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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आईं पाठकों की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रयाएं

जनप्रतिनिधि सुध लें

“महंगाई और महामारी दोधारी मुसीबत” (12 जुलाई) के अंक में करोड़ों के हाथ आई गरीबी बहुत सटीक रिपोर्ट और आंखें खोलने वाली है। दरअसल, जनता की परेशानी, दुख-दर्द को हल्के में लिया जा रहा है। काश यह दुख-दर्द जन प्रतिनिधियों तक भी पहुंचे। “बॉलीवुड की रिया से दूरी” बहुत बेबाक विश्लेषण है। यह रूपहला पर्दा है ही ऐसा जहां किसी की छवि को उसके वर्तमान अर्थ संदर्भ, परिस्थिति, आशय और अंदाज पर जबरदस्ती फिट कर दिया जाता है या मिटा दिया जाता है। रिया एक कलाकार हैं, बेहतर होता निजी मामले को नजरअंदाज कर उनके काम पर ध्यान दिया जाता। बॉलीवुड लोगों को चुन-चुन कर उनकी हैसियत के हिसाब से व्यवहार करता है। शहरनामा कानपुर ने अद्भुत दोस्त याद दिला दिए। हम लोग “कनपुरिये” का प्रयोग अद्वितीय और दुर्लभ जानकारी के लिए करते थे। इस पढ़ कर बहुत आनंद आया।

संदीप पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

महंगाई मार डालेगी

आउटलुक की 12 जुलाई की आवरण कथा बहुत मौके पर आई है। कोरोना ने जिंदगी को तबाह कर दिया है। मजदूरी का ग्राफ नीचे आ गया है, काम-धंधा चौपट है। जिंदगी पटरी पर आने में समय लगेगा लेकिन लगता नहीं कि महंगाई ऐसा करने देगी। क्योंकि जिस रफ्तार से लोगों का रोजगार जा रहा है, महंगाई भी उसी रफ्तार से बढ़ती जा रही है। ऐसा क्या है, जो महंगा नहीं हुआ। अनाज से लेकर पेट्रोल तक। सब्जियों से लेकर कपड़ों तक। हर जगह जैसे कीमतों में आग लगी हुई है। पेट्रोल-डीजल की कीमतें तो जिस रफ्तार से बढ़ रही हैं, लगता है, सड़कों पर गाड़ियां दिखना ही बंद हो जाएंगी। इस विकट परिस्थिति में कम से कम खाने-पीने की चीजें तो सस्ती होनी ही चाहिए थीं। सरकार की जिम्मेदारी है कि आम जनता पर पड़ने वाले बोझ को कम करे। वरना कोरोना से बच गए तो महंगाई यकीनन मार डालेगी।

जफर अहमद | मधेपुरा, बिहार

 

कुर्सी बचाने की जुगत

उत्तराखंड पर हमेशा सियासी संकट छाया रहता है। इससे तो बेहतर था कि यह उत्तर प्रदेश से अलग ही न होता। अलग राज्य होने के बाद भी यहां विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ। हर मुख्यमंत्री अपने हिसाब से काम करता है। कुंभ जैसे बड़े आयोजन में (कुंभ कोविड फर्जीवाड़ा, 12 जुलाई) भी सरकार का रवैया इतना खराब रहा कि पढ़ कर हंसी आती है। जब मुख्यमंत्री अपनी कुर्सी बचाने में ही लगे रहेंगे, तो जनता पर क्या ध्यान देंगे। इतने बड़े पैमाने पर लोगों की कोविड निगेटिव रिपोर्ट जारी कर दी गई और किसी को भनक नहीं लगी, यह बात गले नहीं उतरती। कोविड की दूसरी लहर ने जो तबाही मचाई वह किसी से छुपी नहीं है। जाहिर सी बात है भारत में और भी जगहों पर ऐसी निगेटिव रिपोर्ट जारी हो रही होंगी। इसके बाद हर बात का ठीकरा केंद्र पर फोड़ दिया जाता है कि सरकार समुचित इलाज मुहैया नहीं करा रही। हरिद्वार में जिस कंपनी ने ठेका लिया उसका पता ही फर्जी निकला, गलत नंबरों से फर्जी रिपोर्ट बनाई गईं। तो वहां अफसर लोग क्या सो रहे थे? लेकिन अंत में होगा वही, मामले की जांच होती रहेगी और महीने छह महीने में बदलने वाले मुख्यमंत्री और अफसर मौज करते रहेंगे।

रिद्धि जुगरान | देहरादून, उत्तराखंड

 

