रवाद को उजागर करने के लिए लिखा है या हिंदू साम्राज्य की स्थापना करने वाले नायक को स्थापित करने के लिए लिखा है?

नई कहानीकार अंजू शर्मा का शांतिपुरा उपन्यास दिल्ली के निम्न मध्यवर्गीय लोगों के मोहल्ले की कहानी है, जिसमें उनकी रोजमर्रा की जिंदगी की परेशानियों के बीच जगह बनाते उनके छोटे-छोटे सुख और बड़ी-बड़ी उम्मीदें हैं। यह उपन्यास अदम्य जिजीविषा और संघर्षमय जीवन के बीच एक परिवार की खूबसूरत कहानी है, जहां प्रेम, विश्वास, ख्वाहिशों के अलावा दुःस्वप्नों से भरी कुछ रातें हैं, जिनके बाद आशाओं का सूरज उगता है। नई लेखिका, पेशे से वकील पल्लवी प्रसाद ने साल के शुरू में लाल नामक उपन्यास से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उनका एक उपन्यास काठ का उल्लू पहले ही दोआबा पत्रिका में आ चुका है।

युवा पत्रकार आरिफा एविस ने अपना पहला उपन्यास कश्मीर के हालात पर नाकाबंदी लिखा है। आरिफा का कहना है, “पिछले दिनों कश्मीर में जो हुआ, उसे लेकर भारतीय मीडिया में अलग-अलग राय है, इसलिए मैं कश्मीर में ग्राउंड रिपोर्टिंग के लिए कई चरणों में गई और लोगों से मिलकर उनके दुख-तकलीफों को सुनकर यह उपन्यास लिखा। जब आपको अपने ही घर में कैद कर दिया जाए तो कैसा महसूस होगा। यही नाकाबंदी है।” थर्ड जेंडर पर रेणु बहल का उपन्यास मेरे होने में क्या बुराई है इस बात का प्रमाण है कि ‌स्त्रियां अब अपनी अस्मिता की ही नहीं, बल्कि हाशिए पर पड़ी अन्य अस्मिताओं की भी चिंता करने लगी हैं।

उपन्यास के अलावा ये लेखिकाएं कहानी में बहुत सक्रिय हैं। साल के आरंभ में ही आठ नए कहानी संग्रह आ गए। नीला प्रसाद  (मात और मात) कविता (क से कहानी, घ से घर), आकांक्षा पारे (पिघली हुई लड़की), अंजू शर्मा (सुबह ऐसे आती है), दिव्या विजय (सगबग मन), योगिता यादव (गलत पते की चिट्ठियां) और अंकिता जैन (बहेलिए), सुलोचना वर्मा (अंधेरे में जगमग) ने इन कहानियों में समाज और स्‍त्री जीवन के दुख-दर्द को पिरोने का प्रयास किया है। इनमें से कुछ लेखिकाएं वर्षों से लिख रही हैं, तो कुछ बिलकुल नई हैं लेकिन इनके भी कम से कम दो संग्रह हो गए हैं। इन सबमें वरिष्ठ नीला प्रसाद नारीवाद का झंडा उठाए बगैर स्‍त्री जगत के तीखे अनुभवों को प्रस्तुत करती हैं। नीलिमा शर्मा ने पिछले साल लेखिकाओं की प्रेम कहानियों का संकलन निकाला था। इस साल उन्होंने रिश्तों के तिलिस्म की बीस कहानियों का संकलन मृगतृष्णा निकाला है, जिसे इधर की लेखिकाओं ने लिखा है।

गीताश्री के संपादन में 18 लेखिकाओं के रेखाचित्रों की भी एक किताब आई है। प्रज्ञा पाठक ने उमा नेहरू और ‌स्त्रियों के अधिकार पर स्‍त्री-विमर्श की किताब संपादित की है। नेहरू परिवार से जुड़ीं उमा जी ने द्विवेदी युग में महत्वपूर्ण लेखन किया, जिसकी तरफ हिंदी समाज का ध्यान गया ही नहीं। कहानियों के संपादन में कथाकार सपना सिंह ने देह धरे को दंड नामक एक संकलन निकाला है जिसमें वर्जित संबंधों पर तेरह महिलाओं के साथ कुछ पुरुष लेखकों की भी कहानियां हैं। इससे पता चलता है कि लेखिकाओं की निगाह बहुत दूर तक जा रही है और जिन विषयों पर पुरुष लिखने में हिचकिचा रहे उस पर ये साहस के साथ खुलकर लिख रही हैं। उनमें एक नया आत्मविश्वास आया है।

