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पत्र संपादक के नाम

भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई  प्रतिक्रियाएं

चमत्कार नहीं, काम

4 अप्रैल 2022 की आवरण कथा, ‘विजय सूत्र और सूत्रधार’ में जो लिखा है उसका लब्बोलुआब यह है कि इस चुनाव में सत्ता विरोधी लहर थी। लेकिन नतीजे इसके उलट आए यानी कि भारतीय जनता पार्टी ने जीत दर्ज कर ली। लेकिन यह समझना होगा कि सत्ता विरोधी लहर में चमत्कार एक राज्य में होता चार राज्यों में नहीं। भाजपा ने चार राज्यों में सरकार बनाई है इसका मतलब है कि इस पार्टी में अभी जनता का यकीन कायम है। यह देखने वालों की आंखों और समझ का फेर है कि उन्हें हर जगह मोदी या भाजपा विरोध ही दिखाई देता है। इस पार्टी का जीत कर आना जादू बिलकुल भी नहीं है। भारत के लोग अब इस बात पर गर्व करते हैं कि मोदी अमेरिका के राष्ट्रपति से सीधे बात करते हैं, कि रूस के साथ खड़े होकर उन्होंने अपनी विदेश नीति को स्पष्ट किया है या फिर वे बहुसंख्य हिंदू समाज के बारे में सोच रहे हैं। विरोधी कह सकते हैं कि इससे पेट नहीं भरता या फिर महंगाई कम नहीं हो जाती। लेकिन सोच कर देखिए किस सरकार में लोगों को सस्ते में सामान मिला। किसी की भी सरकार ने ऐसा चमत्कार नहीं दिखाया। लेकिन तब राष्ट्रीय गर्व का भी कोई विषय नहीं था। इसलिए जब देश का नाम हो रहा है, तो लोग इसी में संतोष पा रहे हैं और इस पार्टी को वोट दे रहे हैं।

सुमित वाजपेयी | ग्वालियर, मध्य प्रदेश

 

जनता की जीत

किसान आंदोलन, बेरोजगारी, महंगाई, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था से घटती आमदनी और कोविड-19 महामारी अफरा-तफरी के बीच भी भारतीय जनता पार्टी का दोबारा सरकार बनाना बहुतों को आश्चर्य में डाले हुए है। 4 अप्रैल 2022 की आवरण कथा, ‘विजय सूत्र और सूत्रधार’ इसकी बारीकी से पड़ताल भी करती है। लेकिन विश्लेषण में सिर्फ जीतने वाले का ही विश्लेषण नहीं होना चाहिए और न सिर्फ यह कहना काफी होगा कि विपक्ष कमजोर है। दरअसल भारतीय जनता पार्टी जबसे मोदी के हाथों में गई है, पूरे पैकेज के साथ चुनाव में उतरती है। ये पार्टी प्रयोग करती है और फिर अपने प्रयोग को सही साबित करने के लिए जी-तोड़ मेहनत भी करती है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि योगी को सत्ता की बागडोर सौंप कर मोदी ने जुआ खेला था। यह अलग बात है कि उनकी किस्मत ने भी साथ दिया और योगी ने दोबारा राज्य जीत कर उनकी झोली में डाल दिया। कोई माने या न माने लेकिन काशी कॉरिडोर और अयोध्या के मंदिर निर्माण ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की है। इसके अलावा योगी ने जो एनकाउंटर किए उसका भी बहुत फर्क पड़ा। सौ फीसदी अपराध तो कोई भी खत्म नहीं कर सकता, लेकिन जनता में यह संदेश जाना ही काफी है कि सरकार अपराधियों पर सख्त है। यही बात योगी के पक्ष में गई और उन्हें जीत हासिल हुई।

श्रीराम परिहार | श्रीगंगानगर, राजस्थान

 

मोदी का जादू कायम

इन चुनावी नतीजों से इतना तो साफ है कि फिलहाल किसी भी पार्टी के पास मोदी का विकल्प नहीं है। भारतीय जनता पार्टी ने चार राज्यों में जीत हासिल कर दोबारा सत्ता में वापसी की है। जबकि एक वक्त लगने लगा था कि इस बार योगी वापसी नहीं कर पाएंगे। आवरण कथा (4 अप्रैल 2022) में सभी चुनावी पहलुओं को बहुत अच्छे ढंग से समेटा गया है। इसी अंक का लेख, ‘लीक छोड़े तब न’ कांग्रेस की भीतरी लड़ाई को बहुत अच्छे ढंग से उजागर करता है। कोई नहीं समझ पा रहा है कि कांग्रेस कार्यसमिति आखिर चाहती क्या है। हर बार बस इस्तीफे की पेशकश होती है और नतीजा सिफर निकलता है। इसी लेख से पता चला कि बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु के चुनावों में हार की समीक्षा के लिए गठित अशोक चव्हाण समिति की रिपोर्ट पर विचार ही नहीं किया गया है। ऐसे में भला कांग्रेस चुनावी राजनीति में वापसी कैसे कर पाएगी। यदि वास्तव में सोनिया गांधी चाहती हैं कि पार्टी बेहतर नतीजे लाए, तो उन्हें तुरंत इस पर काम करने की जरूरत है। धीरे-धीरे आम आदमी पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनती जा रही है। यही हालात लंबे समय तक रहे, तो कांग्रेस को भुला दिया जाएगा। पार्टी के बड़े नेताओं को बगावती तेवर दिखा कर सोनिया, राहुल और प्रियंका को दरकिनार कर देना चाहिए। 