किसी एक को दोष क्यों

आउटलुक के 12 जुलाई के अंक में, “कौन भेदिया बंगला लूटल रे...” पढ़ कर यही समझ आया कि जो पकड़ा जाए वही चोर। यानी जिसकी चर्चा हो जाए वह बदनाम हो जाता है, वरना करते सब एक जैसा ही हैं। इस लेख को पढ़ने से पहले कभी लोजपा के बारे में इतनी दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन लोजपा के दो टुकड़े हो जाने और इतनी चर्चा के बाद यह लेख पढ़ा तो समझ आया कि यहां भी वही वर्चस्व की लड़ाई और परिवार की अहमियत का मामला है। जब हर पार्टी यही कर रही है, तो फिर दोष सिर्फ कांग्रेस पार्टी पर क्यों आता है कि वहां परिवारवाद है। ममता बनर्जी, मायावती सभी अपने-अपने रिश्तेदारों को ही आगे बढ़ा रही हैं। ऐसे में यदि सोनिया गांधी अपने बेटे को आगे बढ़ाती हैं, तो क्या गलत करती हैं। चिराग पासवान के चाचा पारस चाहते थे कि वे सर्वेसर्वा रहें। लेकिन आखिरकार वर्चस्व की लड़ाई के कारण लोजपा दो टुकड़ों में टूट गई। लेख में लिखा भी है कि पासवान ने हमेशा पार्टी से ज्यादा परिवार को अहमियत दी। यही वजह है कि वो चिराग को राजनीति नहीं सिखा पाए। राजनीति करना अलग बात है। चिराग को चाहिए था कि वे चाचा के साथ रहते और पार्टी की बागडोर उन्हें सौंप देते। राजनैतिक महत्वाकांक्षा होना अच्छी बात है, लेकिन इसके लिए हाशिये पर चले जाना बिलकुल अच्छा नहीं है।

वकार खान | बुलंदशहर, उप्र

 

बेरोजगारों की निराशा

पिछले चार सौ दिन देश पर कहर बन कर बरसे हैं। कमाने वाले हाथ मांगने को मजबूर हैं, पर मांगें कैसे और किससे? सभी बेबस हैं। कोई कुछ भी कहे पर धन ही जीवन को चलाने की कुंजी है। “महंगाई और महामारी” (आवरण कथा, 12 जुलाई) में मेहनतकश, नौकरीपेशा लोगों की मजबूरी का सजीव चित्रण है। बेरोजगारी ने किस तरह मेहनत करने वालों को बिना आवाज की लाठी मारी है यह देखना हो, तो पूरे उत्तर भारत को देख लीजिए। सरकारी उदासीनता ने रोजगार के अवसर और लघु उद्योगों को आरंभ करने की सरलता को हाशिए पर धकेल कर युवा वर्ग का मजाक उड़ाया है। युवा बेरोजगारों के पास कोई विकल्प नहीं है। सब जरूरी बातें सरकार की ‘महानता’ की यात्रा और आत्ममुग्धता की चक्की में पिस गई हैं। निराश होते बेरोजगारों के पास आश्वासन के सिवाय कुछ नहीं है। भारत की तात्कालिक राजनीति और नीति निर्माण में युवा वर्ग से मशविरा लिया जाता तो कुछ बात बनती।

डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

तैयारी हो पूरी

28 जून की आवरण कथा, 'चुनौती कितनी दमदार' पढ़ने में तो अच्छी लगती है लेकिन यह दूर की कौड़ी है। विपक्ष को एकजुट करना टेढ़ी खीर है। विपक्ष को एकजुट करने का सारा दारोमदार सिर्फ ममता पर है। ममता बनर्जी के तेवर भी हैं और अनुभव भी। लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के बाद ही विपक्ष की तस्वीर साफ हो पाएगी। क्योंकि यहां अगली सरकार कौन बना रहा है, लोकसभा की रणनीति बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करेगी। वैसे भी राजनीति में पल-पल दृश्य बदल जाता है। जनता क्या फैसला लेगी यह मतदान के एक-दो महीने पहले ही तय होता है। लेकिन यह सच है कि तैयारी हर दल को करते रहना चाहिए। यदि विपक्ष संगठित होकर काम करे और अभी से कमर कस ले तो यकीनन अगले लोकसभा चुनाव में मोदी को घर लौटना पड़ेगा। यह विपक्ष की बड़ी जीत होगी, जो इतिहास में दर्ज होगी।

शाहिद सईद | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

 