कविता में भी वे पीछे नहीं हैं। अब तक हिंदी कविता में पुरुषों का बोलबाला रहा, क्योंकि महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी कवयित्रियों को ही आलोचकों ने मान्यता दी, लेकिन आठवें दशक के बाद स्थिति बदली और कवयित्रियों ने स्थान सुरक्षित कर लिया है। दो दशकों में बीस से अधिक कवयित्रियों ने ध्यान खींचा है। रश्मि भारद्वाज (मैने अपनी मां को जन्म दिया है), लवली गोस्वामी (उदासी मेरी मातृभाषा है), पूनम अरोड़ा (कामनाहीन पत्ता) के नए संग्रहों ने कविता के पाठकों को विस्मित किया है। सुपरिचित कथाकार मनीषा ने प्रेम कविताओं का संग्रह निकाला है। हिंदी में किसी कवयित्री का यह पहला प्रेम कविता संग्रह है। मनीषा स्‍त्री और पुरुष के प्रेम को लेकर नजरिए में भी फर्क देखती हैं। दो और नई कवयित्रियों संध्या कुलकर्णी और प्रतिभा गोटिवले के पहले संग्रह साल के शुरू में ही आए हैं। कविता, कहानी, उपन्यास के अलावा यात्रा संस्मरण लेखिकाएं नए रंग पेश कर रही हैं। गत वर्ष प्रत्यक्षा और यशस्विनी पांडेय के यात्रा संस्मरणों ने ध्यान खींचा था। इस बार मनीषा कुलश्रेष्ठ ने होना अतिथि कैलास का यात्रा संस्मरण लिखा है। जीवनी लेखन में भी लेखिकाओं ने कदम रखा है। अब तक पुरुष लेखकों ने ही इस विधा में अपना स्थान बनाया था। प्रतिभा कटियार का रूस की मशहूर कवयित्री मारीना तस्वेतायेवा की जीवनी लिखना महत्वपूर्ण है, क्योंकि आम तौर पर हिंदी में पुरुषों ने ही जीवनी लिखी है, और महादेवी वर्मा तक की जीवनी नहीं है। रज़ा फाउंडेशन ने एक भी लेखिका को जीवनी  लिखने का काम नही सौंपा है। प्रतिभा ने मारीना के सौंदर्य, प्रेम, दुख और त्रासदी को उकेरा है।

हिंदी में वैसे भी आलोचना विधा उतनी समृद्ध नहीं हो पाई। इसमें ‌स्त्रियां कम ही आती हैं। हाल के वर्षों में रोहिणी अग्रवाल ने कहानी, सुधा सिंह ने महादेवी, गरिमा श्रीवास्तव ने नवजागरण और स्‍त्री प्रश्न पर किताबें लिखीं। पिछले साल सुजाता ने स्‍त्री निर्मिति लिखी, तो रेखा सेठी ने स्‍त्री कविता का पक्ष और परिप्रेक्ष्य नामक दो खंडों में किताब लिखी थी। इस साल किंगस्टन पटेल की भी स्‍त्री-विमर्श पर किताब आई। उनकी एक पुस्तिका संवेद शृंखला के तहत आई थी, जिससे आलोचना में एक नई उम्मीद जगी थी। प्रत्यक्षा ने तो सभी विधाओं का भेद मिटाकर ग्लोब के बाहर लड़की किताब लिखी है।

भावना मिश्र ने विश्व प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका ग्लोरिया स्टायनेम की पुस्तक का अनुवाद वजूद औरत का किया है। इस किताब में पुरुष और स्‍त्री के भेद को मिटाकर गांधीवादी तरीके से स्‍त्री-विमर्श को देखा गया है।

इस तरह हिंदी की दुनिया को ‌स्त्रियों ने काफी समृद्ध किया है, पर उनके लेखन पर पुरुष यह आरोप लगाते रहे हैं कि अभी उनमें जनता के मूल सवालों को उठाने की चिंता कम है, अपनी अस्मिता का संघर्ष ही उनकी रचना के केंद्र में है। उनके लिखने की गति भी तेज है और दो-तीन साल के भीतर उनकी किताबें आ जा रही हैं। प्रकाशक अब युवा लेखिकाओं को छापने में संकोच नहीं कर रहे हैं। उन्हें शायद लगने लगा है कि भविष्य अब इन्हीं लेखिकाओं का है। कुछ प्रकाशकों की पहचान स्‍त्री लेखन को छापने से ही बनी है। अब देखना है, हिंदी साहित्य में शाहीन बाग की औरतें कब आएंगी? या उनके साहित्य का मूल्यांकन करने के लिए कोई पुरुष आलोचक सामने आएगा, क्योंकि अब तक हिंदी आलोचना में पुरुषों का ही कब्जा रहा है।

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हाल के दौर में हिंदी की दुनिया को स्त्रियों ने काफी समृद्ध किया है। अब देखना है, हिंदी साहित्य में शाहीन बाग की औरतें कब आएंगी?

 

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