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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं

असली नायक

2 मई की आवरण कथा (कामयाबियों की महाभारत) ने दिल जीत लिया। चाहे फिल्म हो या रंगमंच, सेमिनार हो या किसी तरह का विमर्श, ट्रांसजेंडर्स के लिए समाज की सोच ईमानदार नहीं है। आम जनता तो आज भी इन्हें खुलकर स्वीकार करने में हिचकती है। हो सकता है आपके इस अंक की चर्चा के बाद शायद संकुचित दिमाग कुछ खुलें और समाज इन्हें इंसान मानकर थोड़ी सी ही सही, कहीं जगह देना शुरू कर दे। वह दिन शायद जल्द ही आएगा, जब ये भी समाज में सामान्य लोगों की तरह अपने अधिकारों के साथ जीवन-यापन कर सकेंगे। वरना आज के दौर में, तो ये लोग बस नाचने और आशीर्वाद देने के लिए ही हैं। लगभग सभी लोगों ने जीवन में कभी न कभी तो एक बार इन लोगों से आशीर्वाद लिया ही होगा। लेकिन इसके बाद ये लोग कहां जाते हैं कोई नहीं सोचता। न कभी यह जानने का प्रयास करता है कि ये कौन हैं और कहां से आए हैं। इनकी समस्याएं क्या हैं और क्या कारण है जिसकी वजह से इन्हें ऐसे दर-दर घूमना पड़ता है।

हरीश चंद्र पांडे | हल्द्वानी, उत्तराखंड

 

जज्बे को सलाम

ताजा अंक (2 मई, कामयाबियों की महाभारत) हर मायने में श्रेष्ठ है। मुझे यह स्वीकारने में कोई परेशानी नहीं कि इससे पहले मुझे ट्रांस समाज के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। इस अंक ने जैसे आंखें खोल दीं। मुझे लगता है समाज में कोई भी मानवीय दृष्टि से इन्हें नहीं देखता है। ये लोग वाकई नायक हैं। ट्रांस समाज के लोगों ने इतना कुछ हासिल किया है यह इस आवरण कथा से ही मालूम हुआ। इन लोगों के जीवन में कितना दर्द है, फिर भी ये लोग डटे हुए हैं और अपना मुकाम हासिल कर रहे हैं। ट्रांस लोगों के जीवन की परेशानी पर आउटलुक ने न सिर्फ सोचा बल्कि ऐसे लोगों से रूबरू भी कराया जो संघर्ष कर सफलता पा चुके हैं। यह सामान्य लोगों के लिए ही नहीं बल्कि ट्रांस समुदाय के लोगों के लिए भी प्रेरणा होगी। क्योंकि वे लोग भी जान सकेंगे कि उनके समुदाय के कुछ लोगों ने कैसे समाज की विपरीत धारा में बह कर अपना नाम रोशन किया। आउटलुक टीम को साधुवाद।

कृतिका शर्मा | हैदराबाद, तेलंगाना

 

पठनीय लेख

किसी ऐसे समुदाय के बारे में सोच पाना ही कठिन है, जिसे सिर्फ नाचने-गाने, भीख मांगने या सेक्स वर्कर के रूप में पहचाना जाता हो। लेकिन आपने तो कमाल कर दिया। इन लोगों की ऐसी-ऐसी कहानियों को सामने रखा कि ट्रांस समुदाय के बारे में बनी सारी धारणाएं गलत साबित होने लगी। 'हमारा भी दिल धड़कता है' (2 मई) पढ़ कर सारी निराशा दूर हो गई। इन लोगों के संघर्ष के बारे में पढ़ कर लगा कि कम से कम हम लोगों को समाज से जूझना तो नहीं पड़ता। इन लोगों की कहानियों का ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार होना चाहिए। आजकल 'डिप्रेशन' शब्द बहुत फैशन में है। जिसे देखो वो इस भारी-भरकम शब्द का इस्तेमाल करता पाया जाता है। जो लोग जरा सी परेशानी में खुद को डिप्रेशन में पाते हैं, उन्हें तो यह लेख जरूर पढ़ना चाहिए। इन लोगों ने क्या कुछ नहीं झेला फिर भी आज ये हमारे सामने मुस्कराते हुए खड़े हैं।

शशि झा | पटना, बिहार

 

