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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आईं पाठकों की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रयाएं

पुरस्कृत पत्र

अच्छे संस्थानों की जरूरत

‘नए आसमां की तलाश’, (13 दिसंबर) अलग लगा। एक वक्त था जब हर राज्य में थोक के भाव इंजीनियरिंग कॉलेज खुले थे। जिसे देखो, इंजीनियरिंग में प्रवेश ले रहा था। यही स्थिति एमबीए की हो गई है। गली-मोहल्ले में एमबीए इंस्टीट्यूट खुल गए हैं। बड़े संस्थानों तक तो हर छात्र नहीं पहुंच सकता। ऐसे में छात्र को जहां प्रवेश मिलता है, ले लेता है। सरकार को चाहिए कुछ स्तरीय एमबीए संस्थान खोले और पाठ्यक्रम ऐसा बनाए कि छात्र नौकरी के बजाय अपना कुछ काम शुरू कर सकें। लेख में ऐसे लोगों के उदाहरण भी हैं, जिन्होंने अच्छे संस्थानों से पढ़ कर अपनी राह खुद बनाई। जब भी कोई लेख लिखा जाए इसी तरह के लोगों के बारे में बताया जाना चाहिए ताकि आने वाले छात्र प्रेरणा ले सकें। 

धीरेंद्र भारद्वाज | हिसार, हरियाणा

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चुनावी माहौल से अलग

हर तरफ उत्तर प्रदेश चुनाव का शोर है। यह शोर थमेगा तो किसी दूसरे राज्य का शुरू हो जाएगा। फिर आम चुनाव की तैयारियां शुरू हो जाएंगी। ऐसे माहौल में कम उम्र के अरबपति और एमबीए करने के बाद भी कुछ नया करने वाले युवाओं के बारे में जानना दिलचस्प लगा (‘नए आसमां की तलाश’, 13 दिसंबर)। जिस उम्र में नेताओं के बच्चे पिता के कंधे पर बैठ कर राजनीति की दुनिया में कदम रखने के जुगाड़ में होते हैं, उससे भी कम उम्र में ये युवा सफलता का परचम लहरा रहे हैं। फिल्म उद्योग में भी उस उद्योग से जुड़े परिवार के बच्चों का वर्चस्व है। ऐसे में सच में इन युवाओं के बारे में जानना अच्छा लगता है कि ये लोग सब्जी बेचने जैसा व्यापार भी सोच सकते हैं और उसमें सफल हो सकते हैं।

रितेश चौरसिया | मुंबई, महाराष्ट्र

 

बदले शिक्षा प्रणाली

भारत में शिक्षा प्रणाली में वाकई बहुत बदलाव की जरूरत है। कई साल बीत गए हैं, पर इसके सुधार के लिए कोई काम नहीं किया गया है न ही नए स्तरीय संस्थान सरकार बना पाई है। नतीजा यह है कि छात्र बड़ी संख्या में विदेश जा रहे हैं। आवरण कथा (‘नए आसमां की तलाश’, 13 दिसंबर) में एक आइआइएम के डायरेक्टर खुद यह बात कह रहे हैं कि बिजनेस स्कूल तो खुले लेकिन ये शिक्षा प्रणाली को बदल नहीं पाए। यानी साफ है कि भारत में अभी स्तरीय संस्थानों की बहुत कमी है, जिसकी पहुंच हर छात्र तक हो। एमबीए की डिग्री मात्र कागज का टुकड़ा न हो बल्कि उससे छात्रों को फायदा पहुंचे, तो ही बिजनेस स्कूलों की महत्ता साबित होगी।

कृष्ण मोहंती | भुवनेश्वर, ओड़िशा

 

वास्तविक नागरिक

13 दिसंबर के अंक में ‘एमबीए सब्जीवाला’ के बारे में पढ़ा। उनके बारे में जानना दिलचस्प लगा। लेकिन लेख में उनके बारे में बहुत कम जानकारी है। उम्मीद है कि फिर किसी अंक में उनके बारे में विस्तार से बताया जाएगा। कौशलेंद्र जैसे लोग ही दरअसल भारत के वास्तविक नागरिक हैं, जो भारत की नब्ज को समझते हैं। इस लेख से पढ़ाई का महत्व भी पता चला। अच्छे संस्थान से पढ़ने पर व्यक्ति का आत्मविश्वास अलग ढंग का होता है। अगर कौशलेंद्र आइआइएम में न पढ़े होते तो शायद कोई उन्हें इतनी गंभीरता से न लेता और उनके पास कुछ नया करने का आत्मविश्वास भी न होता। कौशलेंद्र जैसे अन्य लोगों का परिचय कराने के लिए धन्यवाद।

प्रतिभा ज्योति | पटना, बिहार

 

