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देश को बचाना प्राथमिकता

पत्र
देश को बचाना प्राथमिकता

आउटलुक के 13 जनवरी 2020 के अंक में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं, आंदोलनों, विद्रोहों और उथल-पुथल पर अच्छी सामग्री है। देश में जो बवंडर मचा है और देश-दुनिया में जो बदलाव आ रहे हैं वे विचित्र और अभूतपूर्व हैं। केंद्र सरकार ने चुनावी राजनीति की वैतरणी पार करने और अपने पांव पसारने के लिए रातो-रात ऐसे फैसले लिए जो जनता को सुकून की जिंदगी देने के बजाय उनकी रातों की नींद और दिन के चैन को छीन रहे हैं। जान-बूझकर राष्ट्रीय नागरिकता कानून और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर जैसे झमेलों को छेड़ा गया है, जो खुद सरकार के गले की हड्डी बन गए हैं। राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर में कोई बुराई नहीं है लेकिन नागरिकता कानून पर हड़बड़ी क्यों? यह अत्यंत पेचीदा मामला है। इसलिए पहले की सरकारों ने इन मुद्दों पर मौन रखना ही उचित समझा था। बंटवारे के बाद से ही दोनों देशों में लोगों की आवाजाही लगी रही है, और वे बसते भी रहे हैं। उन्हें नागरिकता भी मिलती रही है। आज के दौर में मुस्लिमों को देश से निकालना आसान नहीं है। ये भारत है जो अपनी उदारता, धर्मनिरपेक्षता और अद्भुत संस्कृति, परंपरा से लोगों को लुभाता रहा है। 30 दिसंबर का अंक भी अच्छा लगा था। इसमें समाज की भीतरी परतों को कुरेदा गया था। ‘आजकल’ में फैसलों की वजह ढूंढ़ते सवाल अच्छा लगा था। इसमें बहुत अच्छा विश्लेषण था। मोदी सरकार नागरिकता रजिस्टर के बहाने बर्र के छत्ते में हाथ डाल कर खलबली मचा रही है। देश के शहर, गांव अपराधों के अड्डे बन चुके हैं। जाहिर सी बात है, इसके लिए सरकारों की शह है। यह चिंताजनक है और इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

के.आर. निखिल | दिल्ली

 

आखिर नागरिक कौन

आउटलुक के 13 जनवरी अंक में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर समर्थन और विरोध में चल रहे आंदोलनों के बारे में पढ़ा। इन आंदोलनों पर भ्रामक खबरों का बाजार गर्म है, जो सभी को अपनी चपेट में ले रहा है। ऐसा लगने लगा है कि हम नागरिक नहीं, बल्कि कोई वस्तु हो गए हैं। पेड न्यूज वाले इस मसले पर और भी खतरनाक खेल खेल रहे हैं। आंदोलन की गंभीरता को कम करने के लिए असामाजिक तत्व फेक न्यूज का सहारा ले रहे हैं। वीडियो क्लिपिंग इसमें आग में घी के लिए काम कर रही हैं। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा है। एक बात यह भी है कि नागरिकता संशोधन कानून आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हवा का रुख निर्धारित कर सकता है। सभी को इस मामले में धैर्य से काम लेना चाहिए और जागरूक रहना चाहिए। इन मामलों पर पत्रिका ने बहुत संतुलित तरीके से सामग्री पेश की है। नाराज नागरिकों की बात रिपोर्ट में बहुत खरी-खरी कही गई है। आवरण की तसवीर ने दरअसल बिना शब्दों के ही बहुत सी बात कह दी। 

पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

उपेक्षा का सबक

आउटलुक में 30 दिसंबर के अंक में अपने चिंतनपूर्ण आलेख ‘भाजपा की राह में आदिवासी’ से पत्रिका ने एक बार फिर अपनी दूरदर्शिता सिद्ध की है। हालांकि, इस आलेख में मात्र आदिवासी एवं कुर्मियों के नाराज होने की टोह ली गई। सरयू राय के अलग होने मात्र से ईमानदार सोच वाले वोटरों की नाराजगी का जिक्र है, जबकि इससे आदिवासी राजपूत एवं अन्य राजपूत मतदाताओं में यह भी संदेश गया है कि जब इतने ईमानदार राजपूत नेता की उपेक्षा की गई, तो उसे सबक मिलना ही चाहिए। शिक्षकों पर लाठी चार्ज भाजपा के लिए झारखंड में ताबूत में अंतिम कील साबित हुआ। तुर्रा यह कि उसके सहयोगी दल अलग चुनाव लड़, मतदाताओं में उनकी फूट का संदेश देते रहे। ‘उन्नाव में अंधेरगर्दी’ में उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था पर वाजिब सवाल उठाए गए हैं। ‘जवाबदेही तय करना जरूरी’ में प्रकाश जी ने सही सवाल उठाए हैं कि उन परिस्थितियों के लिए पुलिस की तैयारी दुरुस्त नहीं थी। जिस तेलंगाना पुलिस की वाहवाही हो रही है उसी पुलिस ने पीड़ित की बहन की शिकायत दर्ज करने में आनाकानी की थी। 