हौसले का मंत्र

आउटलुक शुरू से ही मनपसंद पत्रिका रही है। लेकिन इस बार आवरण कथा (2 मई) का मैं कायल हो गया। आप लोगों ने कैसे सोचा कि ट्रांस समुदाय पर भी आवरण कथा हो सकती है। यह पूरा अंक बहुत प्रेरणा देता हुआ है। हर लेख दिल को छू लेने वाला है। इनमें से केवल लक्ष्मी त्रिपाठी के बारे में ही थोड़ा बहुत पढ़ रखा था। तब लगता था कि समुदाय से एक या दो व्यक्ति तो अलग ढंग के निकल ही सकते हैं। लेकिन आपने इतने लोग जुटा दिए कि आंखें खुल गईं। इस लेख में जिन लोगों ने मुकाम पा लिया उन लोगों के साथ ऐसे कुछ लोगों की कहानियां भी होतीं जो अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाए और उन्हें क्या परेशानी आईं, तो और भी अच्छा होता। इन लेखों को पढ़ कर लगा कि हम लोगों की परेशानियां तो इन लोगों के सामने कुछ नहीं हैं। यह सिर्फ लेख नहीं बल्कि हौसला जगाने का मंत्र है।

सुधांशु शर्मा | मंडी, हिमाचल प्रदेश

 

स्वास्थ्य और शिक्षा जरूरी

'मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी' नाम की किताब लिख कर चर्चा में आईं लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का साक्षात्कार अच्छा लगा। (2 मई, 'एक बार हमें सीने से लगा कर तो देखिए') अब उन्होंने किन्नर अखाड़े की स्थापना भी कर ली है। वे भी आज के राजनेताओं जैसी बातें ही कह रही हैं कि किन्नरों को धर्म में फिर से स्थापित करना है। धर्म ने अधिकांश जगहों पर सिर्फ बेड़ा गर्क करने का ही काम किया है। वे महामंडलेश्वर बन गई हैं यह अच्छी बात है, लेकिन उन्हें आम किन्नरों की पढ़ाई और स्वास्थ्य, दो बातों पर काम करना चाहिए। उनकी अपनी पहचान है और वे स्थापित नाम हैं। अगर वे यह पहल करेंगी, तो सफलता मिलने की उम्मीद बढ़ जाएगी। यदि किन्नर पढ़ लिख जाएं, तो बहुत सी समस्याओं का हल अपने आप हो जाएगा। यह सच है कि नौकरी का संकट फिर भी बना रहेगा लेकिन शिक्षित हो जाने के बाद वे लोग कम से कम भीख तो नहीं मांगेंगे और कोई भी छोटा-मोटा काम करने के योग्य हो जाएंगे। इसी अंक में 'हमारा भी दिल धड़कता है' पढ़ कर लगा कि यदि ये लोग ठान लें तो किस क्षेत्र में नाम नहीं कमा सकते। बस जरूरत है तो इन्हें आगे बढ़ाने की और मार्गदर्शन देने की। इस अंक में जितने भी ट्रांस लोगों की कहानियां छपी हैं उन्हें अपनी बिरादरी की भलाई के लिए युद्ध स्तर पर जुट कर काम शुरू कर देना चाहिए।

पुरुषोत्तम गुप्ता | गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

 

तार्किक बात

'सोच बदलो फिल्मवालो' (2 मई) एक जरूरी लेख है। इस लेख का वजन इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि एक ऐसे कलाकार ने इसे लिखा है, जो खुद फिल्म उद्योग से जुड़ी हुई हैं। सेलिना ने बहुत ही तार्किक ढंग से अपनी बात रखी है। यह सच है कि फिल्मों ने लोगों के सामाजिक शिक्षण में बहुत सहयोग दिया है। फिल्में वे बातें भी लोगों तक आसानी से पहुंचा देती हैं, जो नामी धार्मिक गुरु, सामाजिक कार्यकर्ता भी नहीं पहुंचा पाते। लेकिन फिल्म उद्योग ने भी लीक से हटकर कभी किन्नरों का चित्रण नहीं किया। शायद पहली बार है कि चंडीगढ़ करे आशिकी से इस तरह का विषय उठाया गया है। उम्मीद है उद्योग अब इन लोगों की समस्याओं पर वास्तविक ढंग से बात करेगा और स्टीरियोटाइप चित्रण नहीं करेगा। सेलिना जेटली ने एक बात और सही कही है कि फिल्म में जब भी किसी किन्नर की भूमिका हो, उसे आम कलाकार के बजाय किन्नर कलाकार से ही निभाने का प्रयास करना चाहिए। इससे उनके प्रति सोच बदलेगी और इन लोगों के लिए करिअर का एक रास्ता भी खुलेगा। इस समुदाय में भी हर क्षेत्र में जाने की काबिलियत है। बस जरूरत है, तो इन्हें मौका देने की। केवल ट्रांस होने के कारण यदि इन्हें मौका नहीं दिया जाएगा, तो इनकी स्थिति कभी नहीं सुधरेगी।

राधिका मदान | दिल्ली 

 

