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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आईं पाठकों की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रयाएं

विकराल विषमता

15 नवंबर के आउटलुक में तीन पक्षों पर ध्यान गया। पहला, 58 पृष्ठ के अंक में 11 में उत्तर प्रदेश और हरियाणा सरकार के विज्ञापन हैं, जो अलग ही कहानी कह रहे हैं। (सरकार के विज्ञापन कितने सच्चे होते हैं यह अलग विषय है) दूसरा, इसी अंक में 11 पृष्ठ ‘नई उमर के अरबपति’ को भी मिले हैं। तीसरा, इसी अंक में ‘भूख का सच क्या’ को दो पृष्ठ ही मिल पाए। सच तीनों विवरणों में है। सवाल केवल इतना है कि यह किसका सच है और कितना सच है? 130 करोड़ के देश में 1007 अरबपति बताए गए हैं। उनके लिए 11 पृष्ठ जबकि भूख के सच को केवल दो पृष्ठ मिले हैं। हमें क्या दिखाया जा रहा है, इससे अधिक महत्वपूर्ण है कि क्या हम यही देखना चाहते हैं? ‘भूख का सच क्या’ लेख में सही कहा है कि “भूख का मतलब सिर्फ पेट भरना नहीं बल्कि पोषण भी है।” यदि इस कथन को मानदंड माना जाए, तो जिस अनुपात में जिसे जो जगह मिली है उसका अंतर और कई गुना हो जाएगा। लेकिन इस विकराल विषमता वाले अंतर से भी समाज को कोई फर्क नहीं पड़ता, किसी को कोई परेशानी नहीं है। यह भी आज का सच है, भले ही वह बहुत बड़े हिस्से की तकलीफ का कारण क्यों न हो।

श्याम बोहरे | भोपाल, मध्य प्रदेश

 

प्रतिभाशाली युवा

‘नई उमर के अरबपति’ (15 नवंबर) मेरे लिए कम उम्र में पैसा कमाने वाले लड़कों से ज्यादा ज्ञान प्राप्त करने का लेख साबित हुआ। यह जान कर तो अच्छा लगा ही कि भारत में इतनी कम उम्र में बच्चे पैसा कमा रहे हैं, लेकिन उससे भी जरूरी बात यह पता लगी कि शेयरचैट, ओयो रूम्स और रेजरपे भारत के नौजवानों ने तैयार किए हैं। शेयरचैट की सफलता की कहानी पढ़ कर तो तीनों युवाओं को सलाम करने का मन करने लगा। इस लगन से भारत में काम हो रहा है, यह हमें पता ही नहीं था। यह आवरण कथा इस दौर में इसलिए भी जरूरी लगी कि सभी युवा किसी न किसी संघर्ष से ही अपनी मंजिल पा सके। इनमें से ऐसा कोई भी नहीं था जिसके पास पहले से अथाह संपत्ति रही हो। दरअसल ये लोग ही हमारे असली रोल मॉडल हैं और इन्हीं की चर्चा होनी भी चाहिए।

दीपा साहू | रायपुर, छत्तीसगढ़

 

भारत की प्रतिभाएं

आज के दौर में हल्के-फुल्के ढंग से कुछ भी कहने, बोलने से भय लगने लगा है, फिर भी 15 नवंबर के अंक ‘बीसेक में कुबेर’ पढ़ कर लगा कि भारत में अंबानी-अडाणी का हल्ला ज्यादा है! जैसा कि लेख कहता है, अरबपति बनने के लिए उम्र की सीमा साल-दर-साल घटती जा रही है। इसमें शाश्वत नकरानी ने ‘आइआइएफएल वेल्थ हुरून इंडिया रिच लिस्ट 2021’ में सबसे कम उम्र के अरबपति के रूप में अपनी जगह बनाई। 23 साल के नकरानी भारतपे के सह-संस्थापक हैं। आम आदमी को अब भी लगता है कि भारत में प्रतिभा की कोई कद्र नहीं है। लेकिन नए जमाने के युवा न सिर्फ इस मिथक को तोड़ रहे हैं, बल्कि पूरी धमक के साथ आगे बढ़ रहे हैं। मेरे लिए यह आवरण कथा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे पता चलता है कि तरक्की करने के लिए आपको हौसले और प्रयास की जरूरत होती है।

शलभमणि, बरेली | उत्तर प्रदेश

 

मेहनत और अवसर

15 नवंबर की आवरण कथा (‘बीसेक में कुबेर’) पढ़ कर लगा कि मेहनत करने वालों के लिए अवसरों की कमी नहीं होती। हुरून सूची में जगह बनाने वाले युवाओं को बधाई। नए जमाने के युवा, नए जमाने की कंपनियां लेकर आ रहे हैं। इससे दूसरों को भी प्रेरणा मिलेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि डिजिटल युग ने इन उद्यमियों के लिए बहुत सी बातों को आसान बनाया है, फिर भी मेहनत और नए विचार का कोई तोड़ नहीं है। आज के युवा बिजनेस के भी नए विचार लेकर आ रहे हैं। अब 20 साल के बच्चे नहीं 20 साल के अरबपति हैं। यानी अब खेलने के दिनों में बच्चे इनसे प्रेरणा लेकर 19-20 साल में तो अपना व्यापार शुरू करने लगेंगे। यह अच्छा दौर है, जिसका सदुपयोग हर युवा को करना ही चाहिए।

