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पत्र संपादक के नाम

भारत भर से आई चिट्ठियां
आउटलुक के अंक पर पाठको की प्रतिक्रियाएं

असंवेदनशीलता की हद                  

आउटलुक के 5 अक्टूबर अंक में संपादकीय, ‘प्रवासी मजदूर वोटबैंक होता!’ पढ़ा। यह लोकतंत्र का क्रूर मजाक है कि सरकार के पास प्रवासी मजदूरों की मौतों का कोई आंकड़ा नहीं है। यह सरकार की असंवेदनशीलता नहीं तो और क्या है। लॉकडाउन की अवधि के दौरान मजदूर जिन परेशानियों से गुजरे उन पर ही अभी बात नहीं हुई है, उस पर से सरकार का यह कहना कि उनके पास इस अवधि में हुई मजदूरों की मौतों का आंकड़ा नहीं है, तो यह दिल तोड़ने वाली बात है। लोकतंत्र कब तक जवाबदेही से कतराता रहेगा।

हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश

 

चुनावी बिसात

बिहार में चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। हर पार्टी जीत के लिए जोर लगा रही है। आउटलुक के 5 अक्टूबर अंक में, ‘हर कोई खेले दलित दांव’ बिहार की स्थिति का सटीक वर्णन है। वाकई भारतीय राजनीति में दलित समुदाय ट्रंप कार्ड बन गया है। पार्टी चाहे तथाकथित सेकुलर हो या फिर राष्ट्रवादी पार्टियां या एआइएमआइएम जैसी पार्टी, सभी के लिए दलित महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं। बिहार में चुनावों के दौरान ही राजनैतिक पार्टियों को दलितों की याद आती है। जब तक राज्य सरकार इनके लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाएगी तब तक दलितों का शोषण होता रहेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि दलितों के विरुद्ध होने वाली दबंगई पर अंकुश लगाया जाना चाहिए।

डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया | रतलाम, मध्य प्रदेश

 

नशे की जकड़न

इस बार आउटलुक की आवरण कथा, (नशे का मायाजाल, 5 अक्टूबर) बहुत अच्छी लगी। आम युवाओं के साथ-साथ फिल्म जगत के भी प्रतिभाशाली युवा इसके शिकार हो रहे हैं। नारकोटिक्स मामलों के विशेषज्ञों की राय से इस मुद्दे को समझने में बहुत मदद मिली। महत्वपूर्ण यह है कि कार्रवाई ठोस नतीजे पर पहुंचे। ऐसा न हो रसूखदार छूट जाएं।

शैलजा भार्गव | मंडी, हिमाचल प्रदेश

 

सुनहरे परदे पर धब्बा

‘रुपहले परदे का स्याह सच’ (5 अक्टूबर) पढ़ कर दिल मायूस हो गया। हम जिन कलाकारों की फिल्में इतने चाव से देखते हैं, जिन अदाकारों को सिर माथे बिठाते हैं, उनकी असलियत कुछ और ही होती है। भारतीय फिल्म उद्योग फिलहाल अपनी फिल्मों, अच्छी पटकथा, संगीत के बजाय नशे को लेकर आरोप-प्रत्यारोप में व्यस्त है, जबकि होना तो यह चाहिए था कि सब एकजुट होकर इसके खिलाफ लड़ते। अब भी वक्त है, बॉलीवुड अपने मतभेद भुला कर सुनहरे परदे पर लगे इस धब्बे को धो डाले।

मुकुंद देशमुख | मुंबई, महाराष्ट्र

 

डराने वाला सच

‘कच्ची उम्र, पक्का नशा’ (5 अक्टूबर) पढ़ कर मन कांप उठा। जिस उम्र में बच्चों को पढ़ने और खेलने के सिवाय दूसरा कोई काम नहीं होना चाहिए, उस उम्र में बच्चे नशे की अंधेरी गलियों में गुम हो रहे हैं। यह सच में डराने वाला है। मनोचिकित्सकों के अनुभवों से पता चला कि बच्चे इस लत को छुपाने के लिए क्या-क्या करते हैं। बच्चों की इस अलग दुनिया को दिखाने के लिए आउटलुक का धन्यवाद।

शुभम तिवारी | इलाहबाद, उत्तर प्रदेश

 

