Advertisement

संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आईं पाठकों की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रयाएं

सरकार की शह

आउटलुक की आवरण कथा, “भगोड़े बेफिक्र, बैंक बेहाल” (26 जुलाई) देखते ही उक्ति याद आई, “जब तक जियो सुख से जियो, कर्जा लेकर घी पियो।” बड़े उद्योगपति अब यही कर रहे हैं। हमारे बैंक अपने वास्तविक उद्देश्यों से किनारा कर चुके हैं और बड़े औद्योगिक घरानों के चाकर बन रहे हैं। इस रिपोर्ट में जो बेबाक विश्लेषण है उसे पढ़ने के बाद लगा पुराने समय के वो सेठ-साहूकार ही अच्छे थे जो हर किसी से समान कसौटी पर लेन-देन करते थे। लेकिन यह सब सरकार की शह पर ही होता है कि कोई कर्ज ले और देश से भाग जाए। देश की ऐसी दुर्दशा देखकर मन भावुक हो जाता है। सोहम शाह के साथ सवाल-जवाब अच्छे लगे। शहरनामा में चौखुटिया घूमते हुए चीड़ देवदार वाले जंगलों की महक आती रही।

डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

भागो, मौज करो

आउटलुक ने भगोड़ों की दुनिया के बारे में सरल शब्दों में विस्तार से समझाया। आवरण कथा (26 जुलाई) में बैंकों के इस के गड़बड़झाले को पढ़ कर लगा कि आम आदमी तो हर जगह पिसता ही रह जाता है और बड़े कारोबारी मौज करते हैं। कितनी विडंबना है कि आम आदमी मेहनत के बाद भी जो सुविधा हासिल नहीं कर पाता, ये लोग सरकार को करोड़ों का चूना लगा कर हासिल कर लेते हैं। भागने वालों की इतनी बड़ी सूची है इसका मतलब है कि बैंकिंग प्रणाली मजबूत नहीं है। सरकार को चाहिए था कि वह पहले मामले के बाद ही सख्ती करती। मेहुल चोकसी, नीरव मोदी, विजय माल्या, ललित मोदी जैसे इतने लोग यदि भागे हैं, तो इसका मतलब है हर जगह मिलीभगत है। उस पर भी सरकार इन भगोड़ों को लाने की कोशिश करने का नाटक कर रही है। सरकार चाहे तो क्या नहीं हो सकता। वह भी नहीं चाहती कि इन्हें भारत लाया जाए, क्योंकि इससे बहुत से लोग फंस जाएंगे। अभी तो और न जाने कितने भागेंगे और मौज करेंगे।

सुनील कुमार सक्सेना | भोपाल, मध्य प्रदेश

 

बैंकिंग सेक्टर की लापरवाही

आउटलुक की आवरण कथा, “भगोड़ों की मौज, भंवर में फंसे बैंक” (26 जुलाई) में बिल्कुल ठीक लिखा है कि राजनैतिक नेतृत्व और बैंकिंग सेक्टर की लापरवाही या कहें गलती की वजह से आज भी बैंक घाटे में हैं। आखिर क्या कारण है कि पुरानी घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया गया। इस बात की गहराई से पड़ताल होनी चाहिए। 1992 में हर्षद मेहता के बाद 2001 में फिर केतन पारेख घोटाला करता है और 2016 में विजय माल्या देश छोड़कर ही भाग जाता है, तो गलती किसकी है। आखिर इसका दोषी कौन है। हर सरकार आती है और सिर्फ वोट कबाड़ने की जुगत करती है। पढ़ कर ही मन गुस्से से भर गया कि पिछले 30 साल से यही गलतियां दोहराई जा रही हैं। राजनीतिक दखलंदाजी के बिना तो खैर यह सब संभव ही नहीं है। और यदि पूछा जाए कि इसमें शामिल कितने लोगों को सजा हुई है, तो नतीजा सिफर ही आएगा। भारत में केवल गिरफ्तारी होती है और फिर लोग जमानत पर छूट कर पूरी जिंदगी ऐश से बिताते हैं। इस देश का तो भगवान ही मालिक है।

राजाराम जाटव | गुड़गांव, हरियाणा

 

ध्वस्त होती अर्थव्यवस्था

26 जुलाई की आवरण कथा, “भगोड़ों की मौज, भंवर में फंसे बैंक”, पढ़ कर यकीन करना मुश्किल है कि कोई तंत्र इतना कमजोर हो सकता है। बैंकिंग सेक्टर के कर्मचारी मिलीभगत कर देश को लाखों करोड़ रुपये का चूना लगा देते हैं, सरकार की कान पर जूं तक नहीं रेंगती। सरकार को करना भी क्या है, अर्थव्यवस्था अभी गड्ढे में है, उनकी बला से यह पूरी तरह ध्वस्त हो जाए। क्या फर्क पड़ता है। इन लोगों को बस चुनाव जीतने के हथकंडे चाहिए होते हैं। आम आदमी को बस यही लगता है कि मेहुल चोकसी या विजय माल्या एक दिन भारत आएंगे और सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन ये नाकारा सिस्टम भी जानता है कि कोई कहीं से नहीं आने वाला और यह गोरखधंधा ऐसे ही चलता रहेगा। सरकार खुद जब तक यह सब रोकना नहीं चाहेगी, कुछ नहीं रुकेगा।