श्रेयसी एम. राजन | बेंगलूरू, कर्नाटक

 

जीत महत्वपूर्ण

उत्तर प्रदेश के चुनाव ने सभी को चौंकाया है। चुनाव से पहले मीडिया में माहौल कुछ और था और परिणाम इससे उलट आए। यह तो होना ही था, क्योंकि जब किसी खास चश्मे से पार्टी का आकलन किया जाए, तो सही बात दिखना बंद हो जाती है। एक लेख में लिखा है कि (‘विजय सूत्र और सूत्रधार’, 4 अप्रैल 2022) सत्ता विरोधी रुझान थे। आश्चर्य है कि मीडिया को सत्ता विरोध दिखा और जनता को नहीं दिखा। जब परिणाम अपेक्षित नहीं मिले तो कहा जा रहा है कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में कुल 403 सीटों में 2017 में 312 के मुकाबले 2022 में उसे 255 सीटें ही मिलीं। चाहे कुछ भी कहा जाए लेकिन यह सत्य है कि पार्टी ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया है। और जो जीतता है वही सिकंदर होता है।

शिखा जोशी | अल्मोड़ा, उत्तराखंड

 

कब जागेगा विपक्ष

अब जैसे हर बार का रिवाज ही हो गया है कि जैसे ही भाजपा कोई प्रदेश जीते, हर बार विपक्ष को दोषी ठहरा दिया जाए कि वह ठीक से काम नहीं कर रहा या अपने हिस्से की मेहनत में कोताही बरत रहा है। इस बार भी प्रथम दृष्टि ‘नेतृत्व की अहमियत’ (4 अप्रैल) में यही लिखा है कि विपक्ष को दीर्घकालीन रणनीति बनानी होगी। दरअसल रणनीति तो तब बनेगी जब दूसरी पार्टियां कुछ करना चाहेंगी। अभी के चुनावी परिणाम देख कर तो ऐसा लग रहा है कि चाहे प्रियंका हो या अखिलेश इन लोगों को पता ही नहीं है कि जनता से कैसे संवाद स्थापित किया जाता है। इन लोगों को लगता है कि बस सरकार की कमियां निकाल कर प्रचार कर लो, जीत इनकी झोली में आकर गिरेगी। इससे नकारात्मक प्रभाव पैदा होता है। जिन लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ मिला होता है वे इन पार्टियों से छिटक जाते हैं। या तो इनके पास विरोध है या फिर मुफ्त सामान बांटने की योजनाएं। चुनाव ऐसे नहीं जीते जाते। चुनाव खत्म होने के बाद न प्रियंका दिख रही हैं न अखिलेश। ऐसे में जनता इन पर कैसे भरोसा करे। पांच साल बाद जब ये लोग फिर मैदान में होंगे, भाजपा कुछ नया ही कारनामा कर गुजरेगी।

इति तिवारी | बांदा, उत्तर प्रदेश

 

जनता के सहारे

4 अप्रैल के अंक में ‘नेतृत्व की अहमियत’ लेख में बिलकुल ठीक लिखा है कि चुनाव में विपक्ष बार-बार पटखनी खाने के बाद भी कोई सबक नहीं ले रहा है। दरअसल विपक्ष मतदाताओं की जरूरत और उनकी भलाई के नजरिये से सोचने के बजाय सिर्फ यह सोचता है कि एक दिन तो ऐसा आएगा जब जनता भाजपा से ऊब जाएगी और वोट उनकी झोली में गिर जाएंगे। बस इसी उम्मीद के सहारे ये लोग सरकार बनाने का सपना देखते हैं। अगर ये लोग मतदाताओं के सामने विश्वसनीय विकल्प के रूप में दिखें, तो इन लोगों को सफलता जरूर मिलेगी। जो भी जनता के बदलाव के भरोसे रहेगा वह हारेगा ही। इस बार तो विपक्ष के पास किसान आंदोलन, कोविड महामारी के बीच खराब प्रबंधन, महंगाई, बेरोजगारी जैसे इतने सुनहरे मुद्दे थे कि सत्तारूढ़ सरकार एकदम घुटनों पर रहती। लेकिन इन लोगों ने अपनी मेहनत के बजाय सत्ता-विरोधी लहर पर ज्यादा यकीन किया।