श्रीकांत रायगांवकर | कोल्हापुर, महाराष्ट्र

 

सब कुछ फिल्मी

बॉलीवुड में कोई भी घटना हो जाए, किसी फिल्म की स्क्रिप्ट से कम नहीं होती। हाल ही में हुआ मुंबई क्रूज मामला भी ऐसा ही है। 15 नवंबर के अंक में ‘आरोपों के जाल में एनसीबी’ बिलकुल फिल्मी है। कौन गवाह है, कौन आरोपी, कौन पीड़ित कुछ पता नहीं चल रहा है। सब कुछ संदिग्ध है। एक धड़े के लिए समीर वानखेड़े हीरो हैं, तो दूसरे के लिए विलेन। लेकिन इन सबके बीच यह तो साफ है कि मायानगरी की माया ही अलग है। जनता इस बात के लिए मन्नत मांग रही है कि 23 साल का एक ‘बच्चा’ अपने घर पहुंच जाए। अगर इनमें से आधे लोगों ने भी स्टेन स्वामी के लिए ऐसी तत्परता दिखाई होती तो वे सलाखों के पीछे दम नहीं तोड़ते। लोगों को सिर्फ सितारों के पीछे भागने के बजाय उन लोगों का भी ख्याल रखना चाहिए जो समाज के वंचित वर्ग को ऊपर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं।

विप्लव मजूमदार | मुंबई, महाराष्ट्र

 

पत्रकारिता का पतन

आउटलुक के 15 नवंबर के अंक में ‘निष्पक्ष का पक्ष’ संपादकीय बहुत ईमानदारी से लिखा गया है। पत्रकारिता के बारे में कोई पत्रकार ऐसा खुल कर लिखे, तो लगता है अभी मीडिया के इतने बुरे दिन नहीं आए हैं। अभी आशा की एक किरण बाकी है और मीडिया का यह तमाशा एक न एक दिन ठीक हो जाएगा। अब तो पत्रकारिता से निष्पक्ष होने की उम्मीद करना ही बेमानी है। हर पत्रकार किसी पार्टी की ही भाषा बोलता दिखता है। किसी नेता का ही पक्ष लेता नजर आता है। टीवी चैनल या अखबार पढ़ कर ही पता चल जाता है कि कौन किसके साथ है। कोई खुल कर अपराधी के साथ है, तो कोई अवैध वसूली करने वालों के। सबके अपने-अपने खेमे हैं। काश, पत्रकारिता करने वाला हर व्यक्ति या इस पेशे से जुड़ा व्यक्ति इस बात में अर्थ खोज पाए कि, “किसी पत्रकार के निष्पक्ष होने के अपने फायदे हैं। उस पर किसी एक पक्ष से जुड़ी हर बात पर बेवजह न तो तारीफों के पुल बांधने का दवाब होता है, न ही अनावश्यक आलोचना करने का।” जिस दिन यह पत्रकारों की समझ में आ जाएगा उस दिन समझ लीजिए कि पत्रकारिता का पतन रुक जाएगा।

श्रीनिवास जैन | दिल्ली

 

नादानी भरा निर्णय

‘युवा तुर्क बनाम ओल्ड गार्ड’ (1 नवंबर 2021) पढ़ कर लगा कि कांग्रेस की हालत उस मांझी की तरह है, जो भंवर में फंसता जा रहा है और इससे बाहर आने का कोई रास्ता उसे सूझ नहीं रहा। कांग्रेस को यह अच्छी तरह समझने की जरूरत है कि युवा और अनुभव दोनों का अच्छा मिश्रण ही उसे दोबारा पटरी पर ला सकता है। पंजाब प्रकरण को जिस तरह से हैंडल किया गया वह नादानी भरा निर्णय था। उसके बाद कन्हैया, जिग्नेश जैसे लोगों को पार्टी में शामिल करना खराब रणनीति है। सोनिया गांधी ने निर्णय लेने की जो जिम्मेदारी अपने बेटे-बेटी को सौंपी है उसमें वे अब तक विफल ही रहे हैं। जिस तरह से वरिष्ठ कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल के घर के बाहर नारेबाजी और पथराव हुआ, उससे न केवल कांग्रेस बल्कि गांधी परिवार की भी छवि धूमिल हुई है। गांधी परिवार ने आंखें मूंदकर शुतुरमुर्ग वाली शैली अपना रखी है।

बाल गोविंद | नोएडा, उत्तर प्रदेश

 

