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पत्र संपादक के नाम

भारत भर से आईं पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं

जीत-हार के खेल

21 मार्च के अंक में ‘गद्दी के दावेदार’ बढ़िया आवरण कथा थी। इस बार चुनाव का पूरा परिदृश्य ऐसा था कि लखनऊ मजाक बन कर रह गया। चुनाव आजकल महज जीत-हार का खेल रह गए हैं। इसमें से जनता और उनके मुद्दे नदारद हैं। होना तो यह चाहिए कि राजनीतिक पार्टियां मन से प्रदेश की जनता की परेशानियों को तलाशे और नए तरीके से जनमानस को पढ़े। सभी पार्टियों को फिर से एक बार गहरे अनुभव से गुजरना होगा, समाज सुधार से ही सशक्त राजनीति का मार्ग खुलता है और यह सभी नेताओं को समझना होगा। जनाधार मेहनत और जनता के बीच जाने से ही बनेगा। कांग्रेस को खास कर यह बात समझनी होगी। कुर्सी के लोभ में नेताओं ने जनता से नाता तोड़ लिया है।

हरिश्‍चंद्र पांडे | हल्द्वानी, उत्तराखंड

 

भाषा की मर्यादा

‘किसका लखनऊ’ (21 मार्च 2022) पढ़ कर इतना तो समझ आ ही गया कि मुख्य राजनीतिक दलों ने न देशहित को सर्वोपरि न चुनाव प्रचार में इसकी मर्यादा का ध्यान रखा। जिसके वक्तव्य में देखो भाषा की मर्यादा का उल्लघंन था। हर राजनीतिक दल ने हिंदू-मुस्लिम, दलित, ओबीसी आदि के आधार पर लोगों में भेदभाव पैदा कर, आरोप-प्रत्यारोप लगा कर ही चुनाव लड़ा। निश्चित रूप से इससे समाज में भय तथा अनिश्चितता की स्थिति पैदा होती रही। गैर-जिम्मेदार बयानों द्वारा होने वाले समाज के नुकसान के बारे में कोई नहीं सोचता। इसका खास असर गांवों में पड़ता है। सोशल मीडिल की भटकाव वाली पोस्ट के कारण पहले से ही उत्तर प्रदेश की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी। कोशिश रहनी चाहिए कि चुनावों में उम्मीदवार भाषा की मर्यादा बचाए रखें।

संदीप पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

गुम गए खिलाड़ी

आउटलुक के 21 मार्च के अंक में ‘नए खिलाड़ियों की चांदी’ पढ़ा। नीलामी शब्द पढ़ कर ऐसा लगता है, जैसे किसी सामान की नीलामी हो रही है। दुबई में ऐसी खरीद-फरोख्त होती है, जैसे कभी भरे बाजार में गुलामों की हुआ करती थी। इस नीलामी में उम्र भी एक कारक रही। जिनकी उम्र 20 साल से कुछ ज्यादा है उनकी बोली अधिक लगी, तो जो इस उम्र से ज्यादा थे उनका क्या हुआ यह भी बताना चाहिए था। इस लेख का एक वाक्य है, “हर्षल पटेल, प्रसिद्ध कृष्ण और अवेश खान जैसे भारतीय खिलाड़ी करोड़ों रुपये में बिके।” जब आदमी बिक ही गया तो उसका क्या रह गया। अब यह खेल नहीं तमाशा हो गया है। सालों मेहनत के बाद एक खिलाड़ी बनता है। आइपीएल में खिलाड़ी नहीं मशीनें खेलती हैं।

ऋतु त्रिवेदी | मेरठ, उत्तर प्रदेश

 

कलात्मक खेल का अंत

यह तो पहले से लगता था कि आइपीएल खेल नहीं मनोरंजन का माध्यम भर है। लेकिन 21 मार्च के अंक में ‘नए खिलाड़ियों की चांदी’ पढ़ कर इस पर यकीन हो गया। खरीदने वाले इतने अमीर हैं कि वे खिलाड़ी की कलात्मकता को भी खरीद लेते हैं। आइपीएल में अगले सीजन में ‘बिकना’ है, तो मैदान में एग्रेसिव रहना होगा। रन की बरसात करनी होगी। जाहिर सी बात है जब यह सब करना होगा, तो कलात्मक खेल को पीछे छोड़ना ही पड़ेगा। आइपीएल को इस बात के लिए तो धन्यवाद दिया ही जा सकता है कि उसने भारत के बेहतरीन खिलाड़ियों को ‘नीलाम खिलाड़ियों’ में बदल दिया है। आइपीएल में पैसा लगाने वालों के लिए ये लोग खिलाड़ी नहीं बल्कि लगाई गई पूंजी हैं और हर हाल में वे इसका बेहतर रिटर्न चाहते हैं। क्रिकेट जगत में इस पर कोई हलचल नहीं होती, जब किसी खिलाड़ी के खेल से ज्यादा उसके महंगे या सस्ते बिकने या न बिकने की खबर ज्यादा सुर्खियां पाती है। शायद इसी को पैसे की ताकत कहते हैं।