कोमल जी.वी. | हैदराबाद, तेलंगाना

 

सजा हो सख्त

आउटलुक के 26 जुलाई अंक में, “बट्टे खाते का खेल” पढ़ कर दिमाग ही चकरा गया। इस लेख ने बहुत ज्ञानवर्धन किया। क्योंकि इतनी बारीकी से किसी ने भी इस विषय पर अभी तक लिखा नहीं था। यह बहुत महत्वपूर्ण लेख है, जिससे पता चलता है कि कोई तंत्र भष्टाचार पर उतारू हो ही जाए, तो बेईमान लोग क्या नहीं कर सकते हैं। यह पढ़ कर और आश्चर्य हुआ कि कैसे पंजाब नेशनल बैंक सात साल तक एलओयू देता रहा और ऊपर बैठे अधिकारियों में किसी को उसकी भनक तक नहीं लगी। भारत में अब भी वित्तीय घोटाले को लोग बहुत हल्के में लेते हैं। कायदे से तो होना यह चाहिए कि पीएनबी के उन डिप्टी मैनेजर गोकुलनाथ शेट्टी महोदय को सार्वजनिक रूप से फांसी दे देनी चाहिए। पढ़ने पर यह भले ही बहुत कठोर कदम लगे लेकिन वित्तीय घोटाले के अपराधियों से ऐसे ही निपटा जाना चाहिए। तभी लोगों को सबक मिलेगा।

सुरभि पंत | दिल्ली

 

खुश करने का तरीका

आउटलुक  26 जुलाई के अंक में “संकट टालने को कुनबा किया बड़ा” पढ़ा। कोरोना, किसान आंदोलन, बढ़ती महंगाई जैसे कारणों से मोदी सरकार बैकफुट पर है। शिवसेना और अकाली दल जैसे पुराने सहयोगी साथ छोड़ चुके हैं। भाजपा ने जिस तरह से बिहार में नीतीश के खिलाफ चिराग का और फिर नीतीश के साथ मिल कर चिराग के खिलाफ पशुपति कुमार पारस का इस्तेमाल किया उससे बचे-खुचे सहयोगियों में अविश्वास गहरा हो गया है। सत्ता की मलाई के लिए दलबदल करने वाले भी बेचैन थे। ऐसे हालात में सबको खुश करने का सबसे आसान रास्ता मंत्रिमंडल का विस्तार ही था। मंत्रिमंडल पुनर्गठन में बारह मंत्रियों का पत्ता कटा। मगर मजबूरी के कारण बनाए गए मंत्री भविष्य में कैसा प्रदर्शन करेंगे यह देखने वाली बात होगी। ऐसे मंत्री प्रदर्शन के कारण नहीं बल्कि खराब राजीनीतिक समीकरणों के कारण बाहर होंगे। ऐसे में रेवड़ियां बांट कर बना मंत्रिमंडल कितना प्रभावी रहेगा ये तो वक्त ही बताएगा।

बृजेश माथुर | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

 

अभिनय के कोहिनूर

26 जुलाई के अंक में दिलीप कुमार साहब के बारे में जावेद अख्तर ने बहुत सुंदर लिखा है। दिलीप साहब ऐसे अभिनेता थे, जिन पर लिखने के लिए भी बहुत समझ और गंभीरता चाहिए। इस लेख के शीर्षक ने ही जैसे उनके बारे में सब कुछ कह दिया। “जब तक एक्टिंग है, दिलीप साहब जिंदा रहेंगे” इस लेख के लिए एकदम सटीक शीर्षक था। वे वाकई में अभिनय के कोहिनूर थे। इस लेख से ही पता चला कि वे मर्लिन ब्रांडो से भी पहले से मेथड एक्टिंग कर रहे थे। लेकिन यह विडंबना ही है कि भारतीय कलाकारों के खाते में पश्चिमी कलाकारों की तरह तारीफ नहीं आती। वे सिर्फ अदाकारी में नहीं व्यक्तित्व में भी बहुत बड़े थे। उनके बारे में कभी कोई गलत खबर नहीं आई। इसी से पता चलता है कि वे कितने संजीदा थे। नए कलाकारों को चाहिए कि वे उनकी अभिनय की बारिकियां तो पकड़े हीं, लेकिन उनके व्यक्तित्व की गरिमा को भी आत्मसात करें।