बदलना होगा नजरिया

'कामयाबियों की महाभारत' (2 मई) किन्नरों की नहीं बल्कि सामान्य लोगों की किन्नर सोच की कहानी है। मैं खुद इस सोच में शामिल हूं। लंबे समय से मैं सामाजिक काम कर रही हूं और यही सोचती थी कि मैं बेहतरीन काम कर रही हूं और कई लोगों की जिंदगियां संवार रही हूं। लेकिन जब यह आवरण कथा पढ़ी, तब समझ आया कि मैं तो सिर्फ उन लोगों के लिए काम कर रही हूं, जिन्हें सिर्फ थोड़ी सी मदद की जरूरत है। उन लोगों पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया, जिन्हें हक की जरूरत है। इस अंक के सारे लेख कई-कई बार पढ़े और दिमाग सुन्न हो गया कि हम जैसे ये इंसान जिनमें कोई कमी नहीं, वे सामान्य जीवन नहीं जी पाते सिर्फ इसलिए कि उनका लिंग निर्धारित नहीं है? पुरुष हो कर भी जो साहसी नहीं होते, स्त्री हो कर भी जो ममतामयी नहीं होती क्या हम उन्हें छोड़ देते हैं? तो फिर ईश्वर यदि लिंग निर्धारण में चूक जाए, तो क्या इन लोगों के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार होना चाहिए। सच कहूं, तो इस नजरिए से मैंने खुद पहली बार ही सोचा है। यह भी वंचित समुदाय ही है। लेकिन ये लोग तो परिवार और माता-पिता के प्रेम से भी वंचित हैं। इसी लेख से पता चला कि 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में ट्रांस समुदाय की आबादी 4.88 लाख है। इतनी बड़ी जनसंख्या होने के बाद भी हर पल संघर्ष में ये लोग कैसे रहते होंगे। भारत में कहा जाता है कि जो चुनावी मुद्दा नहीं, वो किसी काम का नहीं। लेकिन यह चुनावी मुद्दा होने से पहले सामाजिक मुद्दा है। हमें पहले अपने दिल और दिमाग के दरवाजे खोलने होंगे। तभी वह दिन आएगा, जब किसी को ट्रांस होने की वजह से न आत्महत्या करनी पड़ेगी न भीख मांगनी पड़ेगी।

प्रीति अस्थाना | भोपाल, मध्य प्रदेश

 

विकल्प बनना मुश्किल

2 मई के अंक में, 'आम आदमी पार्टी: कांग्रेस की जगह लेने का मंसूबा' पढ़ा। लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि देश की राजनीति पर किसी भी एक दल का एकाधिकार न हो। बल्कि उसमें कई दलों की भागीदारी हो। कांग्रेस के पतन और क्षेत्रीय दलों के राज्य विशेष में सीमित रहने से फिलहाल राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा का आधिपत्य बढ़ा है। दो राज्यों में सरकार बनाने के बाद आम आदमी पार्टी कांग्रेस या भाजपा का विकल्प बनना चाहती है, मगर यह कठिन है। विचारधारा के अलावा अगर कांग्रेस के साथ सवा सौ साल का समृद्ध इतिहास है, तो भाजपा के साथ संघ का सौ साल का अनुभव है। इन विशेषताओं और स्पष्ट विचारधारा के अभाव में आप विस्तार के लिए मुफ्त की सुविधाओं और अन्य दलों के असंतुष्टों के भरोसे हैं। हिमाचल प्रदेश में भाजपा मुफ्त सुविधाओं का दांव चल चुकी है और अन्य दल भी इसे सीख चुके हैं। पिछले कुछ चुनावों में दलबदलुओं का बड़े पैमाने पर हारना दर्शाता है कि असंतुष्टों के भरोसे सत्ता नहीं मिलती। स्पष्ट विचारधारा और मजबूत कैडर के बिना आम आदमी पार्टी का राष्ट्रीय दल या उनका विकल्प बनना मुश्किल है।

बृजेश माथुर | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

 

पुरस्कृत पत्रः किसी से कम नहीं

इस बार के अंक में (2 मई) सिर्फ लेख ही नहीं हैं बल्कि ये ट्रांसजेंडर समुदाय का दुख, दर्द और संघर्ष है। महाभारत काल से जोड़ते हुए आज के वक्त तक उनकी पीड़ा को लाना सहज नहीं है। इस समुदाय के लिए अलग से सरकारी नीति होनी चाहिए। लोगों में जागरूकता लाने के प्रयास होने चाहिए कि यदि बच्चा ट्रांस है, तो उसे भी स्नेह दें और पढ़ाएं या कोई हुनर सिखाएं। माता-पिता का साथ और सहयोग उनके जीवन को नष्ट होने से बचा पाएगा। समाज की सोच की वजह से परिवार ऐसे बच्चों को त्याग देता है। हर प्रदेश में ऐसी व्यवस्था हो कि बच्चा अगर ट्रांस हो और परिवार न रखना चाहे, तो उसके रहने, खाने और पढ़ने की व्यवस्था हो, ताकि वह भी आम बच्चों की तरह पढ़-लिख कर कुछ बन सके।

चारू जोशी | मुंबई, महाराष्ट्र

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