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संपादक के नाम पत्र

पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं
भारत भर से आईं पाठको की चिट्ठियां

डरना जरूरी है

आउटलुक की टैग लाइन है, “सच को समर्पित समाचार पत्रिका,” वाकई ये पत्रिका सच को समर्पित है। 9 अगस्त की आवरण कथा, “डरावना पहरा” बहुत अच्छी लगी। देश में ऐसा कोई राज्य नहीं जहां की सरकार आम आदमी को डरा न रही हो। आपने हर राज्य का जो उदाहरण दिया है उसी से समझ आता है कि देश में डर का कैसा माहौल है। जो लोग गरीबों-वंचितों के हक में आवाज उठाते हैं उन्हें चुप कराने का अच्छा तरीका सरकार को समझ में आ गया है। लेकिन सलाम है उन योद्धाओं को, जो इस काले कानून से डरने के बजाय खम ठोक कर सरकार के खिलाफ खड़े रहते हैं और सच के पक्ष में बोलते हैं। पेगासस कांड बताता है कि सरकार संकेत में कह रही है कि (उससे) डरना जरूरी है।

देवयानी भारद्वाज | दिल्ली

 

दमनकारी कानून

आउटलुक के 9 अगस्त के अंक में, “दहशत का फरमान” में बिलकुल सही लिखा है कि आपराधिक न्याय नीति अपराध कम करने के प्रभावी साधन के रूप में काफी हद तक अप्रासंगिक है। हमारे यहां, टाडा, पोटा और वर्तमान में यूएपीए, एनएसए जैसे कई कानून हैं जो आतंकवाद विरोधी है। लेकिन क्या इससे आतंकवाद रुक गया है। इतने कानूनों के बाद भी अपराध हो रहे हैं, आतंकी घटनाएं भी हो रही हैं। मुद्दा तो यह है कि इन कानूनों की आड़ में सरकार हर बात पर पूरा नियंत्रण चाहती है। हालांकि इन कानूनों का दुरुपयोग कर वह कुछ हद तक ऐसा कर भी पा रही है। यूएपीए की प्रासंगिकता पर लंबी बहस होना जरूरी है। आखिर यह जरूरी क्यों है, यह समझना जरूरी है। राज्य सरकारें नक्सली या आतंकी होने की आशंका में उन लोगों को गिरफ्तार कर लेती हैं, जो उनकी हां में हां नहीं मिलाते। फिर भी कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता, युवा ऐसे हैं जो गिरफ्तारी से नहीं डरते और अपनी बात कहते हैं। ऐसे कई लोग हैं, जो गरीबों के हक में आवाज उठाते हैं और उनके अधिकार के लिए लड़ते हैं। सरकार इस कानून का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रही है, यह निंदनीय है। लेकिन युवाओं का जोश इससे कम नहीं हो रहा, ये प्रशंसा की बात है।

शहरोज | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

 

सरकार की दूरबीन

सरकार का काम है लोगों की भलाई के लिए काम करे, न कि अपना समय लोगों की जासूसी में समय व्यर्थ करे। 9 अगस्त की आवरण कथा, “डरावना पहरा” में सरकार की जासूसी की अच्छी पड़ताल है। अब सरकार को पत्रकारों से भी इतना डर लगने लगा कि वे उनकी जासूसी कराने लगीं। सत्ता में जो लोग इस वक्त हैं, ऐसा करके वे खुद को उपहास का पात्र बना रहे हैं। इस सरकार ने प्रजातंत्र की हर मान्यता को ध्वस्त कर दिया है। देश की अभिव्यक्ति पर लगता यह पहरा बहुत गंभीर है। उस पर भी अफसोस इस बात का है कि इस जासूसी कांड के खिलाफ अब तक बहुत आवाजें बुलंद नहीं हुई हैं। भारत का इतिहास क्या रहा है, यह इस अंक के शहरनामा से पता चलता है। सौ साल से अधिक का इतिहास समेटे छोटी काशी यानी भिवानी पर यादें नहीं बल्कि शब्द चित्र हैं। इसे रस लेकर दो-तीन बार पढ़ा।

डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

चौकीदार नहीं, पहरेदार

पिछले चुनाव में भारत के प्रधानमंत्री ने कहा था कि वे देश के चौकीदार हैं। तब लोगों ने “मैं भी चौकीदार” नारे को खूब हवा दी थी। लेकिन शायद उनके कहने का अर्थ होगा कि वे पहरेदार हैं, जो हर किसी के फोन, मेल और आवाजाही की पहरेदारी करेंगे! आवरण कथा (9 अगस्त) तो कम से कम यही बताती है कि यह चौकीदार अब पहरेदारी करने लगा है। पहरेदारी भी ऐसी-वैसी नहीं बल्कि इतनी कि हर बात सुनी जा सके, उसकी हर गतिविधि देखी जा सके। हर सरकार थोड़ी-बहुत निगरानी तो करती ही है। लेकिन यह निगरानी देश पर बाहरी हमले को रोकने, आतंकवादी हमले जैसी बातों के लिए हो तब तक तो ठीक है। लेकिन यदि जनता की निजता ही खत्म हो जाए, तो इस निगरानी से हासिल क्या होगा, यह सोचने का विषय है।

