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5 जनवरी 2026 · JAN 05 , 2026

पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

बड़ी जीत

आउटलुक की, 22 दिसंबर की आवरण कथा, ‘बेमिसाल रोशन लड़कियां’ बहुत अच्छी है। दृष्टिबाधित लड़कियों के ब्लाइंड टी20 क्रिकेट विश्वकप की जीत की खुशियां वैसे नहीं मनाई गई जैसे, सामान्य खिलाड़ियों के जीतने पर मनाई जाती हैं। उनकी जीत हर मायने में बड़ी है, क्योंकि यह सिर्फ क्रिकेट के मैदान में हासिल होने वाली जीत नहीं थी, बल्कि यह समाज के तानों से ऊपर उठ कर दृढ़ इरादों की जीत थी। इन खिलाड़ियों को यहां तक पहुंचने के लिए तमाम कष्ट सहने पड़े होंगे। लड़कियों को खुद को बेचारा समझने के लिए बचपन से बाध्य किया जाता है। ऐसे में यदि कोई लड़की देख न पाए, तो यह कोढ़ में खाज वाली बात हो जाती है। समाज जब सामान्य लड़कियों को ही कुछ नहीं समझता, तो फिर इन लोगों को कितना संघर्ष करना पड़ा होगा। इस संघर्ष ने बताया है कि यह जीत सिर्फ क्रिकेट के मैदान में ही नहीं है, समाज की नकारात्मक सोच पर भी जीत है, जो शारीरिक कमी वाले लोगों को कमतर मान कर चलता है।

शैलेन्द्र जाधव | कोल्हापुर, महाराष्ट्र

 

अगर ठान लें

सबसे पहले तो आउटलुक बधाई का पात्र है, जो उसने दृष्टिबाधित खिलाड़ियों की जीत को बड़ा माना। नए अंक में, (22 दिसंबर, ‘बेमिसाल रोशन लड़कियां’) आवरण कथा संपादकीय दृष्टि का बेमिसाल उदाहण है। इन लड़कियों के बारे में पढ़ कर इनके संघर्ष जान कर लगा कि यदि इरादे दृढ़ हों, तो किस्मत बदली जा सकती है। इन लड़कियों की कहानी वाकई इरादों के बल पर किस्मत बदलने की कहानी है। जो लोग जिंदगी से शिकायत करते हैं, उन्हें इन लड़कियों के बारे में पढ़ना चाहिए। तब पता चलेगा कि असली संघर्ष क्या होगा है। पहला ब्लाइंड टी20 क्रिकेट विश्वकप भारत की झोली में आया है। इससे लगता है कि क्रिकेट भले ही इंग्लैंड में जन्मा हो, लेकिन इसे खेलने के असली हकदार भारतीय ही है। जिस तरह से महिलाओं ने क्रिकेट में परचम फहराया है, वह काबिल-ए-तारीफ है। बाकी खेलों में भी महिलाएं आगे बढ़ रही हैं। यह सामाजिक बदलाव का संकेत हैं। इससे साबित होता है कि यदि लड़कियों को मौके दिए जाएं, तो वे हर क्षेत्र में नाम कमा सकती हैं।

प्राजक्ता सुधाकर | मुंबई, महाराष्ट्र

 

लड़कियों का दम

खेलों में वाकई भारत का अभी अच्छा समय है। 22 दिसंबर के अंक में, ‘जज्बे की रोशनी’ शीर्षक से खेल में आने वाली महिलाओं पर बहुत अच्छी जानकारी है। लड़कियां सच में खेल की दुनिया को रोशन कर रही हैं। इससे कई तरह की बेड़ियां टूटी हैं और लड़कियों में आत्मविश्वास भी आया है। दृष्टिबाधित लड़कियों की जीत ने उत्साह में इजाफा किया। उनकी जीत के मायने अलग हैं। यह सिर्फ टूर्नामेंट की जीत नहीं, बल्कि उनके संघर्ष की भी जीत है। इससे हर लड़की के अंदर यह भावना जागेगी कि यदि वे मेहनत करें, तो क्या कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। इन खिलाड़ियों ने साबित किया कि आंखों की रोशनी भले ही कम हो, लेकिन भीतर की इच्छाशक्ति हो, तो दुनिया जीती जा सकती है। लड़कियों ने मुक्केबाजी, कुश्ती हर खेल में अपना दम दिखाया है। यह दमदार जीत आगे लड़कियों को प्रेरणा देती रहेगी।

