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सत्ताओं की अपनी लिबर्टी

आज देश की केंद्रीय सत्ता को ही सबसे अधिक अधिकारों की जरूरत लगती है
देश के पहले प्रधानमंत्री ध्वजारोहन करते

फादर कामिल बुल्के का अंग्रेजी-हिंदी कोष बताता है कि लिबर्टी हिंदी में स्वतंत्रता, आजादी,  स्वातंत्र्य,  स्वाधीनता,  स्वेच्छाचार,  स्वच्छंदता, मुक्ति, छुटकारा और अधिकार के संदर्भ में प्रयुक्त होने वाला शब्द है। लिबर्टी के ये तमाम अर्थ हमारे देश की परंपरा और संस्कृति से ही उपजे हैं। काल और परिस्थिति के अनुसार इनमें नए-नए संदर्भ जुड़ते रहते हैं। मुख्य रूप से केंद्रीय शासन-व्यवस्था के नेतृत्व की नीतियों और दर्शन की इसमें बड़ी भूमिका रहती है।

15 अगस्त 1947 को हमारी स्वतंत्रता के साथ ही परीक्षा की घड़ी भी आई थी। भारत विभाजन के फलस्वरूप दुनिया के इतिहास में सबसे बड़े मानवीय पलायन के बाद शरणार्थी शिविरों की व्यवस्था हमें संभालनी थी।  साथ ही अपने नागरिकों को आवास, जमीन और आजीविका के संसाधन भी उपलब्ध कराने थे। यही स्वतंत्रता के बाद देश की सबसे बड़ी चुनौती थी।

हमें भारत विभाजन के उस दौर को भी याद रखना चाहिए, जब लिबर्टी अपनी स्वच्छंदता के रूप में व्यक्ति की वेशभूषा, धर्म और मंटो के शब्दों में आदमी के पायजामे में छिपे शरीर के अंग तक सीमित होकर रह गई थी। एक बार लिबर्टी सीमित होना शुरू होती है, तो वह देश के आम लोगों के लिए एक खतरनाक नजीर बनती जाती है।

आज ‘लिबर्टी’ को अधिकार के संदर्भ में देखें, तो लगता है कि देश की केंद्रीय सत्ता को ही सबसे अधिक अपने अधिकारों की जरूरत है। राज्यों को प्राप्त अधिकार भी केंद्रीय सत्ता में समाहित होते चले जा रहे हैं। तो, क्या भारत के संविधान निर्माताओं की दृष्टि इन सात दशकों के बाद के भारत को देखने से चूक गई थी? क्या विश्व के सबसे ताकतवर देशों के कानूनों को अपनाकर हम खुद अपने देश का सामान्यीकरण नहीं कर रहे हैं? दुनिया के पास जो दृष्टि नहीं थी, वह हमारे संविधान निर्माताओं के पास थी। फिर संविधान के प्रति हमारा पहाड़ जैसा विश्वास किसी बर्फ के पहाड़-सा पिघल रहा है।

‘लिबर्टी’ के प्रकाश को समझने के लिए उसके विपरीत भाग के अंधेरे को देखना जरूरी हो गया है। हमारे सामने हवा और पानी की तरह लिबर्टी को भी प्रकृति प्रदत्त मुक्त देन समझ लेना कई तरह के संकट खड़े कर देने वाला है। कहते हैं, पशु और मनुष्य में एक अंतर यह भी है कि पशु संकट आने पर जूझता है जबकि मनुष्य उसका आभास होते ही उसे टाल देने के प्रयासों में जुट जाता है। आज स्वतंत्रता के साथ जुड़े कर्तव्य कहीं लोप होते जा रहे हैं। हम कह सकते हैं कि यह कर्तव्यहीन स्वतंत्रता का समय है।

रजनी पॉम दत्त ने कार्ल मार्क्स के भारत संबंधी लेखों की पुस्तक भारत संबंधी लेख की भूमिका में लिखा है, “सच तो यह है कि भारत पर मार्क्स के प्रसिद्ध लेख, जो उन्होंने 1853 में लिखे थे, बहुत ही विचारपूर्ण और सुझावों से भरे हुए हैं।” हमें आज इन प्रश्नों पर अनुसंधान करने के लिए भी मार्क्स के इन लेखों को फिर समझना होगा।

