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संपादक के नाम पत्र

पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं
भारत भर से आईं पाठको की चिट्ठियां

लोकतंत्र की विडंबना

आउटलुक के 19 अप्रैल के अंक में विधानसभा चुनावों का विश्लेषण पढ़ा। जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का शासन ही लोकतंत्र कहलाता है। लेकिन दुखद बात है कि नेताओं ने वोट हासिल करने और सत्ता पाने के शॉर्टकट रास्ते अपना लिए हैं। लोकतंत्र में जनता भगवान होती है, और जनता का चुना गया प्रतिनिधि पुजारी होता है। लेकिन पुजारी ने भगवान को खुश करने के लिए रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ, कपड़ा, मकान या जनहित के अन्य कामों को भुला कर केवल धर्म, जात-पात, गोत्र, जनेऊ, मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दों को अपना रास्ता बना लिया है। यह लोकतंत्र के उसूलों के विपरीत है। लेकिन समस्या है कि जब जनता स्वयं इन नेताओं के हाथों भेड़ बनकर अपने को मुड़ाना चाहती है तो इसमें नेताओं का क्या दोष! बस दुख की बात है कि लोकतंत्र, लोकतंत्र न रहकर भीड़ तंत्र में बदलता जा रहा है। जनता के मुद्दे गौण हो रहे हैं और बेतुके शॉर्टकट मुद्दे हावी हो रहे हैं, जो लोकतंत्र पर (अ)प्रत्यक्ष प्रहार है। यही इस लोकतंत्र की अब विडंबना बनती जा रही है, जो लोकतंत्र के लिए घातक है। यह आने वाले समय में देसवासियों के लिए रोने का सबब बनेगा।

हेमा हरि उपाध्याय | खाचरोद उज्जैन, म.प्र.

 असत्य की गूंज

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव अभी जारी हैं और चार अन्य राज्यों में पूरे हो चुके हैं। इन सभी राज्यों में चुनाव का जो हंगामा मचा, उसका जायजा लें तो एहसास होता है कि लोकतंत्र कितना विकृत रूप ले चुका है। कितना नाटक, कितना झूठ। न जनतंत्र की परवाह, न किसी सत्य की गुंजाइश। बस भयंकर रैलियां और रोड शो करके शक्ति प्रदर्शन। जो जितनी नौटंकी कर रहा है उसकी उतनी चर्चा हो रही है। ऐसा लग रहा है कि असत्य बोलने वालों की जमात इस लोकतंत्र को छिन्न-भिन्न करके ही दम लेगी। खैर! बनावटी नेता इस चुनावी प्रकिया को कितना भी भ्रष्ट कर लें, असली राजा तो प्रजा ही है। देश की विचारधारा इतनी भी खोखली नहीं हुई है।

संदीप पांडे | अजमेर, राजस्थान

बदलती राजनीति

देश की राजनीति बदल रही है, मगर यह परिवर्तन इतना धीरे-धीरे होता है कि समझ में नहीं आता। कई वर्षों बाद यह परिवर्तन स्पष्ट होता है, तब जाकर वास्तविकता समझ में आती है। एक समय था जब एक ही पार्टी का शासन पूरे देश में होता था। फिर धीरे-धीरे दूसरी पार्टियां सामने आईं। उन्होंने समाजवाद की बात की लेकिन वह ज्यादा समय तक सफल नहीं हो पाईं। फिर दलित पार्टियां भी विकल्प बनकर आईं, वह भी कुछ दिन कुछ राज्यों में सफल रहीं। अब फिर एक पार्टी ‘सबका साथ सबका विकास’ के नाम पर पूरे देश में फैलती जा रही है। अब पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। उसके नतीजे बहुत कुछ आगे की राजनीति की दिशा तय करेंगे। हालांकि इस बीच समाज भी दो वर्गों में बंट गया है। ऐसे में सोचना होगा कि हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

विमल खन्ना | पनकी, कानपुर (उप्र)

 

बेहतरीन चुनावी विश्लेषण

आउटलुक का 5 अप्रैल का संस्करण चुनावी विश्लेषण से भरा हुआ संस्करण रहा, जिसमें देश में पांच राज्यों में होने वाले चुनाव का विश्लेषण तथ्यात्मक तरीके से प्रस्तुत करने की कोशिश की गई। मेरा मानना है कि राजनीतिक विश्लेषण करने वाली पत्रिका के रूप में आउटलुक सभी पत्रिकाओं से अग्रणी साबित होती है। इस संस्करण में आयुर्वेद के ऊपर जो लेख प्रस्तुत किया गया था, वह काफी प्रभावी था। इसके साथ ही बिहार की राजनीति के संदर्भ में लव-कुश का संदर्भ काफी रोचक था। आउटलुक पत्रिका सप्तरंग के माध्यम से विभिन्न रंगमंच से जुड़े प्रसंगों को भी प्रस्तुत करती है, जिसके कारण पत्रिका अपने समग्र रूप में पाठकों की मनपसंद पत्रिका के रूप में प्रभाव जमाने में सफल रहती है।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

 