पवन कत्याल | दिल्ली

 

असली नायक

22 दिसंबर के अंक में, ‘जेंटलमैन से हीमैन तक का सफर’ पढ़ा। धर्मेंद्र ग्रीक देवता की तरह लगते थे, जिन्होंने अभिनय को नए मायने दिए। गांव की मिट्टी में पले-बढ़े धर्मेंद्र ने फिल्मों में नायक की परिभाषा बदल दी। वे सही मायने में पंजाब का गौरव थे। उन्हें किसी भी नाम से पुकारें, हर नाम उन पर सटीक बैठता है। धर्मेंद्र ने छह दशक के लंबे सफर में 300 फिल्मों में काम किया और वह उन दिग्गजों में से आखिरी हैं जिन्होंने 1950 के दशक में काम करना शुरू किया था। 1960 में दिल भी तेरा हम भी तेरे से शुरू हुई यात्रा दिसंबर में समाप्त हो गई। अब उनकी आखिरी फिल्म इक्कीस रिलीज होने को तैयार है। इस लेख में, सत्यकाम के बारे में बात नहीं की गई है। इस फिल्म ने धर्मेंद्र के करिअर को अलग मोड़ दिया था। दर्शकों के साथ-साथ समीक्षकों ने भी उनकी भूमिका को बहुत सराहा था। शोले या चुपके-चुपके की भूमिकाएं बिलकुल अलग थीं। एक बात और जो धर्मेंद्र को अलग बनाती थी कि वे एक्शन के साथ कॉमेडी में भी निपुण थे। उनके पास अद्भुत कॉमिक टाइमिंग थी। वे सच्चे अर्थों में हरफनमौला कलाकार थे।

बाल गोविंद | नोएडा, उत्तर प्रदेश

 

नायकों का नायक

22 दिसंबर के अंक में, ‘जेंटलमैन से हीमैन तक का सफर’ धर्मेंद्र के कई पहलूओं को बताता है। धर्मेंद्र ऐसे नायक थे, जिन्होंने रोमांटिक भूमिकाएं भी कीं, एक्शन भी और कॉमेडी भी। हर भूमिका में वे जंचे। वे भी सदी के महानायक हो सकते थे। लेकिन वे काम में डूबे, बेलौस अभिनेता थे जिन्होंने अमिताभ बच्चन की तरह समझदारी से फिल्में नहीं चुनीं। यदि वे भी सावधानी से योजना बना कर फिल्मों का चुनाव करते, तो अमिताभ से कहीं आगे होते। यह उनकी किसी से तुलना नहीं है लेकिन ब्लैकमेल और ड्रीम गर्ल में वे जैसे रोमांटिक हीरो बने हैं, वैसा कोई नहीं बन पाया। शोले में उनका काम गजब था। एक्शन और कॉमेडी का संतुलन। वे हैंडमस थे। उन्होंने एक ही साल में सबसे ज्यादा हिट फिल्में दीं। ऐसे हीरो को यदि लगातार काम मिलता रहता, तो वे सबसे आगे होते। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री की दिक्कत ही यही है कि हमारे यहां एक बार हीरो टाइप्ड हो गया, तो सब यही चाहते हैं कि वे एक ही संवाद बोलते रहते, ‘‘कुत्ते, मैं तेरा खून पी जाऊंगा।’’ उन्हें इस संवाद में ही बांध कर रिड्यूस कर देना उनके साथ अन्याय है।

श्रीजित बनर्जी | जमशेदपुर, झारखंड

 

इतिहास से सबक

भारत में शाहबानो प्रकरण बहुत ही दुखद था। एक मुस्लिम महिला को भरण-पोषण से रोक देना बेशक सरकार की नाकामी थी। यह शर्मनाक है कि एक महिला को इसके लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ा। इस फैसले ने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ढांचे को लगभग गिरा ही दिया था। मुस्लिम पर्सनल लॉ के दबाव में किसी महिला का हक छीन लेना जरा भी समझदारी भरा काम नहीं था। हक फिल्म ने इस किस्से को बहुत अच्छी तरह दिखाया है। लेकिन ऐसी फिल्मों की एक सीमा होती है, जिसमें सिर्फ भावनाओं की कहानी है। यदि इस कहानी में पाकिस्तान खलनायक के रूप में दिखाया जा सकता या बंदूक लेकर दुश्मनों पर टूट पड़ने के सीन होते, तो यह फिल्म बहुत चलती। लेकिन दर्शकों को शाहबानो मामले से कुछ लेना देना नहीं है। एक निरीह महिला की कहानी कम दर्शकों को छू पाती है। काश इस फिल्म को भी बहुत से दर्शक मिल पाते। (22 दिसंबर, ‘दास्तान जो भुलाई न गई’)