मधुशंकर पांडेय | बनारस, उत्तर प्रदेश

 

जांच कराए सरकार

इजरायली स्पाइवेयर पेगासस के जरिए विपक्षी नेताओं, अधिकारियों, पत्रकारों, जजों और मंत्रियों के फोन हैक कर जासूसी करने पर वाद-विवाद जारी है। विपक्ष हंगामा भी कर रहा है, जिससे सदन की कार्यवाही नहीं चल रही। केंद्र सरकार है कि जासूसी करने के हर आरोप से इनकार कर रही है। फोन टैप करना कोई नई बात नहीं, ऐसा होता रहा है। लेकिन केंद्र के जासूसी के आरोप से इनकार की वजह से बात संदिग्ध हो रही है। चाहे जो भी हो केंद्र सरकार को जांच से भागना नहीं चाहिए। यह लोकतंत्र की अस्मिता का सवाल है। केंद्र सरकार इस मुद्दे पर निष्पक्ष और पारदर्शी जांच करा कर सच्चाई राष्ट्र को बताए। 

हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश

 

कानून का बेजा इस्तेमाल

आउटलुक के नए अंक (9 अगस्त) में “आतंकरोधी कानूनों का अत्याचार” बहुत सटीक और संतुलित लेख है। संपादक ने बहुत नपे-तुले ढंग से यूएपीए, एनएसए और राजद्रोह जैसे कानूनों का सच बताया है। ये सभी कानून बनाए तो गए थे कि आम आदमी की सुरक्षा होगी, लेकिन आम आदमी के खिलाफ ही इन्हें हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इन कानूनों के साथ यह विडंबना रही है कि सरकार कोई भी हो, सभी ने इसका बेजा इस्तेमाल किया है। शायद यही वजह है कि इन कानूनों के खिलाफ कोई भी सरकार कड़ा कदम नहीं उठाती, न ही इनकी समीक्षा की जरूरत समझती है। कोई भी कानून बुरा नहीं होता। बल्कि इसका इस्तेमाल कैसा हो रहा है, वह इरादा बुरा होता है। उम्मीद की जा सकती है कि सरकारें मानवीय आधार पर ही सही इन कानूनों की समीक्षा करेंगी ताकि निर्दोष लोगों का जीवन बर्बाद न हो।

प्रगति लाल | रत्नागिरि, महाराष्ट्र

 

कानून का मकसद क्या

“आतंकरोधी कानूनों का अत्याचार” (9 अगस्त) सरकार की उस रग पर हाथ है, जिसे वह कभी सामने लाना नहीं चाहती। आखिर इन कानूनों से किसकी सुरक्षा हो रही है, यह पता चलना चाहिए। इस अंक से ही पता चला कि सरकार किस तरह से विरोधियों के स्वर दबाने के लिए आम जनता की सुरक्षा के मकसद से बनाए गए कानूनों की आड़ में जिंदगियां बर्बाद कर रही है। सत्ता में काबिज लोग धड़ल्ले से यूएपीए, एनएसए और राजद्रोह जैसे कानूनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। किसी ने जरा भी असंतोष जाहिर किया या असहमति दिखाई, कानून की हवाला देकर उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है। कई लोगों का तो जीवन ही जेल में गुजर जाता है। एक लोकतांत्रिक देश में ऐसा होना कितना खतरनाक है। यह विडंबना ही है कि हर सरकार कहीं न कहीं इन कानूनों के गलत इस्तेमाल की दोषी है। फिर किस पर उंगली उठाई जाए। यह कानून न जवानों को बख्शता है न बूढ़ों को। इसी कानून के दुरुपयोग की कीमत गरीबों की सेवा करने वाले स्टेन स्वामी को अपनी जान गंवा कर चुकानी पड़ी। इस लेख के मार्फत यह तथ्य जानना भी अच्छा लगा कि यूएपीए को ज्यादा सख्त बनाने का संशोधन तब पारित हुआ था जब केंद्र में कांग्रेस का शासन था और गृह मंत्री पी. चिदंबरम थे। उन्होंने तब दलील दी थी कि लोगों को बिना जमानत जेल में बंद रखने की जरूरत कैसे और क्यों सही है। अब यही कांग्रेस इस कानून के दुरुपयोग की बात कर घड़ियाली आंसू बहा रही है। इस तरह के दोगले व्यवहार से जनता के हक में काम करने वाले ही परेशान होते हैं।