राजाराम तेवतिया | दिल्ली

 

अच्छे खेल का नुकसान

हर साल आइपीएल सुर्खियां बटोरता है। एक बड़ा दर्शक वर्ग है, जो आइपीएल शुरू होने का इंतजार करत है। एक जमाना था, जब भारत के खिलाड़ी अपनी अलग शैली के लिए जाने जाते थे। भारत के कई खिलाड़ियों ने क्रिकेट की दुनिया में न सिर्फ अपनी धाक जमाई बल्कि खेलने की अपनी शैली से दुनिया को अपना मुरीद बनाया। अब उसी भारत में खिलाड़ियों की नीलामी होती है और पैसा लगाने वाला उम्मीद करता है कि खिलाड़ी उनके लिए पैसों की बरसात करें। जब खिलाड़ियों को दो घंटे खेलने के ही करोड़ों रुपये मिलेंगे, तो फिर वे तेज खेलने की ही कोशिश करेंगे, अच्छा खेलने की नहीं। आइपीएल ने क्रिकेट का बहुत नुकसान किया है।

तेजस्विनी समर्थ | अकोला, महाराष्ट्र

 

कहानी पर जोर हो

आजकल जहां देखो, गंगूबाई पर आधारित इसी नाम से बनी फिल्म की चर्चा है। बॉलीवुड को किसी चरित्र पर कहानी कहना सबसे सुविधाजनक लगता है। इसके लिए वे ‘सिनेमाई छूट’ के नाम पर कुछ भी करते हैं। ‘कमाठीपुरा बेआबरू’ (21 मार्च) बस एक कड़ी है। क्योंकि इससे पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है कि बॉलीवुड ने किसी चरित्र को उठाया और अपने हिसाब से मिर्च-मसाला लगा कर उसे दर्शकों के सामने परोस दिया। लेकिन यह सब करते हुए निर्माता-निर्देशक एक बार भी नहीं सोचते कि उनसे जुड़े लोगों या परिवार पर क्या बीतती है। क्योंकि एक बार फिल्म रिलीज हो जाने के बाद कोई न परिवार की बात सुनता है न ध्यान देना चाहता है कि दरअसल वह व्यक्ति कैसा था जिस पर फिल्म बनाई गई है। किसी व्यक्ति का चरित्र या उसकी कहानी या परिवेश कुछ तो ऐसा रहा होगा जिसकी वजह से निर्माता-निर्देशक फिल्म बनाने के लिए प्रेरित होते हैं। तो फिर ऐसा क्या हो जाता है कि स्क्रीन पर लाने के लिए उसमें तड़का लगाना पड़ता है। उस कहानी में दम था, तभी तो उसे चुना गया। दर्शक अच्छी फिल्में देखना पसंद करता है, जिसमें कहानी ढंग से कही गई हो न कि भव्यता का बखान हो। फिल्म में भी गंगूबाई की असली कहानी बिना भव्यता के कही जाती तो बेहतर होता।

विनय शर्मा | भोपाल, मध्य प्रदेश

 

फिल्मों से ही एतराज

‘कमाठीपुरा बेआबरू’ (21 मार्च) में गंगूबाई की बेटी की जुबानी उनके बारे में जाना। गंगूबाई की कहानी बहुत दिलचस्प है। लेकिन जैसा कि हर बार होता है, किसी व्यक्ति पर फिल्म बनाने के बाद उस फिल्म पर हमेशा तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ के इल्जाम लगते हैं। फिल्म में जो दिखाया गया है, उनकी बेटी बबीता उसे गलत बता रही हैं। लेकिन यह तो सभी जानते हैं कि कमाठीपुरा एक रेडलाइट एरिया है और गंगूबाई यहां राज करती थीं। अब वे कैसे राज करती थीं, यह अलग विषय है। फिल्म तो फिल्म के हिसाब से ही बनती है। गंगूबाई की कहानी ऐसी है कि इसमें निर्देशक को दिलचस्प बनाने के लिए कुछ जोड़ना ही पड़ता, वरना ये वृत्तचित्र की तरह लगती। बबीता का कहना है कि उनकी मां माफिया क्वीन नहीं थीं। तो उन्हें यह ऐतराज तो तभी करना चाहिए था, जब जैदी की किताब में उनका जिक्र माफिया क्वीन की तरह किया गया था। परिवार वाले किताब पर कुछ नहीं कहते, इन्हें फिल्मों से ही परेशानी क्यों होती है।

श्रीजीत सेन | गुवाहाटी, असम

 

