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28 नवंबर 2022 · NOV 28 , 2022

पत्र संपादक के नाम

भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

सोच बदलना होगी

इस बार की आवरण कथा, (‘मॉर्डन गुरु नाम-दाम से मालामाल’, 14 नवंबर) एकदम नए विषय पर थी। यह बिलकुल सही है कि कोविड महामारी ने भारत में ऑनलाइन शिक्षा को गति दी। यहां बात केवल ‘स्टार टीचर’ बन जाने की नहीं है। आपने स्टार टीचर विकास दिव्यकीर्ति, खान सर, अलख पांडे और अवध ओझा जैसे ऑनलाइन शिक्षकों को पोस्टर बॉय कहा है। ये सब सिर्फ पोस्टर बॉय ही नहीं हैं। बल्कि ये लोग लाखों छात्रों के प्रेरणा स्रोत भी हैं। इनकी सफलता को सिर्फ फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर उनके फॉलोअर की लाखों-करोड़ों की संख्या से नहीं मापा जा सकता क्योंकि ये उससे कहीं आगे हैं। कई लोग इन्हें बड़े बिजनेसमैन भी कह रहे हैं। इस पर उन लोगों से बस इतना ही पूछा जाना चाहिए कि ये लोग अध्यापकों को हर युग में दीन-हीन ही देखना क्यों चाहते हैं। इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है, जो बिना मेहनत के पैसा ले रहा हो। पूरे दिन लेक्चर लेना क्या आसान बात है। अगर किसी युवा की कोई आइटी कंपनी यूनिकॉर्न बने तो देश में हल्ला हो जाता है। लेकिन अलख पांडे का स्टार्ट-अप ‘फिजिक्सवाला’ देश का 101वां यूनिकॉर्न बनता है, तो लोग कहने लगते हैं कि कोचिंग क्लास बिजनेस है और अध्यापक खूब कमा रहे हैं। जिस दिन यह सोच खत्म हो जाएगी, अध्यापकों का मान बढ़ जाएगा।

चंदन पटेल | दिल्ली

 

सहजता ही कुंजी

यह बहुत सुखद है कि अब अध्यापक भी सेलेब्रिटी हो रहे हैं। हमारे शहर में गणित पढ़ाने वाले अध्यापक अभ्यंकर सर हुआ करते थे। उस वक्त आज की तरह आइआइटी की मारामारी नहीं थी। अधिकांश छात्र प्री इंजीनियरिंग टेस्ट की तैयारी करते थे। ऐसे हर छात्र को अभ्यंकर सर की कोचिंग में जाना जैसे अनिवार्य था। आवरण कथा, ‘मॉडर्न गुरु नाम-दाम से मालामाल’ (14 नवंबर) पढ़ कर वही पुराने दिन याद आ गए। उस वक्त सर का भी ऐसा ही स्टेटस था। छात्र उन्हें घेर कर चलते थे। वे बहुत समर्पित अध्यापक थे और इसी वजह से उनके प्रशंसक छात्रों की संख्या बहुत थी। अब जबकि नीट-जेईई, एसएससी, यूपीएससी और बैंकिंग जैसी तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं पर ही छात्रों का भविष्य निर्भर करता है, तब ऐसे अध्यापकों की पूछ और बढ़ जाती है। अगर किसी खास अध्यापक से पढ़ने के लिए छात्र दूर-दराज से आते हैं, तो जाहिर सी बात है कि उस अध्यापक में कुछ तो होगा ही। आपने जिन भी अध्यापकों के बारे में लिखा, ये सभी बहुत सहज हैं और यही वजह है वे छात्रों से जुड़े हुए हैं।

राजू कुलकर्णी | इंदौर, मध्य प्रदेश

 

सबको मिल रहा है मौका

ऑनलाइन शिक्षकों को आवरण पर प्रकाशित कर आपने हर पाठक का दिल जीत लिया है। (‘मॉर्डन गुरु नाम-दाम से मालामाल’, 14 नवंबर) ऐसी आवरण कथा है, जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। आखिर कौन ऐसा संपादक है, जो अध्यापकों के बारे में इतना सोचता है। इस बात से शायद ही कोई इनकार करेगा कि ऑनलाइन क्लास से दूर-दराज के छात्रों को भी फायदा मिल रहा है। शिक्षा उनकी जद में आ गई है। घर बैठ कर वे मोबाइल पर पढ़ सकते हैं। उन्हें कोचिंग के लिए शहर की ओर दौड़ने की जरूरत नहीं है। इससे निर्धन परिवारों के बच्चों को भी अच्छे अध्यापकों से पढ़ने का मौका मिल रहा है। खान सर की लोकप्रियता के कारण बच्चे उनसे जुड़ रहे हैं और उन्हें इसका फायदा मिल रहा है। छात्रों को उनकी भाषा में समझाना इन अध्यापकों की सबसे बड़ी ताकत है। यह शिक्षा जगत के लिए बहुत अच्छा है कि अध्यापक छात्रों के बीच न सिर्फ लोकप्रिय हो रहे हैं बल्कि छात्र उनके जैसा बनना भी चाहते हैं। अध्यापकों की कमी से जूझते भारत के लिए इससे अच्छा क्या होगा।