लोकतंत्र को मिला जीवन

13 दिसंबर के अंक में ‘कामयाब आंदोलन की नजीर’ में साल भर से अधिक समय तक चले विशाल और व्यापक आंदोलन का विवरण है। किसानों का यह ऐतिहासिक आंदोलन धैर्य, संयम, अनुशासन, स्पष्टता, पारदर्शिता और ईमानदारी के साथ गर्मी, ठंड, बरसात जैसे सभी मौसम में अपार कष्ट सहने की क्षमता, किसानों के साहस और उद्देश्यों के प्रति कटिबद्धता, उनकी एकजुटता, विषम परिस्थितियों में तत्काल व्यवस्थाएं करने, भड़काने के बावजूद संयम बनाए रखने, सात सौ प्रियजनों की शहादत के बावजूद अहिंसक बने रहने का एक सार्थक उदाहरण है। समाज ने भी इस आंदोलन की भरपूर सराहना की और मुक्त हस्त से इसमें दान दिया। इससे भी बढ़ कर लोगों ने किसानों पर भरोसा जताया। यह सरकार के लिए सबक है कि डंडे के जोर पर सब कुछ नहीं किया जा सकता। ऐसे समय जब देश में जन आंदोलन दम तोड़ रहे हैं, यह आंदोलन वाकई नजीर है। जो थोड़े बहुत आंदोलन हुए भी हैं उन्हें बदनाम कर मुकदमों में उलझा दिया गया। जो लोग डरे हुए थे, सरकार से सवाल करने की हिम्मत खोते जा रहे थे, उन्हें इससे बहुत हिम्मत मिली है। कठिन समय में किसान आंदोलन ने कमजोर होते जा रहे लोकतंत्र को बचा लिया है। हमें अपने देश के किसानों पर गर्व है।

श्याम बोहरे | भोपाल, मध्य प्रदेश

 

बढ़ेगा हौसला

सरकार के कृषि कानून का फैसला वापस लेने से किसानों के हौसले बढ़ गए हैं और वे खुद को सरकार समझने लगे हैं। किसानों की जिद के आगे झुककर, कृषि कानून वापस लेने का फैसला कर मोदी ने गलती की है। इससे उनका हौसला और बढ़ गया है और कामयाबी उनके सिर चढ़ गई है। उन्हें सिर्फ कृषि कानून की वापसी से ही संतोष नहीं है। अब उन्हें एमएसपी की गारंटी भी चाहिए। अगर वह भी मंजूर हो गई तो शायद वे कुछ और बात के लिए अड़ जाएंगे।

कैजाद बी. ईरानी | पुणे, महाराष्ट्र

 

ना मिले तवज्जो

आउटलुक के 13 दिसंबर के अंक में कंगना रनौत पर ‘अधजल गगरी छलकत जाए’ पढ़ा। यह मीडिया की ही दिक्कत है कि वो किसी ऐसे व्यक्ति को चर्चा में ला देता है, जिसके वे हकदार नहीं होते। कंगना के बारे में मीडिया जितनी चर्चा करता है, वह उतनी ही बड़ी सेलेब्रिटी बनती जाती हैं। लेकिन इसके पीछे मीडिया का भी अपना स्वार्थ होता है। टेलीविजन और आजकल की वेबसाइट का तो खैर गणित ही अलग होता है, लेकिन प्रिंट पत्रकारिता की ऐसी क्या मजबूरी है कि वो लोग इन लोगों पर इतने पन्ने रंग देते हैं। कंगना खुद को साहसी के रूप में इतिहास में दर्ज कराना चाहती हैं और मीडिया उनकी मदद भी कर रहा है। सोच कर देखिए कि यदि कंगना ऊटपटांग बोलती रहें और उनकी बात को कोई तवज्जो न दे, तो वे दो-चार दिन बाद चुप हो जाएंगी। आखिर ऐसे कम अक्ल लोग बेवजह बोलते ही इसलिए हैं कि उन्हें सुर्खियां मिलें।

काजल सैनी | दिल्ली

 

ध्यान हटाने की साजिश

आजकल कंगना रनौत पर जितनी बातें हो रही हैं, उतनी तो मोदी जी पर भी नहीं होतीं। वो जरा कुछ बोल दें, तो पक्ष नाचने लगता है, विपक्ष बाल नोचने लगता है। यानी कंगना ने सबको काम पर लगाया हुआ है। उनकी तो हर हरकत को देख कर लग जाता है कि वे कहीं और से संचालित हैं। वरना वे इतने साल से फिल्म उद्योग में हैं, इतनी ही दिमाग वाली होतीं, तो यहां क्यों आतीं। हां बस इतना है कि उन्हें जो भी डायलॉग दिए जाते हैं, उन्हें वो पूरी ईमानदारी और भाव के साथ बोलती हैं। फिर भले ही वे मोदी के पक्ष के संवाद क्यों न हों। सत्तारूढ़ दल उन्हें बताता है कि उन्हें कब क्या बोलना है, ताकि दूसरे जरूरी मुद्दों से ध्यान हटाया जा सके। वे निश्चित रूप से हिमाचल से चुनाव लड़ेंगी। इसी को ध्यान में रखकर तैयारी कर रही हैं और बिना एक भी पैसा खर्च किए राष्ट्रीय मीडिया में खूब प्रचार भी पा रही हैं। भाजपा को अभी लग रहा है कि एक बॉलीवुड अभिनेत्री उनके पक्ष में है। क्योंकि इस पार्टी के पास ऐसे लोगों की कमी है, जो राजनीति के अलावा दूसरे क्षेत्रों से आते हों और इस पार्टी को सपोर्ट करते हों। लेकिन भाजपा ये भूल रही है कि कंगना इतनी विवादित हैं कि एक दिन इन सब की छवि चौपट कर देंगी।

