Advertisement

पत्र संपादक के नाम

भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं

महत्वपूर्ण फिल्मों की जानकारी

आजादी के महापर्व पर सिनेमा की जानकारी देना अच्छा विचार है। दरअसल भारत में दो ही चीजें लोगों को जोड़ती हैं, सिनेमा और क्रिकेट। अन्य किसी भी खेल के मुकाबले जैसे क्रिकेट लोकप्रिय है, वैसे ही किसी माध्यम से ऊपर सिनेमा है। ऐसे में सिनेमा पर अंक देने से पाठकों की दिलचस्पी अलग तरह से बनती है। 22 अगस्त के अंक में, ‘लोकशाही का बाइस्कोप’ से कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिलीं। सिनेमा माध्यम सौ साल का हो गया और उसने उत्तरोत्तर प्रगति ही की है। भारत के सिनेमा का डंका विदेशों में भी बजता है। बहुत सी फिल्मों के बारे में तो जानकारी थी क्योंकि अक्सर इन पर सामग्री प्रकाशित होती रहती है। लेकिन इस अंक में फिल्मों के अलावा, गीतकार, संगीतकार, नायक-नायिका, निर्देशक सभी को स्थान दिया गया है। इससे पता चलता है कि आउटलुक सभी के योगदान को बराबर मानता है और सम्मान देता है। पचहत्तर फिल्मों की सूची से कई ऐसी फिल्मों के बारे में पता चला जो हिट नहीं थी, लेकिन उस दौर की महत्वपूर्ण फिल्में थीं। ऐसी फिल्मों की जानकारी कहीं और नहीं मिलती। आजादी के हीरक महोत्सव में यह वाकई बेहतरीन योगदान है।

श्वेता तिवारी | गंजबासौदा, मध्य प्रदेश

 

उम्दा आवरण कथा

22 अगस्त की आवरण कथा कई मायनों में अनूठी है। ‘लोकशाही का बाइस्कोप’ ऐसा लेख है, जो पिछले सात दशक के दौरान भारत को अलग ढंग से रखता है। इस दौरान तरह-तरह की अलग विषयों पर फिल्में बनीं। इसमें सिर्फ अस्सी के दशक में ही कुछ फिल्में ऐसी थीं, जिन पर बात करना फिजूल है। वरना भारत के सिनेमा ने आजादी के बाद वाकई तरक्की की और कहानियां कहने का तरीका बदला। कुछ फिल्में कालजयी हैं, जिन पर दुनिया फिदा रही। हर दौर में सिनेमा ने अपना चलन बदला और एक खास दौर में खास तरह की फिल्मों की धूम रही। लेकिन खास बात यह रही कि कोई कहानी किसी की नकल नहीं रही। भारत के किसी काल को करीब से जानना हो, तो उस काल की फिल्में देखी जा सकती हैं। उस दौर के विचारों और प्रवृत्तियों को फिल्मों में बखूबी दर्शाया गया है। यही वजह कि यह आवरण कथा उन सभी फिल्मों को एक तरह से ताजा करती है।

शाश्वत बोहरे | आजमगढ़, उत्तर प्रदेश

 

आदर्शवाद से वास्तविकता तक

भारतीय सिनेमा इसलिए लोकप्रिय नहीं है कि इसमें मनोरंजन और नाच-गाना होता है, बल्कि इसलिए भी लोकप्रिय हैं क्योंकि हमारे यहां की फिल्मों ने एक तरह से सांस्कृतिक चेतना को झकझोरा और क्रांति लाने का काम किया। 22 अगस्त की आवरण कथा, ‘लोकशाही का सिनेमा’ ने इस चेतना पर सिलसिलेवार रोशनी डाली है। सिनेमा ने दर्शकों को क्रांति का विचार दिया, तो दर्शकों ने भी बदले में सिनेमा को विचार का सशक्त माध्यम बनने में मदद दी। आजादी के बाद देश करवट ले रहा था। राष्ट्र के रूप में भारत का जन्म बहुत से सामाजिक गणितों को बदल रहा था। जो विषय आज छोटे लगते हैं, उस वक्त उन्हें फिल्मों के माध्यम से ही कहना कठिन था। आजादी के बाद सब कुछ नया था। अमीर और गरीब की इस खाई के समाजशास्त्र को सिनेमा ने न सिर्फ समझा बल्कि अच्छे ढंग से समझाया भी। आज बॉलीवुड में कई फिल्मों के रीमेक बनते हैं। आवरण कथा में कई ऐसी फिल्मों के बारे में बताया गया है, जो आज भी समसामयिक लगती हैं। बॉलीवुड को इन पर दोबारा फिल्म बनानी चाहिए।