प्रीति प्रकाश सक्सेना | लखनऊ, उत्तर प्रदेश

 

हक की कहानी

नए अंक में हक फिल्म पर आधारित लेख, ‘दास्तान जो भुलाई न गई’ उस दौर के भारत की अलग तस्वीर पेश करता है। फिल्म ने एक स्त्री के हक के मसले को बहुत ही विस्तार से दिखाया। पर यह विडंबना रही कि शाहबानो के फैसले ने देश की राजनीति में भूचाल ला दिया। रूढ़िवादी मुसलमानों के आगे झुक कर राजीव गांधी ने इतिहास में कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में खुद को स्थापित कर दिया। इस फैसले के विरोध के सामने झुकने वाले राजीव शायद अंदाजा नहीं लगा पाए कि यह इतना बड़ा मुद्दा बन जाएगा। शाहबानो का हक छीनने ने शरिया कानूनों और भारतीय मुसलमानों की पहचान को कमजोर किया। अगर उस वक्त राजीव चाहते, तो एक नजीर पेश कर सकते थे। हालांकि कई बार फैसले, आने वाले साल में बताते हैं कि वे सही थे या गलत। वही शाहबानो प्रकरण में हुआ। पर इस फिल्म को देखने से पूरा मुद्दा सही तरीके से समझ आता है।

बीना महाजन | दिल्ली

 

उपाय नाकाफी

दिल्ली की हवा लगातार खराब होती जा रही है यह सभी जानते हैं, लेकिन इसे सुधारने के उपाय के बारे में कोई बात करना नहीं चाहता। प्रदूषण रोकने के सरकार के कदम नाकाफी साबित हो रहे हैं। लोग इस बारे में बहस कर रहे हैं कि शहर छोड़ने वाले दो नामी लोगों का यह फैसला सही है या गलत। हर व्यक्ति की मजबूरी और अपनी व्यवस्था होती है। एक पत्रकार और एक आइआरएस अधिकारी ऐसा कर सकते हैं। लेकिन आम आदमी कहां जाए। कोई भी प्रदूषित शहर में रहना नहीं चाहता। लेकिन विकल्प न हो, तो क्या किया करें, यहीं रहना मजबूरी बन जाता है। बेहतर है, किसी के शहर छोड़ने पर बहस करने के बजाय दिल्ली के हालात सुधारने के उपाय किए जाएं। (22 दिसंबर, ‘बढ़ती आपदा’)

राजेश कुमार | मथुरा, उत्तर प्रदेश

 

पुरस्कृत पत्रः रोशन जहां

दुनिया भर के देश खेल जगत में तरक्की कर रहे हैं। ऐसे में भारत को पिछड़ता देख दुख होता था, लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। क्रिकेट के मैदान के साथ ही अब दूसरे खेलों में भी भारत आगे आ रहा है। यह बहुत खुशी की बात है कि इस साल भारत की लड़कियों ने क्रिकेट के मैदान में जीत हासिल कर ली। सामान्य खिलाड़ियों ने भी विश्व कप जीता और दृष्टिबाधित लड़कियों ने भी। इस जीत के बहुत मायने हैं। दृष्टिबाधित लड़कियों की जीत महत्वपूर्ण इसलिए कि एक तो लड़की, ऊपर से दिखाई न दे। क्योंकि जब सामान्य लड़कियों के लिए ही दुनिया इतनी निर्दयी है, तो शारीरिक कमी के साथ लड़कियों को किन परिस्थितियों से जूझना पड़ता होगा, यह समझा ही जा सकता है। (22 दिसंबर, ‘बेमिसाल रोशन लड़कियां’)

मीना राणा|बीकानेर, राजस्थान

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