शीतल जोशी | देहरादून, उत्तरांचल

 

चुनावी वायदे

आउटलुक के 29 नवंबर अंक में उपचुनाव की पड़ताल, ‘जोर से लगा धीरे का झटका’ रिपोर्ट सारगर्भित है। चुनावों के करीब आने पर विभिन्न घोषणाओं का पिटारा खोलकर जनता को लुभाने में भाजपा भी पीछे नहीं है। विपक्ष में बैठी पार्टियां, धरातल से हटकर जनता को सब्जबाग दिखा रही हैं। यह मात्र भ्रम है। विकासशील देश में चुनाव से पहले आसमानी घोषणाओं से आज मतदाताओं को सतर्क रहने की आवश्यकता है। पंजाब, उत्तर प्रदेश में गरमाए हुए चुनावी वर्ष की पूर्व संध्या के आकलन की गहन पड़ताल के साथ-साथ बॉलीवुड में खान तिकड़ी की बादशाहत पर आलेख प्रभावित करने वाला है। ओटीटी प्लेटफॉर्म से लेकर रजत पट पर प्रदर्शित फिल्मों के साथ-साथ वर्तमान नायक-नायिकाओं की सुसंगत तुलना पूर्व के सितारों से की गई है। जातिगत जनगणना का औचित्य आलेख में बखूबी आया है। महाराष्ट्र के आर्यन केस पर इतनी गहन पड़ताल कर तथ्यों से पाठकों को अवगत कराने वाली सामग्री परोसना आउटलुक में ही संभव है। विविध विषयों से भरपूर अंक पाठकों को समर्पित करने के लिए आउटलुक परिवार बधाई का पात्र है।

सबाहत हुसैन खान | उधमसिंह नगर, उत्तराखंड

 

नहीं खत्म होगा स्टारडम

आउटलुक के 29 नवंबर के अंक की आवरण कथा पढ़ कर यही कहा जा सकता है कि खान बंधुओं की काबिलियत ही उनकी बादशाहत है। आवरण कथा में कहा गया है कि खान बंधुओं का ‘खान-दान’ खतरे में है। लेकिन ऐसा है नहीं। तीनों खान- सलमान, शाहरुख और आमिर अलग ढंग की फिल्में करते हैं और बढ़िया किरदार निभाते हैं। यह खासियत बालीवुड में सिर्फ उनमें है कि वे खुद को कभी बढ़ा-चढ़ा कर पेश नहीं करते और पूरे समर्पण भाव के साथ शूटिंग करते हैं। यदि तीनों खान तीन दशकों से फिल्मी दुनिया में लोगों के दिलों पर छाए हुए हैं, तो यह उनके काम की बदौलत ही है। दुनिया में कलाकार की तारीफ सिर्फ उसके काम के कारण ही होती है।

डॉ. जसवंतसिंह जनमेजय | नई दिल्ली

 

बॉलीवुड को बख्श दो

हमें मालूम ही नहीं होता कि हमारे लिए महत्वपूर्ण क्या है। हम जाति या समाज से ऊपर उठ कर सोच ही नहीं पाते। 29 नवंबर के अंक में एक लेख (‘नए किरदार का इंतजार’) पढ़ा। इसमें तीनों खानों की तमाम बातों के अलावा इस बात पर भी जोर दिया गया है कि सबसे पहले कौन से खान ने परदे पर मुसलमान चरित्र निभाया। क्या यह इतनी महत्वपूर्ण बात है कि इसे रेखांकित किया जाए या इसे लेख में लिखा जाए। मैं फिल्मों की शौकीन हूं और लगभग हर छोटी-बड़ी फिल्में देखती हूं। लेकिन मुझे कभी याद नहीं पड़ता कि मैंने यह ध्यान दिया हो कि चरित्र हिंदू बना है या मुसलमान। हम खुद इस तरह की बातें लिखते हैं और फिर समाज से उम्मीद करते हैं कि वह हिंदू-मुस्लिम न करे, वर्ग विभेद न करे, समाज का हर नागरिक समानता का व्यवहार करे। फिल्म जैसे उद्योग में जिसका उद्देश्य विशुद्ध मनोरंजन है, उसमें भी यदि जाति-समाज का कीड़ा घुस जाएगा, तो बाकी लोग कहां जाएंगे। कम से कम फिल्मों को तो छोड़ ही दिया जाना चाहिए। किस कलाकार ने हिंदू होते हुए मुस्लिम चरित्र निभाया, कौन मुसलमान परदे पर हिंदू बना ऐसी बातों से समाज में सिर्फ दूरी बढ़ती है।

सोनम तिवारी | फैजाबाद, उत्तर प्रदेश

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