वैशाली शर्मा | जोधपुर, राजस्थान

 

प्रसिद्ध अध्यापक

शिक्षकों के सेलेब्रिटी कल्चर पर मैं भी ‘फिजिक्सवाला’ के संस्थापक अलख पांडे के कथन से सहमत हूं कि “पहले शिक्षकों को वह दर्जा नहीं मिलता था जिसके वे हकदार थे। आज शिक्षकों को सेलेब्रिटी स्टेटस मिल रहा है, तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है? बीच में एक दौर ऐसा आया था जब शिक्षकों की चमक कुछ फीकी हो गई थी, हालांकि अब ऑनलाइन टीचिंग ने पुरानी परंपरा को नए तरीके से फिर जगा दिया है।” आखिर क्यों ऐसा वक्त आया कि उनकी चमक फीकी हो गई। इसमें कहीं न कहीं समाज का भी दोष है कि शिक्षकों वह सम्मान नहीं मिला। आखिर क्यों ग्लैमर जगत के लोग आइकॉन बनते चले गए और शिक्षक पिछड़ गए। क्योंकि बाकी क्षेत्रों में तो काम करने वालों को हम श्रेष्ठ समझते हैं उनके काम की प्रशंसा करते हैं लेकिन अध्यापकों के लिए मान कर चलते हैं कि पढ़ाना उनका कर्तव्य है। इसलिए बच्चे बड़े होकर सब कुछ बनना चाहते थे, सिवाय अध्यापक बनने के। (‘मॉर्डन गुरु नाम-दाम से मालामाल’, 14 नवंबर)।

कामिनी राज | बेगूसराय, बिहार

 

ऑनलाइन की ताकत

जो भी यह समझ रहा है कि अध्यापक ऑनलाइन माध्यम आने से सेलेब्रिटी बन गए हैं या उनमें ग्लैमर आ गया है, वे बिलकुल गलत हैं। (‘मॉर्डन गुरु नाम-दाम से मालामाल’, 14 नवंबर) में अध्यापकों पर केंद्रित आवरण कथा ने हर पाठक का दिल जीत लिया है। यूपीएससी की तैयारी करने वाले छात्रों को पढ़ाई के साथ-साथ मानसिक मजबूती और सहयोग की भी जरूरत होती है। तैयारी के दौरान वे अलग ही तरह के तनाव और दबाव से गुजरते हैं। अवध ओझा जैसे अध्यापक उन्हें सिर्फ पढ़ाते नहीं बल्कि उनका आत्मविश्वास भी बढ़ाते हैं। उन्होंने सही कहा है कि शिक्षक की स्वीकार्यता उसके ज्ञान से होनी चाहिए, ग्लैमर से नहीं। वह खुद कहते हैं कि नया जैसा कुछ नहीं है। वे पहले जैसा पढ़ाते थे, आज भी वैसा ही पढ़ा रहे हैं। उन्होंने अपने पहनावे में भी कोई बदलाव नहीं किया। तब जाहिर सी बात है, उनका ज्ञान और पढ़ाने का तरीका ही उन्हें इस मुकाम पर ले आया है। खान सर की खासियत किसी से छुपी हुई नहीं है। न उनकी भाषा में बनावट है न वे पढ़ाने या समझाने के लिए अतिरिक्त प्रयास करते हैं। वे हर संभव कोशिश करते हैं कि छात्रों को उनकी भाषा में समझाएं। छात्रों के बीच ऑनलाइन शिक्षकों का जो आकर्षण शिक्षा जगत के लिए भी अच्छा संकेत है।

नीति मोहन | पटना, बिहार

 

विपरीत परिस्थिति में जीवन

31 अक्टूबर की आवरण कथा अनुपम थी। ‘गहराते अंधेरे के सांध्य तारे’ की भाषा की सुंदरता ने मन मोह लिया। कितना प्रेरणास्पद है कि अस्सी पार के युवा जीवन पर अनुरक्त हुए बिना सतत सक्रिय हैं। यही व्यस्तता उनमें जीवन की संभावना बनाए रखती है। अवसर का पर्याप्त उपयोग कर इन लोगों ने उपलब्धियां पाई हैं, वे शानदार हैं। इसलिए मनुष्यों को जीवित रहने मात्र से खुश और संतुष्ट नहीं रहना चाहिए बल्कि विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन को जीने की आदत होनी चाहिए। श्रम करते रहना ही मनुष्य का स्वभाव होना चाहिए। यही पुरुषार्थ भी है और सफलता का पर्याय भी। निसंदेह ये कथा बहुत प्रेरणादाई है। आपने जो प्रयास किया उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है।