नीलिमा चौहान | भदोही, उत्तर प्रदेश

 

लापरवाही और तीसरी लहर

कोरोना ने जब से दुनिया को अपनी जद में लिया है, तब से हर वैज्ञानिक और डॉक्टर ने एक-दूसरे से दूरी बनाने की सलाह दी है। टीका आने के बावजूद भी चेहरे पर मास्क पहनने और आपस में उचित दूरी बनाए रखने की सलाह हर दिन दी जा रही है लेकिन अनलॉक के बाद लोग फिर लापरवाह हो गए हैं। मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग को भूल कर लोग मौज-मस्ती में जुट गए हैं यह चिंताजनक है। अगर कोरोना के प्रोटोकॉल नहीं माने गए, तो इस गलती के परिणाम दूरगामी हो सकते हैं। महामारी की तीसरी लहर रोकना हमारे हाथ में ही है। वरना हमारी लापरवाही से ही तीसरी लहर आएगी।

प्रदीप कुमार दुबे | देवास, मध्य प्रदेश

 

महंगाई की मार

महंगाई की मार से लोगों का हाल बेहाल है। जिम्मेदारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है। आउटलुक के 12 जुलाई के अंक में महंगाई पर तफसील से बात की गई है। “महंगाई और महामारी, दोधारी मुसीबत” को हर नेता को पढ़ना चाहिए। लेकिन सभी राजनीतिक दल और नेता अपनी-अपनी राजनीतिक गोटियां आने वाले विधानसभा चुनाव के हिसाब से बिठा रहे हैं। कोई ठोस विपक्ष भी नहीं जो जनता की आवाज उठाए। क्या अब जनता को उनके हाल पर छोड़ दिया जाना चाहिए। जब चुनाव आएगा तब जनता कैसे अपना दर्द बयां करती है, यह चुनाव के परिणाम बताएंगे। अब तो यही कहा जा सकता है कि आप हम सब के मालिक हैं और हमें ईश्वर इतनी शक्ति दे कि महंगाई की मार झेलते रहें, जैसे-तैसे जीवन जीते रहें।

हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश

 

अलग है पत्रिका

आउटलुक का 12 जुलाई अंक पढ़ कर लगा कि पत्रिका वाकई दूसरी पत्रिकाओं से अलग है क्योंकि इसमें भिन्न-भिन्न सामायिक विषयों को उठाया जाता है। महंगाई के मुद्दे पर आवरण कथा बहुत अच्छी लगी। महंगाई और उसके बढ़ने पर बहुत अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया गया था। कुंभ में कोविड फर्जीवाड़े पर लेख प्रभावी लगा। कोरोना काल में शिक्षा से जुड़ी कई चुनौतियों को पढ़ कर लगा कि भारत में वैसे भी शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा नहीं है और अब यह स्थिति भारत को और पीछे धकेल देगी। सरकार को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। उत्तराखंड के पूर्व सीएम तीरथ सिंह रावत ने इंटरव्यू में इतनी बड़ी-बड़ी बातें कीं और उनकी कुर्सी ही छिन गई। उन्हें भी अनुमान नहीं रहा होगा कि किसी भी पत्रिका में दिया गया यह उनका आखिरी इंटरव्यू साबित होगा। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अभी भले ही लग रहा हो कि प्रभावी हैं लेकिन जल्द ही उनका प्रभाव भी खत्म होगा। अब कितने दिन वो मुख्यमंत्री रहेंगे यह देखना होगा। क्योंकि लगता नहीं कि वे ज्यादा दिन इस पद पर टिकेंगे। 

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

 

 

पुरस्कृत पत्र

जंग लगा लोकतंत्र

स्टेन स्वामी के निधन के समाचार ने झकझोर दिया। हमारा लोकतंत्र इतना कमजोर है कि एक वृद्ध से डर जाए? इसी अंक में ऑक्सीजन की कमी से असमय काल के गाल में समा गए लोगों के परिजनों की दुख भरी गाथा भी थी। जंग लगे इस लोकतंत्र में इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि लोगों की जिंदगी के लिए लड़ता? जनता आखिर वोट क्यों देती है, इसलिए कि वक्त आने पर सरकार उनकी मदद करे। आरएसएस ने भी वोट की खातिर अपनी जबान बदल ही ली। सरकार का कहना है कि इतनी बड़ी आबादी के लिए व्यवस्था करना मुमकिन नहीं। पर वह करोड़ों का घोटाला करने वालों को भागने का मौका दे सकती है। इन पैसों से ऐसी सुविधाएं नहीं जुटाई जा सकतीं, जो लोगों की जिंदगी बचा सके?

मोहन नागर | श्रीगंगानगर, राजस्थान

Advertisement
Advertisement
Advertisement