संजय प्रभाकर | बेगूसराय, बिहार

 

बदनाम बस्तियों का सच

बॉलीवुड हमेशा से ही समझ से परे रहा है। पता नहीं कब कौन सी फिल्म चल जाए और पता नहीं कब कौन सा अच्छा विषय अनदेखा ही रह जाए। ‘तवायफी तीर-तुक्के’ (4 अप्रैल) इसी को आगे बढ़ाता है। वाकई तवायफ और उनके कोठे फिल्मकारों का पसंदीदा विषय रहे हैं। शायद इसका कारण यह हो कि इस तरह की फिल्मों में माहौल के नाम पर भद्दे संवाद, कपड़े या दृश्य डालने की छूट मिल जाती है। क्योंकि ज्यादातर लोगों को वहां का माहौल पता नहीं होता है। ऐसे में जो बॉलीवुड की फिल्में दिखा देती हैं उसी को सच मान लिया जाता है। यही वजह है कि बॉलीवुड खुद को ऐसे स्थापित नहीं कर सका कि कोई भी उस पर गर्व कर सके।

विभा चौधरी | श्रीगंगानगर, राजस्थान

 

सतही विषय

‘तवायफी तीर-तुक्के’ (4 अप्रैल) बॉलीवुड की असलियत बयां करती है। नई कहानी सोचना बॉलीवुड के वश की बात नहीं है। ये लोग तो बस पुरानी ही चीजों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने के उस्ताद हैं। वाकई बॉलीवुड इसी के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। यही वजह है कि अब दक्षिण भारतीय फिल्में उत्तर भारत में लोकप्रिय हो रही हैं। दरअसल बॉलीवुड किसी भी विषय के साथ न्याय नहीं कर पाता। वो बस सतही तौर पर विषय को छूता हुआ निकल जाता है।

सुप्रिया राणावत | जयपुर, राजस्थान

 

योगी से सलाह

आउटलुक के नए अंक में उत्तर प्रदेश की राजनीति से केंद्र की राजनीति के प्रभावित होने संबंधित लेख (प्रथम दृष्टि, 21 मार्च) सटीक और तथ्यपरक लगा। रूस-यूक्रेन युद्ध पर अंतरराष्ट्रीय स्तर की गहन छानबीन से संबंधित सजीव चित्रण युक्त रिपोर्ट पाठकों के सामने लाना यही पत्रिका कर सकती है। नजरिया में ‘गूंगी दुनिया की त्रासदी’ में रूस-यूक्रेन युद्ध पर रूस की स्थिति और जिद बखूबी बयां की गई है। ‘चित्रा योग’ बहुत दिलचस्प लगा। पढ़े-लिखे लोग इतने बड़े पद पर बैठ कर हिमालय की कंदराओं में बैठे किसी योगी से सलाह से काम करते हैं, यह आश्चर्य से ज्यादा खेद का विषय है।

सबाहत हुसैन खान | उधमसिंह नगर, उत्तराखंड

 

भूल सुधार

आउटलुक के 4 अप्रैल 2022 के अंक में आवरण कथा, ‘विजय सूत्र और सूत्रधार’ के पृष्ठ क्रमांक 20 में उत्तर प्रदेश (403 सीटें) के चार्ट में 2017 में अपना दल (एस) की सीटों की संख्या नहीं दिखाई गई है, जबकि पार्टी को 9 सीटें मिली थीं। चूक के लिए खेद है।

संपादक

 

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पुरस्कृत पत्र

लकीर के फकीर

बॉलीवुड पर आधारित लेख, ‘तवायफी तीर-तुक्के’ (4 अप्रैल) रोचक लगा। इससे पहले कभी ध्यान नहीं गया था कि फिल्म उद्योग तवायफों को किस तरह से चित्रित करता है। यह सही लिखा है कि बदनाम गली को चित्रित करने का बॉलीवुड का अपना फार्मूला है और वो उससे हटता नहीं है। इस लेख में एक बात रह गई, वो यह कि इन फिल्मों में तवायफें अक्सर मुस्लिम होती हैं। बॉलीवुड का यह एक और स्टीरियोटाइप है। उन कोठों की मालकिनें अक्सर मुस्लिम होंगी, वहां रहने वाली लड़कियां मुस्लिम होंगी। गोया किसी और धर्म की लड़कियां यह काम करती ही न हों। यह थोड़ा तकलीफदेह रहता है। जबकि इन कहानियों में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि लड़कियां किस धर्म से आई हैं। इस सोच को भी बदलना चाहिए।

चांद मोहम्मद | मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश

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