आरती शर्मा | चुरू राजस्थान

 

विवेकपूर्ण ढंग से हो उपयोग

आउटलुक ने इस बार “डरावना पहरा” (9 अगस्त) में भारत में जासूसी के कई अध्यायों को खोला है। लेकिन “आतंकरोधी कानूनों का अत्याचार” इस पूरे अंक का मर्म है। कोई भी लेख तब प्रभावित करता है, जब उसमें तथ्यों के साथ जानकारी हो और किसी का भी पक्ष न लिया गया हो। यह लेख बताता है कि इन कानूनों के बेहिसाब दुरुपयोग की बड़ी वजह जवाबदेही का अभाव है। लेकिन इसमें किसी एक पर दोष नहीं मढ़ा गया है, न किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप हैं। क्योंकि कई बार पाठकों को ही तय करने देना चाहिए कि इन स्थितियों की जड़ कहां है। क्योंकि जब वर्षों जेल में बिताने के बाद कोई आरोपी बरी हो जाए तो जाहिर सी बात है कि उसका जीवन एक प्रकार से नष्ट हो जाता है। लेकिन अधिकारी इस गलत जांच या लगाए गए गलत आरोप से हमेशा बरी रहते हैं। उन्हें कभी जवाबदेह नहीं बनाया जाता। लेकिन तथ्य यह है कि ऐसा बेरोकटोक दुरुपयोग हर राज्य की सत्ता कर रही है। तब फिर दोषी तो सिर्फ आम आदमी ही होगा। सरकार इन कानूनों को खत्म भले ही न करे, कम से कम इतनी व्यवस्था तो करे कि इनका इस्तेमाल विवेकपूर्ण ढंग से हो।

तृप्ति बरगले | खंडवा, मध्य प्रदेश

आबादी की राजनीति

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले लाया गया जनसंख्या नियंत्रण नीति का प्रस्ताव मात्र शिगूफा है। योगी सरकार जानती है कि इस बार उसका जीतना खटाई में है। यही वजह है कि वह ऐसे अजीबो-गरीब प्रस्ताव ला रही है। लगता नहीं इस नीति से उन्हें कोई फायदा होगा। सरकार का कहना है कि यदि किसी के दो से ज्यादा बच्चे हुए तो उसे सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी। उनसे कोई यह जाकर पूछे कि सरकारी नौकरियां हैं कहां? सरकारी नौकरी में हैं तो प्रमोशन नहीं मिलेगा। वैसे भी प्रमोशन मिलना इतना आसान नहीं होता और दूसरी बात कि जो लोग सरकारी नौकरी में हैं, वे खुद इतने सजग होते हैं कि दो से ज्यादा बच्चे नहीं चाहते। सरकार ने विधायकों-सांसदों को इसमें साफगोई से बचा लिया है। इसी से इनकी मंशा का पता चलता है। सरकार को ऐसे दबाव डालने के बजाय जागरूकता लाने की कोशिश करनी चाहिए। शिक्षा का ढांचा सुधारना चाहिए और लड़कियों की शिक्षा के लिए प्रयास करना चाहिए। लड़कियां जागरूक होंगी तो खुद ब खुद जान जाएंगी कि ज्यादा बच्चे पैदा करने से उनके शरीर को भी जोखिम है। जनसंख्या नियंत्रण नीति से कुछ नहीं होगा। इसके लिए जागरूकता ही एकमात्र उपाय है।

हरीश कश्यप | बांदा, उत्तर प्रदेश

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पुरस्कृत पत्र

हमारा भी फोन सुने सरकार

आवरण कथा, “डरावना पहरा” ने जासूसी के बहुत से अध्याय खोले। लेकिन एक रिटायर्ड अध्यापक होने के नाते मेरी इच्छा है कि सरकार मेरा फोन सुने। क्या पता इसी के जरिये सरकार को पता चल जाए कि सरकारी स्कूल के अध्यापक की पेंशन इतनी नहीं होती कि वह बीमार पत्नी और अविवाहित बेटी का खर्च उठा सके। बड़े वकीलों, मंत्रियों, पत्रकारों के फोन हैक कर सरकार को क्या हासिल होगा। मौजूदा सरकार तो वैसे भी जानती है कि सब उसके खिलाफ हैं। मैं सरकार से अनुरोध करता हूं कि मेरे जैसे लोगों के फोन सुने जाएं, ताकि बेरोजगार बेटे की परेशानी दूर हो। वैक्सीन स्लॉट खोजने की जद्दोजहद पता चल सके और पता चल सके कि हमने रोज दाल जैसी सामान्य वस्तु खाना भी क्यों छोड़ दिया है।

सत्यप्रकाश जायसवाल | लखनऊ, उ.प्र

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