सख्त कदम की जरूरत

आउटलुक की आवरण कथा (5 अक्टूबर) में इस बार नशे की दुनिया के कई आयाम पर बात की गई है। लेकिन सवाल जस का तस है कि इसका समाधान क्या है। किसी राज्य में अवैध खेती हो रही है तो कोई राज्य नशे की लत से जूझ रहा है। बच्चों का नशे को लेकर अलग ही संसार है। बॉलीवुड में इसे लेकर हर दिन नए खुलासे हो रहे हैं। लगता है, भारत में यह बहुत बड़ी समस्या है, जिसे जानबूझकर दरकिनार किया जाता रहा है। बॉलीवुड के बहाने इस पर बात हो रही है। लेकिन यदि कोई नया मुद्दा आ गया तो फिर इस पर कोई बात नहीं करेगा। समाज को बचाना है, तो सरकार को चाहिए कि नशे का कारोबार करने वालों के खिलाफ सख्त कदम उठाए।

रोशन आहूजा | जयपुर, राजस्थान

 

दोषियों को मिले सजा

आउटलुक की आवरण कथा, ‘खामोश! मीडिया चालू आहे...’ (सितंबर अंक) पढ़ कर लगा कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री में सिर्फ और सिर्फ रिया ने सब कुछ किया है। केवल रिया ही है, जो पूरी इंडस्ट्री को ड्रग सप्लाय करती थी। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत दुखद है, लेकिन मीडिया ने जिस तरह उन्हें खलनायक बनाया वह गलत है। यही वजह है कि मीडिया खुद सवालों के कटघरे में है। जैसा व्यवहार टीवी न्यूज चैनल वालों ने किया है, उससे मीडिया की प्रासंगिकता पर भी गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा हुआ है। टीवी न्यूज चैनल अगर इसी तरह अपना व्यवहार रखेगा तो आने वाले समय में इसकी विश्वसनीयता बिलकुल खत्म हो जाएगी। न्यूज चैनलों में आए दिन होने वाली बहसों का स्तर बिलकुल गिर गया है। इन्हें देख कर लगने लगा है कि मीडिया शनैः-शनैः पतन की ओर कदम बढ़ा रहा है।

कुंदन कुमार | वाराणसी, उत्तर प्रदेश

 

मीडिया ट्रायल

आउटलुक में, ‘न पेशी न सुनवाई सीधे फैसला’ (सितंबर अंक) में पुण्य प्रसून वाजपेयी, मनीष तिवारी ने मीडिया की यथास्थिति का सटीक विवेचन किया है। मीडिया का काम समाचार देना है, न्याय देना या आरोप लगाना नहीं। किसी भी घटना का ट्रायल कर जनता के ऊपर अपने निष्कर्ष को थोपना बिलकुल गलत है। टीवी चैनलों पर एक ही बात इतनी बार दिखाई जाती है, कि पता ही नहीं चलता कि घटना क्या है। बस चैनल अपने विचार दिखाता रहता है। इस पर वाकई विचार किया जाना चाहिए कि क्या मीडिया का यह व्यवहार उचित है।

डी राज अरोड़ा | अंबाला, हरियाणा

 

युवाओं को मिले मौका

आउटलुक के सितंबर अंक में, ‘चिट्ठी वाले नहीं, दांव पर पार्टी’ लेख अच्छा लगा। अब कांग्रेस आलाकमान को चाहिए कि वह पार्टी में युवाओं को कमान दे और राहुल-प्रियंका से आगे बढ़े। राहुल कई बार कह चुके हैं कि वे कांग्रेस अध्यक्ष बनना नहीं चाहते हैं। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए किसी गैर-गांधी को अध्यक्ष बनाना चाहिए। यदि पार्टी के इतने पुराने और विश्वस्त नेताओं ने चिट्ठी लिखी है, तो हाइकमान को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। पार्टी अध्यक्ष को सोचना चाहिए कि इन नेताओं को चिट्ठी लिखने की जरूरत क्यों पड़ी। जब तक पार्टी युवाओं को अपना चेहरा नहीं बनाएगी, अनुभवियों को कमान नहीं सौंपेगी कांग्रेस का पटरी पर लौटना मुश्किल है।

कृष्ण कुमार तिवारी | मुंबई, महाराष्ट्र

 