मार्क्स लंदन से 1853 में प्रकाशित अखबारों में अपने लेखों की शृंखला में भारत की प्राचीन ग्रामीण और आत्मनिर्भर संस्कृति की विस्तारपूर्वक व्याख्या करते हैं। वे बताते हैं कि अंग्रेजों के भारत आने के पहले हम क्या थे और अब क्या हो गए हैं। उनके अनुसार, भारत की राज्य व्यवस्था या बादशाहत चाहे छिन्न-भिन्न हो जाए, देश की बागडोर चाहे जिसके हाथ में रहे या चाहे जो राजा गद्दी पर बैठे, गांव की अंदरूनी व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रहती है। गांव में रहने वाले परिवारों के समूह खेती और घरेलू उद्योगों पर आधारित थे। कई आक्रमणकारी आते-जाते रहे पर ग्रामीण जीवन की परंपरा सदा जीवित बनी रही। अंग्रेजों के हस्तक्षेप ने उन सभ्य बस्तियों को नष्ट करके जीविका कमाने के पुश्तैनी साधनों को उजाड़ दिया था। करघा और चरखा समाज की धुरी का काम करते थे। यूरोप हिंदुस्तानी कपड़ा उपयोग कर रहा था और उसका सोना-चांदी भारत को भेज रहा था, जो सुनार का कच्चा माल होता था।

1757 में प्लासी की लड़ाई के बाद भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के पैर जमे थे। उसके 100 वर्षों के अंदर ही 1857 की क्रांति के बाद 1858 में भारत सीधे ब्रिटिश राज्य के अधीन आ गया। इस शासन का मार्क्स के शब्दों में एक ही चरम उद्देश्य था, “सामाजिक उत्पादन और श्रम का मालिक बनना और सदा बने रहने का प्रयत्न करते रहना।”

भारत में अंग्रेजों के आने के पूर्व के शासनों में एक शताब्दी में औसतन तीन अकाल पड़ते थे। यानी 35 वर्ष में एक अकाल। लेकिन, अंग्रेज इतिहासकार विलियम डिग्बी के अनुसार, “मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमने जो कुछ किया या नहीं किया, एक शताब्दी में 22 अकाल हमारे शासन में पड़े हैं।”

अंग्रेजों ने इंग्लैंड के बने कपड़ों से भारतीय बाजारों को पाट दिया था। उधर, विलियम तृतीय के शासनकाल में ही ऐसे कई कानूनों को पास किया गया, जिसके अंतर्गत भारत में बना सामान इंग्लैंड में प्रतिबंधित कर दिया गया। भारत से इंग्लैंड में आने वाले रेशमी, छपे हुए या रंगे हुए सूती कपड़े बेचने और पहनने पर रोक लगा दी गई। ऐसा कपड़ा रखने तक पर 200 पाउंड का जुर्माना लगाया गया था। यह राशि उस समय के हिसाब से बहुत अधिक थी। अठारहवीं शताब्दी में हिंदुस्तान का बना हुआ जो माल इंग्लैंड लाया जाता था, उसे इंग्लैंड के बाजारों से दूर रखा जाता था। उस समय यूरोप के अन्य देशों को भारत का माल इंग्लैंड होकर भेजा जाता था।

अंग्रेजी शासनकाल में व्यापार ही नहीं, भारत की शासन-व्यवस्था भी हास्यास्पद थी। ब्रिटेन की तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों पर टिप्पणी करते हुए मार्क्स कहते हैं, “ब्रिटेन में जब किसी पार्टी के हाथ में शासन आता है और उसे किसी फटीचर ‘राजनीतिक’ के लिए काम तलाश करना पड़ता है, तो उससे पीछा छुड़ाने का सबसे अच्छा उपाय यह समझा जाता है कि उसे (भारत के) नियंत्रण बोर्ड का अध्यक्ष, यानी मुगल बादशाहों का उत्तराधिकारी बना दिया जाए।” ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं जो सत्ताओं की लिबर्टी के मायने स्पष्ट करते हैं।