राजाराम जाटव | नई दिल्ली

 

वाकई जादुई

22 अगस्त के अंक में, ‘रुपहले परदे के जादुई अहसास’ में 75 फिल्मों की सूची में भले ही कुछ फिल्में छूटी हों, लेकिन यह तय है कि हर दौर की फिल्म आपने सही चुनी है। हमारे यहां बनी फिल्म की खासियत ही यह थी कि इसमें शहरी और ग्रामीण भारत दोनों को बराबर तवज्जो मिली। हर दौर की फिल्म को समेटना आसान नहीं होता क्योंकि कई बार यह निजी पसंद या नापसंद का मामला होता है। इसलिए आपने संपादकीय में भी इस ओर इशारा किया है, जो बिलकुल सही है। फिर भी 75 फिल्मों की सूची में हर वह महत्वपूर्ण फिल्म आ गई है, जिसने दर्शकों से सीधे संवाद बनाया और आज तक लोगों की याद में शामिल हैं। हालांकि मैं बिमल रॉय की फिल्म दो बीघा जमीन को सदी की महान फिल्म मानता हूं, क्योंकि निर्देशन, बलराज साहनी की अदाकारी ने इसे कालजयी बना दिया है। वास्तविक से लगते दृश्य इस फिल्म की आत्मा है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण फिल्म है, क्योंकि छोटे किसानों की दुर्दशा आज भी जस की तस है। उस दौर से इस दौर में आज तक कुछ नहीं बदला।

रणविजय चौधरी | भिवानी, हरियाणा

 

बड़ा करें दिल

आउटलुक के 08 अगस्त अंक में आवरण कथा, ‘कामयाब भारतवंशी’ पढ़ीं। कल्पना चावला, सत्य नाडेला, कमला हैरिस, सुंदर पिचाई, ऋषि सुनक जैसे भारतवंशियों पर हमें गर्व है। इन लोगों ने अपने-अपने क्षेत्र में शिखर पर पहुंच कर भारत का नाम रोशन किया है। जिस देश में ये लोग सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं वहां भी इन्हें संघर्ष करना ही पड़ा होगा। वहां की जनता भी इन लोगों को स्वीकार कर रही है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि हमें विदेश में भारतीय लोगों की धूम तो पसंद है, लेकिन क्या विदेशी मूल का भारतीय नागरिक हमें अपने देश में प्रधानमंत्री पद के लिए कबूल था या होगा? क्या विदेशी मूल के लोग भारतीय नागरिक बनने के बाद भी हमारा भरोसा जीत पाते हैं? क्या हम उन्हें हमेशा विदेशी नहीं मानते? क्योंकि हम अक्सर नागरिकता से ज्यादा जन्म के मूल को महत्व देते हैं। विदेशी मूल के लोग मदर टेरेसा की तरह सेवा करें तो हमें मंजूर है मगर सोनिया गांधी की तरह शासन में दखल रखें, तो हमें खलता है। राष्ट्रवाद अंग्रेजों में भी है। अगर कल को विदेशी मूल का कह कर वे लोग ऋषि सुनक को खारिज कर दें, तो हमें दुखी नहीं होना चाहिए।

बृजेश माथुर | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

 

सीखने में माहिर

8 अगस्त की आवरण कथा, ‘विश्व सियासी मंच पर भारतवंशी’ काबिले तारीफ है। सीधे इंग्लैंड से आई रिपोर्ट में ब्रिटिश प्रधानमंत्री की दौड़ में मौजूद भारतवंशी ऋषि सुनक की उम्मीदवारी के बारे में बहुत सी बातें पता चलीं। सुनक जीतें न जीतें लेकिन उन्होंने यह तो जता ही दिया है कि भारत के लोग कहीं भी कमतर नहीं बैठते। यह भारतीयों की मेहनत का ही नतीजा है कि वे जहां जाते हैं, वहां की रीति-नीति सीख लेते हैं।

डॉ. जसवंतसिंह जनमेजय | नई दिल्ली

 

भारत की ताकत

8 अगस्त के अंक में, ‘विश्व सियासी मंच पर भारतवंशी’ में भारत की उर्वर मिट्टी की ताकत को वैश्विक स्तर पर प्रदर्शित किया गया है।‌ विश्व के विभिन्न हिस्सों में भारतवंशी अपने हुनर की बदौलत ऊंचाईयां छू रहे हैं। इसकी बदौलत विश्व मंच पर भारत की साख में वृद्धि हुई है। अगर सुनक प्रधानमंत्री चुने जाते हैं तो यह भारत के लिए वाकई गर्व की बात होगी।                                    