आतंक की वापसी

कश्मीर में आतंकवादी हिंसा एक बार फिर उभार पर है। देखा जाए तो अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद इस हिंसा में ज्यादा तेजी आई है। पिछले दिनों दूसरे राज्यों से गए मजदूरों और अन्य लोगों की हत्या किसी साजिश का परिणाम लगती है। दरअसल पाकिस्तान हर हाल में कश्मीर में हिंसा जारी रखना चाहता है। तालिबान पर उसका नियंत्रण होने के चलते वह उनका इस्तेमाल भी कश्मीर में करना चाहता है। 15 नवंबर के अंक में ‘नहीं मिली स्वर्ग में जगह’ लेख पढ़कर लगा कि जिस तरह एक दौर में पंजाब में आतंकवादी गैर-सिखों की हत्या कर रहे थे, उसी तरह का माहौल कश्मीर में भी बनाने की साजिश चल रही है। सरकार को सीमा पार से होने वाली आतंकवादियों की घुसपैठ रोकने के लिए हर मुमकिन कदम उठाना चाहिए। उसे कश्मीर में भी ऐसा माहौल बनाना चाहिए, जिससे दूसरे राज्यों से वहां जाने वालों को भय न लगे। अनुच्छेद 370 खत्म करते समय सरकार ने यही दावा किया था इससे आतंकवाद को खत्म करने में मदद मिलेगी।

श्रीचंद चतुर्वेदी | जामनगर, गुजरात

 

खो गई मनुष्यता

आउटलुक के 1 नवंबर के अंक में ‘दबंगई का क्रूर नजारा’ पढ़ कर दिल दहल गया। इस रिपोर्ट पढ़ कर लगा जैसे हम बर्बर युग में हैं। जब हम विज्ञान और तरक्की की बातें करते हैं, मनुष्यता बहुत पीछे छूट गई है। विज्ञान ने हमें निर्दयी तो नहीं बनाता। तरक्की का मतलब यह तो नहीं कि किसी को गाड़ी के नीचे रौंध ही दिया जाए। दया-माया जैसे शब्दों को तो जैसे हम भूल ही गए हैं। नेता होना क्या इतनी बड़ी बात है कि शांति से अपना विरोध प्रकट कर रहे किसानों को गाड़ी से कुचला जा सके। यह ऐसी घटना नहीं है जिसे आसानी से भुलाया जा सके। इसे महज चुनावी राजनीति से जोड़ कर देखा जाना भी बड़ी भूल होगी। कोई पार्टी इस घटना को लेकर बैकफुट पर है या कोई पार्टी फ्रंटफुट पर खेल रही है, बात वह नहीं है। असल मुद्दा यह है कि गृह राज्य मंत्री जैसे पद को ताकत कहां से मिलती है, उसके परिवार के किसी सदस्य को यह क्यों लगता है कि वोट की राजनीति में उसका पलड़ा भारी है इसलिए वे किसी की हत्या भी कर सकते हैं। इन सवालों के जवाब मिलेंगे, तो ही हो सकता है कि भविष्य में लखीमपुर खीरी जैसी घटनाएं न हों।

चांदमल सोमानी | इंदौर, मध्य प्रदेश

 

विश्लेषण जरूरी

आउटलुक के 1 नवंबर अंक में ‘पिछड़ों पर सबकी नजर’ रिपोर्ट में लिखा है कि भाजपा पिछड़े-दलितों को तरजीह देकर जाति गणित साधने की कोशिश कर रही है। लेकिन पूरी रिपोर्ट में सिर्फ और सिर्फ कहां किस व्यक्ति को क्या विभाग या काम सौंपा गया है इसकी सूची भर है। सूची तो हर जगह उपलब्ध रहती है। अच्छा होता इसमें जातिगत विश्लेषण होता। विश्लेषण से ही दरअसल पता चलता है कि स्थिति क्या करवट ले सकती हैं क्योंकि केवल किसी को मंत्री पद दे देने भर से ही चुनाव नहीं जीता जा सकता यह सभी जानते हैं।

ओपी मलघाय | सिवनी, मध्य प्रदेश

 

पुरस्कृत पत्र

दोहरा मापदंड न हो

‘आरोपों के जाल में एनसीबी’ (15 नवंबर) अजीब ही दास्तान है। जब तक आरोप सिद्ध न हो जाए किसी को दोषी करार नहीं दिया जा सकता। यह व्यवस्था यदि आर्यन खान के लिए है, तो यही नियम समीर वानखेड़े के लिए भी होना चाहिए। इस बार आउटलुक में दो विरोधाभास हैं। एक तरफ ‘बीसेक में कुबेर है’, तो दूसरी ओर मुंबई क्रूज मामला है। आर्यन खान जिस उम्र में जमानत के लिए अपने पिता के नाम और रसूख के सहारे थे उस उम्र में बल्कि उससे भी कम में शाश्वत नकरानी, अंकुश सचदेवा, फरीद एहसान, भानु प्रताप सिंह और रितेश अग्रवाल जैसे युवा भारत की अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने लगे। इनकी उपलब्धि सिर्फ इतनी नहीं है कि ये अरबपतियों की गिनती में हैं। 

मंजू नाग | जम्मू

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