प्रो. दीपक कुमार सिंह | गया, बिहार

 

बदलाव की दिशा

आउटलुक के 16 दिसंबर अंक में सहस्‍त्राब्दी में सांस्कृतिक बदलाव की दिशा पर केंद्रित अच्छी जानकारी थी। संपादकीय लेख इस अंक की सम्यक रूपरेखा प्रस्तुत करता है। संस्कृति के संकट से संबद्ध भाषाविद और विचारक गणेश जी द्वारा प्रस्तुत तथ्य विचारणीय है। धर्म, बाजार, राजनीति और संस्कृति के कुमेल पर रविभूषण जी का आलेख कवियों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और पाठकों के लिए प्रेरणास्पद है। उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक शमीम हनफी की चिंता साझी संस्कृति और समृद्ध विरासत के खतरे में पड़ने को लेकर है। इतिहास के प्रोफेसर एम. राजीव लोचन आम आदमी पर आधुनिक तकनीक के पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण करते हैं, जो ठीक है। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार समुदायों के बीच संवादहीनता की प्रवृत्ति पर चिंता जताते हैं तो सुप्रसिद्ध कथाकार असगर वजाहत हिंदी प्रदेशों के सांस्कृतिक गतिरोध की चर्चा करते हैं। वरिष्ठ साहित्यकार मंगलेश डबराल और मदन कश्यप के आलेख भी भारत के संदर्भ में संस्कृति और अपसंस्कृति का सटीक विश्लेषण करते हैं। राज्यों से संबद्ध समाचार सूचनाप्रद हैं। अंत में पंजाबी कवि सुरजीत पातर की रचना में बिंबों का अर्थपूर्ण प्रयोग पठनीय है।

विनय कुमार सिंह | छपरा, बिहार

 

देश में अंधेरगर्दी

भारत की धरती पर दिन-दहाड़े बलात्कार, बर्बरता और अंधेरगर्दी बढ़ती जा रही है। भाजपा के विधायक ने उत्तर प्रदेश में पुलिस को जैसे कुछ समझा ही नहीं और एक के बाद एक घटनाओं को अंजाम दिया। वहीं हैदराबाद में महिला चिकित्सक की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। देश में अंधेरगर्दी चल रही है। हैदराबाद पुलिस ने त्वरित न्याय के नाम पर सरेआम अभियुक्तों को गोली मार दी। देश की ऐसी घटनाएं बताती हैं कि महिलाएं बिलकुल सुरक्षित नहीं हैं। तो, कानून-व्यवस्था न के बराबर है।

डॉ. जसवंत सिंह जनमेजय | दिल्ली

 

कृषि का राष्ट्रीयकरण

भारत कृषि प्रधान देश होने के बाद भी खाद्य सामग्री का आयात करता है, यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है। इसका एकमात्र कारण यह है कि किसानों ने खेती के बजाय कर्जमाफी, मुआवजा, मुफ्तखोरी और सरकार की सहायता को ही आय का साधन समझ लिया है। वास्तविकता यह भी है कि 1967 से शुरू परिवार के हर सदस्य की राजस्व खाते की नामी-बेनामी संपूर्ण कर्जमाफी की कुल राशि का योग किया जाए तो आश्चर्य होगा कि इनसे जितनी आय हुई है, वह ईमानदारी, परिश्रम और खेती से संभव ही नहीं है। किसानों की इस मानसिकता को कुछ राजनैतिक दलों ने समझ कर कर्जमाफी को सत्ता प्राप्ति का ब्रह्मास्‍त्र बना लिया है। पिछले पचास सालों से यह प्रयोग चल रहा है। देश के तीन-चौथाई से अधिक मतदाताओं के पास राजस्वभूमि है, चाहे वो खलिहान ही क्यों न हो, जिसका उपयोग फसल पैदा करने के बजाय कालेधन को सफेद करने में होता है। फिर भी कृषि और कृषक की दुर्दशा समाप्त नहीं हो रही है। इसका एकमात्र उपाय कृषि का राष्ट्रीयकरण है। इससे नए रोजगार के सृजन के साथ सकल घरेलू उत्पाद में भी वृद्धि होगी। बार-बार कर्जमाफी की नौबत न आए इसलिए कर्ज दिया ही न जाए, यदि कोई गैरकृषक डिफॉल्टर हो जाता है तो उसे भी नया कर्ज नहीं दिया जाता है।