युगल किशोर राही | छपरा, बिहार

 

एक होगा समाज

8 अगस्त के अंक में, सर्वोच्च पद का दायित्व जनजातीय समाज से आने वाली महिला के संघर्ष को सामने रखता है। उनका सफर बहुत कठिन रहा है। पति और दो बेटों को खोने के बाद भी वे इतनी मजबूती से खड़ी रहीं, यह तारीफ की बात है। देश की सेवा करने का हौसला और साहस उनके पद को और ज्यादा सुशोभित करता है। भारत में पहली बार कोई आदिवासी महिला देश की प्रथम नागरिक बनी हैं। उनके कारण जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर बंट रहा समाज फिर एक हो सकेगा।

शशिधर | बठिंडा, पंजाब

 

देशवासियों की भी सुध लें

8 अगस्त का अंक, दो रंग लिए हुए है। एक ओर तो हम, ‘वोट फाॅर बिदेसिया’ के माध्यम से भारतीय मूल के लोगों की कामयाबी पर फूले नहीं समा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर भारत की एक संघर्षरत कलाकार को बिना सबूत नाहक तंग कर रहे हैं। ‘छूटे वे दिन, फिर छाए काले साए’ में रिया चक्रवर्ती के बारे में पढ़ कर दुख हुआ। बिहार मूल के लोग प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन रहे हैं लेकिन हर साल बिहार में लाखों युवा राजनीतिक प्रपंच, बेरोजगारी के कारण हताशा से आत्महत्या कर रहे हैं, उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं।

हरीशचंद्र पाण्डे | हल्द्वानी, उत्तराखंड

 

युवाओं की मार्गदर्शक

25 जुलाई 2022 का अंक विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों से संबंधित सूचनाओं से लबरेज है। इसके साथ-साथ यह अंक उन संस्थाओं की रेटिंग एवं गुणवत्ता से संबंधित पूर्ण जानकारी भी देता है। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जाने के इच्छुक युवाओं के मार्गदर्शन के लिए यह अंक अपने आप में मील का पत्थर है। जब-जब युवाओं को उच्च शिक्षा संबंधित संस्थानों में प्रवेश के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है, तब-तब आउटलुक हिंदी पाक्षिक इस दिशा में सार्थक और मार्गदर्शक अंक प्रकाशित करता है। इससे उन्हें अच्छे संस्थान में शिक्षा ग्रहण करने तथा व्यक्तित्व विकास में सहायता मिलती है।

सबाहत हुसैन खान | उधमसिंहनगर, उत्तराखंड

 

महत्वपूर्ण अंक

भारत में हर रोज इतने नए कॉलेज और विश्वविद्यालयों को मान्यता मिल रही है कि युवा असमंजस में रहते हैं। ऐसे में युवाओं को कॉलेज की रैंकिंग जैसे अंक (25 जुलाई) की सख्त आवश्यकता रहती है। इस अंक से विश्वविद्यालयों में मौजूद सुविधा, स्टाफ, उनका नाम, राज्य और जगह के बारे में सटीक जानकारी मिल जाती है। साथ ही यह भी पता चल जाता है कि किस विषय में किस कॉलेज को महारत हासिल है। यह महत्वपूर्ण अंक रहता है, जो छात्रों को सही मार्गदर्शन देता है।

अनिमेष सिंह | कटरा, जम्मू

 

---------

पुरस्कृत पत्र: सिनेमा उद्योग की यात्रा

आउटलुक का नया अंक सराहनीय है। आजादी के 75 बरस में सिनेमा की स्थिति पर, ‘लोकशाही का बाइस्कोप’ (22 अगस्त) उम्दा लेख है। इन 75 साल में सिनेमा ने जो भी करवट ली, उसकी जानकारी पहले नहीं थी। आजादी के बाद से समाज के बदलावों को सिनेमा ने बहुत अच्छे तरीके से समझा और आम लोगों तक पहुंचाया। शायद इसलिए सिनेमा को समाज का आईना कहा गया है। बेरोजगारी, दलितों पर अत्याचार, हिंसा से बढ़ते हुए फिल्म उद्योग ने आज वास्तविक स्थितियों पर बात करना शुरू की है। फिल्म उद्योग की इस यात्रा के लिए कई निर्माता-निर्देशक, कलाकार लगातार काम करते रहे हैं। इतनी जानकारी इकट्ठा करना बहुत मेहनत का काम है। आउटलुक इसमें सफल रहा है।

हरि जोशी, मेरठ, उत्तर प्रदेश

Advertisement
Advertisement
Advertisement