किसानों के साथ धोखा

कृषि सुधार के नाम पर सरकार किसानों से छल कर रही है। आउटलुक के लेख, ‘सुधार बना गले की फांस’ इस मुद्दे को बखूबी उठाता है। मोदी सरकार तीन कृषि कानूनों को कृषि सुधार में अहम कदम बता रही है, तो फिर किसान संगठन और विपक्ष इसके खिलाफ क्यों हैं। सरकार मंडियों को कॉरपोरेट को देना चाहती है। हालांकि कुछ कृषि विशेषज्ञों को लगता है कि यह किसानों के फायदे का सौदा है। लेकिन इससे मंडी में काम करने वाले भी प्रभावित होंगे, यह भी सोचना जरूरी है।

श्रीगोपाल नारसन | रुड़की, उत्तराखंड

 

पुरस्कृत पत्र

नशे के सौदागर

आउटलुक का हर अंक तत्कालीन विषयों को बहुत ही गंभीरता और विशेषज्ञता के साथ उठाता है। पिछला अंक (5 अक्टूबर) नशे की दुनिया पर केंद्रित था। नशे के सौदागरों ने हर पीढ़ी का बहुत नुकसान किया है। आवरण कथा में कम उम्र के बच्चों में नशे की लत के बारे में जान कर मन बहुत व्यथित हुआ। क्या वजह है कि सरकार इस पर रोक नहीं लगा पा रही है। यह अंक पिछले अंक की आवरण कथा की ही कड़ी कहा जा सकता है। यदि सुशांत सिंह राजपूत की ‘आत्महत्या’ और रिया चक्रवर्ती के चैट का खुलासा न हुआ होता तो मायानगरी अभी भी उसी नशे की गर्त में जा रही होती। हिंदी सिनेमा उद्योग बहुत बड़ा और संभावनाशील है। इसे हर उपाय कर बचाना ही चाहिए।

कविता माखीजा | मेरठ, उत्तर प्रदेश

 

इतिहास का आइना

मेरे प्रिय जॉयस

....तुम्हारे इस साहित्यिक प्रयोग पर। यह गौरतलब है, क्योंकि तुम बेहद महत्वपूर्ण व्यक्ति हो और तुम अपनी बेहद पेचीदी संरचनाओं में ‌अभिव्यक्ति की ताकतवर प्रतिभा के धनी हो, जो हर बंधन को पार कर गई है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह कहीं ले जाती है। तुमने आम आदमी की ओर, उनकी बुनियादी जरूरतों और उनके सीमित समय तथा बुद्धि की ओर पीठ कर ली है और अपने विस्तार में आगे बढ़ गए हो। नतीजा क्या है? एक बड़ी-सी पहेली। तुम्हारी आखिरी दो रचनाएं तो बेहद दिलचस्प और चकित करने वाली हैं लेकिन शायद ही उन्हें कोई पढ़ पाएगा। मुझे निहायत ही आम पाठक जैसा समझो। क्या मुझे यह रचना पढ़कर सुख मिलेगा? नहीं। क्या मुझे ऐसा लगेगा कि मुझे कुछ नया और ज्ञानवर्द्धक मिल रहा है, जैसा कि पावलोव की सशर्त प्रतिक्रियाओं पर बेहद खराब ढंग से लिखी किताब एनरेप का त्रासद अनुवाद पढ़ने से मिलता है? नहीं। तो, मैं पूछता हूं, यह कौन फालतू-सा जॉयस है जो मेरे उन कुछ हजार घंटों में से रतजगे की मांग करता है, जो मैं उसकी फंतासियों और मौज की उड़ान पर वाहवाह करने के खतिर अभी भी संजोए रखना चाहता हूं? यह मेरा नजरिया है। शायद तुम सही हो और मैं गलत। तुम्हारा काम एक असाधारण प्रयोग जैसा है और मैं इसे किसी अनर्थकारी या विध्वंसक दखलंदाजी से बचाए रखने के लिए कुछ भी करूंगा। उसके अपने आस्‍थावान और अनुयायी हैं। उन्हें आनंद लेने दो। मेरे लिए तो यह अंधा मोड़ है। जॉयस तुमको मेरी हार्दिक शुभकामनाएं। तुम जितना मेरे झंडे तले आ सकते हो, वैसा मैं तुम्हारे झंडे के लिए नहीं कर सकता। लेकिन दुनिया बहुत बड़ी है और यहां हम दोनों के लिए गलत-सलत करने की काफी जगह है।

तुम्हारा

एच.जी. वेल्स

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