पं. श्याम शालिग्राम शर्मा | इंदौर, मध्य प्रदेश

 

इंसानियत की खबर

हाल ही केरल से एक सुकून देने वाली खबर आई। यहां एलेप्पी की एक मस्जिद में हिंदू युवक-युवती  का विवाह वैदिक रीति-रिवाज से संपन्न करवाने का फैसला किया गया है। इस काम के लिए मस्जिद के सचिव और समस्त स्थायी मुस्लिम जमात बधाई के पात्र हैं। यह काम इस्लामियत से परे इंसानियत का है। अभी तक इसके विपरीत खबरें ही आती रही हैं। इन दिनों पूरे देश में जिस तरह धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता का माहौल नजर आ रहा है, उसमें यह बेहद सुखद समाचार है।

राधेश्याम ताम्रकर | ठीकरी, मध्य प्रदेश

 

विरोध का स्वर

भारतीय जनता पार्टी को मिली दूसरी सफलता ने शायद उसे घमंड से भर दिया है। तभी वह किसी भी तरह की असहमति की आवाज सुनने को तैयार नहीं है। अनुच्छेद 370 के बाद वह नागरिकता संशोधन कानून लेकर आ गई है। भाजपा भूल गई है कि भारत के लगभग 75 प्रतिशत राजनीतिक दल उसके घनघोर विरोधी हैं। मौका लगते ही वे उसे कभी भी पटखनी दे सकते हैं। महाराष्ट्र, झारखंड के चुनाव से यह बात भाजपा को समझ में आ गई होगी। भारत में हर तरफ से विरोध का स्वर फूट रहा है। आंदोलनकारी भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। महाराष्ट्र और झारखंड की जीत से विरोधी दलों के हौसले बुलंद हैं। सत्ताधारियों को चाहिए कि वे जनता की आवाज दबाने के बजाय उसे सुनें और नागरिकता कानून लागू करने में सावधानी बरतें। एनआरसी को तो सरकार को ठंडे बस्ते में ही डाल देना चाहिए।

विमल नारायण खन्ना | कानपुर, उत्तर प्रदेश

 

विरोध के लिए हिंसा क्यों

सरकार की नीतियों के प्रति असंतोष जाहिर करना किसी भी लिहाज से गलत नहीं कहा जा सकता है। यह विरोध भी व्यक्ति को अहिंसक तरीके से प्रदर्शन करने का मौका देता है। लेकिन कुछ लोग विरोध प्रदर्शन करने के लिए सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं। यह ठीक नहीं है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि विरोध प्रदर्शन कर रहे उपद्रवियों से नुकसान की भरपाई की जाएगी। ऐसा इसलिए होना चाहिए क्योंकि जब आप सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं तो उसकी भरपाई के लिए भी आप ही जिम्मेदार हैं। सरकारी संपत्ति देश के लोगों की ही संपत्ति है। इसे नुकसान पहुंचाना नासमझी है। इसमें नेताओं की भी संलिप्तता होती है। उन्हें भी दंड मिलना चाहिए। विरोध प्रदर्शन के लिए हिंसा का सहारा लेना अनुचित है। इससे विरोध की धार भी कुंद होती है और लोगों का ध्यान सरकारी संपत्ति के नुकसान पर चला जाता है।

दिलीप गुप्ता, बरेली | उत्तर प्रदेश

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पुरस्कृत पत्र

वसुधैव कुटुंबकम

आउटलुक के 13 जनवरी के ‘हम भारत के लोग या...’ शीर्षक अंक में नागरिकता संशोधन से संबंधित कई आलेख पढ़े। भारतीय संसद के प्रवेश द्वार पर अंकित है, वसुधैव कुटुंबकम। इस लिहाज से किसी भी देश के शरणार्थियों को शरण देना सभ्य देश का कर्तव्य है। इस दृष्टि से वर्तमान कानून सराहनीय है लेकिन शरण देने की जो शर्तें रखी गई हैं वे ठीक नहीं। पत्रिका में गोविंदाचार्य ने लिखा है- इस कानून को लाने से पहले अयोध्या प्रकरण और अनुच्छेद 370 के मामलों में समाज के बुद्धिजीवियों से, कानूनविदों से, विपक्ष के नेताओं से राय लेकर जिस तरह काम किया, उसी तरह इस मुद्दे पर भी सार्वजनिक बहस पहले होती, तो शायद ऐसी नौबत नहीं आती। उत्पीड़न का नाम लेकर अन्य देशों से

वर्णित धर्म के लोग क्या हमारे देश में आतंक के लिए या अन्य मंशा से नहीं भेजे जा सकते हैं?

गौतम कुमार दास | धनबाद, झारखंड

 

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