एक ही दोषी नहीं

यूक्रेन-रूस युद्ध पर ‘दादागीरी की जंग’ (21 मार्च) पढ़ कर ऐसा लगता है कि रूस ही इस पूरे युद्ध के लिए जिम्मेदार है, जबकि यूक्रेन का भी इस युद्ध में कम योगदान नहीं है। हर बार जो हमला करे वह गलत हो यह जरूरी नहीं है। यूक्रेन और रूस का यह विवाद चार साल से चल रहा है। लंबे समय से चले आ रहे विवाद के लिए यूक्रेन भी उतना ही जिम्मेदार है, जितना रूस। यूक्रेन ने भी इन स्थितियों को सुलझाने का कोई प्रयास नहीं किया। यूक्रेन रूस से ही टूट कर अलग हुआ है, देखा जाए तो रूस उसका मातृ देश है। फिर क्योंकर यूक्रेन अमेरिका के हाथों का खिलौना होना चाहता है। यूक्रेन के राष्ट्रपति को अपनी सामर्थ्य मालूम थी, उसके बावजूद उन्होंने अपने देशवासियों को युद्ध की विभीषिका में झोंका। इस युद्ध के लिए अकेले पुतिन के रवैये को दोष नहीं दिया जा सकता बल्कि जेलेंस्की की जिद और अहमकाना व्यवहार भी इसके लिए जिम्मेदार है।

नेहा शेखावत | बीकानेर, राजस्थान

 

प्रतिभा के धनी

‘डिस्को किंग से बड़े’ (21 मार्च) लेख दिलचस्प लगा। लेख से ही पता चला कि बप्पी लहरी ने इतने अच्छे गानों में संगीत दिया था। उनकी संगीत यात्रा वाकई विविधता से भरी थी। बप्पी लहरी ने भले ही छोटी फिल्मों से अपना करियर शुरू किया लेकिन यह उनकी प्रतिभा ही थी, जो वह प्रकाश मेहरा जैसे दिग्गज निर्माता के साथ काम कर पाए। भले ही उन पर विदेशी धुनों की नकल करने के आरोप लगे लेकिन नमक हलाल और शराबी का संगीत बताता है कि उनमें जन्मजात प्रतिभा थी। ‘पग घुंघरू बांध’ इस बात का उत्कृष्ट उदाहरण है।

प्रेमजित कालानी | इंदौर, मध्य प्रदेश

 

जातिगत समीकरण

देश के विकास के लिए आवश्यक मुद्दे नेपथ्य में चले गए हैं और जातिवाद, क्षेत्रवाद और सांप्रदायिकता रूपी दानव समाज में जहर घोल रहा है। यह दानव योग्य जनप्रतिनिधियों के लिए चुनाव में बाधा बनता है। देश की स्वतंत्रता के लिए सभी जाति और धर्म के लोगों ने कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी, आंदोलन किया और जेल गए। उस वक्त जाति-धर्म नहीं देखा गया तो स्वतंत्र देश में जाति, धर्म एवं संप्रदाय के नाम पर राजनीति क्यों? पता नहीं हमारे समाज से धर्मांधता कब जाएगी, कब हम जातिगत जिजीविषा से उभर कर देश के विकास, आर्थिक विषमता, बेरोजगारी जैसे ज्वलंत मुद्दों के निवारण की ओर अपना ध्यान आकर्षित करने में सक्षम हो सकेंगे? इस पूरे मुद्दे पर आउटलुक के 7 मार्च 2022 के अंक की प्रथम दृष्टि सभी को पढ़ना चाहिए, जो हर मतदाता की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है। इसी अंक में स्वर साम्राज्ञी लता जी पर बहुत अच्छी सामग्री पढ़ने को मिली। उन पर स्तरीय सामग्री ही सच्ची श्रद्धांजलि है। शेल्टर होम से संबंधित खबर शासन, प्रशासन एवं सरकार की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है। भारतीय सिनेमा में रोमांस की बदलती परिभाषा के बारे में जानकारी रोचक लगी।

सबाहत हुसैन खान | उधमसिंहनगर, उत्तराखंड

 

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पुरस्कृत पत्र

गलत रिपोर्टिंग

अब तो पता चल ही गया है कि लखनऊ किसका है, क्या मीडिया आम जनता से गलत रिपोर्टिंग करने, खास पार्टी के खिलाफ माहौल बनाने और दूसरी पार्टी का माहौल बिगाड़ने के लिए माफी मांगेगा। हर दिन मीडिया ने यह दिखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी कि योगी कैसे सत्ता से बाहर हो जाएंगे। यही कारण रहा कि परिणाम रिपोर्टिंग से उलट रहे। यह परिणाम न अप्रत्याशित हैं न चौंकाने वाले। मीडिया एक खास तरह की रिपोर्टिंग करता है और जनता के मन में यह डालने की कोशिश में लगा रहता है कि फलां पार्टी को वोट देने का मतलब अपना वोट खराब करना है। लेकिन अब सोशल मीडिया के जमाने में कुछ भी किसी से छुपा नहीं है, इसलिए लखनऊ पर वही काबिज है, जो इसका असली हकदार है।

सुरेश राणा | मुंबई, महाराष्ट्र

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