राजू मेहता | जोधपुर, राजस्थान

 

समाज का निर्माण

आउटलुक के 31 अक्टूबर अंक में 80 पार युवा अंक में ‘जब तक जां में है जां’ आलेख दमदार लगा। भारत कर्म प्रधान देश है। देवता भी यही कामना करते हैं कि उन्हें मनुष्य शरीर धारण करना पड़े तो वे भारत भूमि में ही जन्म लें। भारत संतों एवं कर्मयोगियों का देश रहा है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों के चुनिंदा 28 कर्मयोगियों की संक्षिप्त जानकारी ज्ञानवर्धक है। इनमें से कई गुमनाम रहकर समाज की निरंतर सेवा कर रहे हैं। कुछ देश की तन मन और धन से सेवा कर रहे हैं। इनमें रतन नवल टाटा अग्रणी हैं, जो 85 साल में भी समाज और देश के प्रति समर्पित हैं। समाज ऐसे ही लोगों से महान बनता है।

युगल किशोर राही | छपरा, बिहार

 

वंचित बुजुर्ग

17 अक्टूबर के अंक में ‘मोहल्ला अस्सी’ आवरण कथा में बुजुर्गों के बारे में पढ़ा। लेकिन देश में अभी भी कई बुजुर्ग छत, पर्याप्त भोजन, कपड़े, दवाईयों जैसी मूलभूत सुविधा के लिए भी हर रोज संघर्ष कर रहे हैं। फिल्म जगत के या अन्य क्षेत्र के बुजुर्ग, जीवन की अधिकतर सुख सुविधा पा रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनका योगदान कम हो जाता है। लेकिन एक बात तो देखना होगी कि इनके बरअक्स बहुत से बुजुर्गों को भी आरामदायक जीवन मिलना चाहिए। हालांकि उम्र होने के बाद भी जो सेलेब्रिटी अभी भी काम में लगे हैं वे भी तारीफ के काबिल हैं। अब जरूरी है कि इनके बहाने ही सही वंचित बुजुर्गों पर भी बात हो।

हरीशचंद्र पांडे| हलद्वानी, उत्तराखंड

 

वास्तविक धरती-पुत्र

‘सबमें समाया धरती-पुत्र’ (स्मृति, 31 अक्टूबर) पढ़ कर लगा कि इसे दिल से लिखा गया है। नेताजी मुलायम सिंह यादव का दिल मुलायम था। किसान परिवार में जन्मे मुलायम सिंह यादव, बचपन से कुछ अलग करने की चाह रखते थे। शिक्षक के कार्य के बाद भी वे सामाजिक जीवन में सक्रिय रहे। इसी से पता चलता है कि वे सार्वजनिक जीवन को अलग ढंग से जीना चाहते थे। लोक नायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से प्रभावित होकर, नेताजी ने समाजवादी पार्टी बनाई, भारत की राजनीति में उनका प्रभाव बढने लगा। मुलायम सिंह का दिल इतना संवेदनशील और मुलायम था, अमानवीय उत्पीड़न की शिकार दस्यु फूलन देवी को उन्होंने समतावादी वैचारिक मंथन के आधार पर लोकसभा भेजा। भारत की राजनीति में यह पहला चमत्कार था कि बीहड़ की महिला संसद पहुंची। उन्होंने सारा जीवन जनता की सेवा में लगा दिया। सैफई की मिट्टी कभी उनका ऋण नहीं चुका पाएगी।

डॉ. जसवंत सिंह जनमेजय | दिल्ली

 

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पुरस्कृत पत्र : मुस्कराती जिंदगी

‘मोहल्ला अस्सी’ (31 अक्टूबर) पढ़ कर लगा कि जिंदगी फिर मुस्कराने लगी है। इस मोहल्ले के जोशीले, क्रांतिकारी, सक्रिय और सशक्त नागरिकों के काम और उत्साह जान कर साठ से अधिक बसंत देख चुका मेरा दिल बहुत प्रसन्न और उत्साहित हुआ। जहां पहले अंधेरा नजर आ रहा अब वहीं रोशनी दिखाई दे रही है। लग रहा है, हम में भी है दम। आखिर ठान लिया जाए, तो ऐसा कौन सा काम है, हम कर नहीं सकते। बस समझना होगा कि उम्र तो बस एक आंकड़ा है। इसका बुढ़ापे से कई लेना-देना नहीं है। ढलती शाम का गम मनाने के बजाय उसे रचनात्मक काम में लगाने से बेहतर कुछ नहीं हो सकता। स्वास्थ्य के प्रति सचेत रह कर, सामाजिक कार्य से जुड़ कर ढलती शाम को रोशन करने से बेहतर कुछ नहीं हो सकता।

डॉ. इमरान जलील खान | भागलपुर, बिहार

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