सशक्त विपक्ष की दरकार

आउटलुक की आवरण कथा (चुनौती कितनी दमदार, 28 जून) विपक्ष से आस बंधाती है। केंद्र में बैठी भाजपा सरकार की मनमानियां जगजाहिर हैं। न कोई सुन रहा है, न कोई सुनने वाला है। आम आदमी बदहाल है। ऐसे में देश में सशक्त विपक्ष की दरकार है, जो भाजपा को दमदार चुनौती दे सके। लेकिन जनता का दुर्भाग्य है कि विपक्ष खंड-खंड बंटा हुआ है। सब के सब महत्वकांक्षी हैं, जो प्रधानमंत्री पद के मंसूबे पाले हुए हैं। कुछ पाने के लिए कुछ त्याग करना पड़े तो जरूर करना चाहिए। क्योंकि आम जनता को विपक्षी दलों से ही आशा है। जिन्होंने अच्छे दिन के वादे किए थे, वे अच्छे दिन तो नहीं लाए लेकिन महंगाई, बेरोजगारी, निजीकरण, नोटबंदी, जीएसटी जैसे दलदल में जरूर फंसा दिया। जनता चाहती है कि ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, अरविंद केजरीवाल जैसे नेता आगे आएं और विपक्ष एकजुट होकर फासीवादी ताकतों का सामना करे। जाहिर सी बात है यह आसान काम नहीं, लेकिन यदि ये नेता जनता को वाकई अच्छे दिन दिखाना चाहते हैं, तो उन्हें काम करना ही चाहिए। आखिर जनता ने उनसे बहुत उम्मीदें लगा रखी हैं।

हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश

 

पंजाब में सियासी संकट

भारत की विडंबना ही है कि कोई भी राज्य राजनैतिक रूप से संतुष्ट नहीं है। हर राज्य में असंतुष्टों की पूरी खेप रहती है, जो समय आते ही शिकार पर निकल पड़ती है। 28 जून के अंक में, “कलह में घिरे कैप्टन” ऐसा ही लेख है। जो सिद्धू पहले भाजपा के गुण गाते नहीं थकते थे वो कांग्रेस में आ गए।  कांग्रेस में आने के बाद वे यहां भी बगावत ही कर रहे हैं। नवजोत सिंह सिद्धू को यदि लग रहा है कि वे अगले मुख्यमंत्री बन जाएंगे तो यह गलत है। कांग्रेस आलाकमान को ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए क्योंकि लोकप्रिय चेहरा होना एक बात है और सियासत चलाना दूसरी बात। सिद्धू अच्छे क्रिकेटर हो सकते हैं लेकिन सियासी पिच पर पैर जमाना इतना आसान नहीं होता। और फिर यह नहीं भूलना चाहिए कि सिद्धू एक बार भाजपा को धोखा दे चुके हैं। तो क्या भरोसा कि वो कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं करेंगे। सिद्धू को आमजन पहचानता जरूर है लेकिन कांग्रेस आलाकमान को चाहिए कि वह पंजाब में आंतरिक कलह रोके, ताकि सरकार अस्थिर न हो।

हरजिंदर मान | मोगा, पंजाब

 

कहां है असली भारत

आउटलुक के 14 जून के अंक में “अपने हाल पर गांव” पढ़ कर लगा कि भारत में सरकारें ग्रामीण अंचलों की ओर ध्यान ही नहीं देती है। प्रथमदृष्टि में ग्रामीण अंचल की स्थिति को बड़े सटीक रूप में दर्शाया गया है। अस्पताल और उसका स्टाफ, दवाइयां, वेंटीलेशन, ऑक्सीजन और सफाई कर्मचारियों के बारे में पढ़ कर बहुत दुख हुआ। बस यह कहने में ही अच्छा लगता है कि असली भारत गांवों में रहता है। यदि ऐसा है, तो फिर पूछा जाना चाहिए कि गांव इतने बदहाल क्यों हैं। महामारी के दौर में तो गांवों को सबसे पहले चिकित्सा सुविधाएं देनी चाहिए थीं। शहरों के साथ गांवों पर भी बराबर ध्यान दिया जाना चाहिए।

डॉ. जसवंत सिंह जनमेजय | नई दिल्ली

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पुरस्कृत पत्र

महामारी से कम नहीं

महामारी के बाद महंगाई ने वाकई लोगों का चैन छीन लिया है। मध्य या निम्न वर्गीय परिवार कहां-कहां कटौती करे। “करोड़ों के हाथ आई गरीबी” (आवरण कथा, 12 जुलाई) में छोटा काम करने वालों की आपबीती पढ़ मन खराब हो गया। क्या यही है नया भारत जहां किसी को ब्यूटी पार्लर बंद करना पड़ रहा है तो कोई वेल्डिंग जैसे काम में भी नुकसान में आ गया है। फिर वे कौन हैं, जो दिन-रात तरक्की कर रहे हैं। बड़े बिजनेसमैन पर तो कोविड का कोई असर नहीं पड़ा, मजदूर, सब्जी-रेहड़ी-दिहाड़ी वाले बेबस हैं। वे लोग कोराना से तो बच गए पर महंगाई से कैसे बचेंगे? केंद्र सरकार बस चुनावों में व्यस्त है। अब अगले साल उत्तर प्रदेश चुनाव हैं। ऐसे में किसे पड़ी है कि इन गरीबों को नजर भर देख भी ले।

मीना अय्यर | नई दिल्ली

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