भारत पर अंग्रेजों का शासन इंग्लैंड में हजारों लोगों को शासन-व्यवस्था के नाम पर नौकरी देने का माध्यम बन गया था। एक साधारण काम भी असाधारण प्रक्रियाओं से गुजरता है। मार्क्स बताते हैं कि एक पृष्ठ के पत्र के साथ 45 हजार संलग्नक पाए गए थे।

बर्क ने अंग्रेज नौकरशाही की इस कुंद और नीच मनोवृत्ति की निंदा अपने एक सुप्रसिद्ध कथन में की है, “असभ्य राजनीतिकों की यह जात मनुष्य जाति का सबसे गिरा हुआ अंग है। इन हाथों में पड़कर, सरकार ऐसा घृणित और निर्जीव व्यापार बन जाती है जैसा अन्य कोई व्यापार नहीं होता।” इसी से हम समझ सकते हैं कि महात्मा गांधी अंग्रेजों की सभ्यता को शैतानी सभ्यता क्यों कहते थे। आज इस सभ्यता में यूरोप के साथ-साथ अमेरिका भी शामिल हो चुका है।

भारत में इंग्लैंड का शासक गुट देश को युद्धों में फंसाता है, ताकि उसके नौजवान बेटों को नौकरियां मिल सकें। मार्क्स कहते हैं, “नौकरशाहों की एक फौज हिंदुस्तान की शासन-व्यवस्था को निर्जीव और निष्प्राण बना देती है तथा उसके अवगुणों को सदा कायम रखती है, क्योंकि ऐसा न करें तो उसके अपने अस्तित्व का कायम रहना असंभव है।”

मार्क्स बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं कि आखिर छोटे-छोटे राज्यों के विरुद्ध भी अंग्रेज सरकार युद्ध क्यों छेड़े रहती है? मार्क्स स्पष्ट करते हैं, “यह इसलिए कि अंग्रेजों की देसी फौज को अपने यूरोपीय मालिकों के खिलाफ उठ खड़े होने से रोकने के लिए उन्हें आपस की छोटी-मोटी लड़ाइयों में फंसाए रखना जरूरी था।” यही अंग्रेजों का अपने देश ब्रिटेन के प्रति राष्ट्रवाद था।

आज भी भारत में कई लोग मानते हैं कि अंग्रेजों का भारत के विकास में बड़ा योगदान है। उन्हें डॉ. लोहिया का यह कथन नहीं भूलना चाहिए, “यह कहना गलत है कि इंग्लैंड ने भारत को रेल उद्योग दिया है, वरन भारत ने इंग्लैंड को रेल उद्योग दिया।”

आज भी भारत को चमत्कृत करने वाली टेक्नोलॉजी विकसित देशों को ही उनके उद्योग धंधे देने वाली बनी हुई है। इसमें सूचना प्रौद्योगिकी और रक्षा तकनीक की भूमिका है। प्रसिद्ध लेखक और चिंतक ऐजाज अहमद के अनुसार, आज का वैश्वीकरण पुराने उपनिवेशवाद का ही नया रूप है। व्यापारिक उदारवाद लोकतंत्र को कमजोर करता है और सुदूर देशों के अधिकार मजबूत करता है। उनके अनुसार भारतीय नीति आश्चर्यजनक डिग्री तक अमेरिकीकृत हुई है। अमेरिकी नागरिक और गैर नागरिक के मुद्दे की फोटोकॉपी के दर्शन भारत में हो रहे हैं (फ्रंटलाइन-2 अगस्त 2019)।

मार्क्स पूछते हैं कि क्या पूंजीपति वर्ग ने व्यक्तियों और जनता को रक्त और कीचड़, दुख और पतन के गर्त में धकेले बिना कोई प्रगति की है? वे भारत के भाग्य के बारे में टिप्पणी करते हैं, “यूरोप में फसल जैसे अच्छे या बुरे मौसम पर निर्भर करती है, वैसे ही एशिया में वह अच्छी या बुरी सरकार के हिसाब से होती है।”

(लेखक शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं)

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