पिछले दरवाजे से सत्ता

आउटलुक के 19 अप्रैल के अंक में लेख ‘दिल्लीः बेमानी हुई विधानसभा’ पढ़ा। बचपन में पढ़ा था कि बिना मिटाए किसी लकीर को छोटा करना हो तो उसके समानांतर एक बड़ी लकीर खींच दो। लेकिन आजकल भाजपा जहां बड़ी लकीर नहीं खींच पाती वहां दूसरों की लकीर मिटाने की कोशिश करती है। बात कड़वी किन्तु सच है कि इसी सिद्धांत पर भाजपा आजकल विपक्षी राज्य सरकारों का शिकार कर रही है। दिल्ली में सीधे-सीधे सत्ता पर कब्ज़ा करना संभव नहीं था, इसलिए पिछले दरवाजे से सत्ता हथियाने का काम किया गया। दिल्ली में एक साल बाद नगर निगम चुनाव होने हैं। अब भाजपा उपराज्यपाल के माध्यम से निगमों को ज्यादा पैसा दिलवा कर चुनावी साल में अपने पक्ष में माहौल बना सकती है। अगर भाजपा निगम चुनाव हार गई तो ये पिछले दरवाजे वाला रास्ता तब भी वर्चस्व कायम रखने में मददगार होगा। नए संसद भवन के शिलन्यास से लेकर हर मौके पर लोकतंत्र की दुहाई देने वाली मोदी सरकार का ये कदम सर्वथा अनैतिक एवं अलोकतांत्रिक है।

बृजेश माथुर | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

 

बहस की गुंजाइश कहां

अपना उल्लू सीधा करना ही राजनीतिक दलों का परम लक्ष्य हो चला है। चुनाव आते ही सभी दल जाति, धर्म, समुदाय, गोत्र के नाम पर राजनीति शुरू कर देते हैं। सवाल केवल चुनाव के समय का ही नहीं है। सवाल है कि क्या अपने देश में किसी भी मुद्दे पर गंभीर बहस की गुंजाइश रह गई है? राजनीतिक दलों को ही दोष क्यों दें, बुद्धिजीवी भी ज्यादातर किसी न किसी राजनीतिक दल के मत का समर्थन या उसकी काट करते नजर आते हैं। आप किसी भी अहम मुद्दे पर लोगों से बात कीजिए। वे निजी बातचीत में जो बोलते हैं, वही बात सार्वजनिक तौर पर नहीं बोलते। संसद में बहस होती नहीं। संसद के बाहर बहस के राजनीतिक खेमेबंदी का शिकार हो जाने की आशंका बनी रहती है। बहस होगी कहां? मतदाता तो हमेशा भ्रमित ही होता रहेगा। कहां है समाधान?

पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

राजनीति का दुष्चक्र

19 अप्रैल के अंक में मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर परमवीर सिंह की चिट्ठी से उठे विवाद पर सुजाता आनंदन का लेख ‘परम दुष्चक्र’ पढ़ा। वैसे तो इस पूरे मामले की जांच अब सीबीआइ और एनआइए को सौंप दी गई है, लेकिन शुरू से ही इन सबके पीछे किसी बड़ी साजिश की बू आ रही थी। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को लिखी चिट्ठी में परमवीर सिंह ने जो बातें कही हैं, उनमें कई बिंदु ऐसे हैं जिन पर सहसा भरोसा नहीं होता। जैसे, महाराष्ट्र जैसे संपन्न प्रदेश के गृह मंत्री किसी अदने पुलिस वाले से महीने में सिर्फ एक सौ करोड़ रुपये वसूली करने की बात कहते हैं। पूर्व पुलिस आयुक्त ने जिस एनकाउंटर स्पेशलिस्ट सचिन वाझे का नाम लिया है, उसका निलंबन खत्म करना और क्राइम ब्रांच जैसी महत्वपूर्ण यूनिट का प्रभार देना भी बहुत कुछ कहता है। महाराष्ट्र की अघाड़ी सरकार को गिराने की कोशिशें कई बार हुई हैं, लेकिन इसमें सबसे बड़ी अड़चन राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार हैं। शायद इसीलिए उनकी पार्टी के गृहमंत्री अनिल देशमुख को इस बार निशाना बनाया गया है। इस विषय पर मुंबई के एक और पूर्व पुलिस कमिश्नर जूलियो रिबेरियो ने भी सही लिखा है कि किसी भी महकमे का काम उसके मुखिया पर निर्भर करता है।

आनंद कांबले | मुंबई

 

सिद्धू का रहस्य

आउटलुक के 19 अप्रैल के अंक में नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह की स्टोरी पढ़ी। सिद्धू जब से भाजपा छोड़कर गए हैं, तब से वे सही बातों के लिए कम, गलत बातों के लिए ज्यादा सुर्खियों में रहे हैं। समझ में नहीं आता कि उन्हें क्या चाहिए। पंजाब सरकार में मंत्री थे, लेकिन चाहत बहुत बड़ी है। इसलिए कुछ काम नहीं कर पा रहे हैं। कभी आम आदमी पार्टी में जाने की चर्चा होती है, तो कभी कैप्टन से सुलह की खबरें आती है। साफ है कि वह लोगों की सेवा करने से ज्यादा ओहदे पर जोर दे रहे हैं। और वह यह भूल रहे हे कि जनता ही सर्वोपरि है।

सुनील कुमार | गोपालगंज, बिहार

 

साप्ताहिक करें पत्रिका

आउटलुक पत्रिका का सबसे दिलचस्प कॉलम शहरनामा है। जब भी पत्रिका आती है, तो मैं अंतिम पृष्ठ खोल कर यहीं से पढ़ना शुरू करता हूं। आप अंत में लड़कियों की जो तस्वीरें छापते हैं, उसे बंद कर दें क्योंकि इनकी छपाई अच्छी नहीं होती। वैसे छपाई सारी पत्रिका की साधारण है और सुधार मांगती है। मेरा दूसरा सुझाव यह है कि आप इस पत्रिका को साप्ताहिक कर दें।

डॉ. चिरंजीत परमार | मंडी, हिमाचल प्रदेश

 

कारगर इलाज जरूरी

आउटलुक के 5 अप्रैल के अंक में प्रकाशित आलेख ‘देसी इलाज भरोसेमंद’ पढ़ा। उसमें बेहद सही लिखा है कि कोविड-19 जैसी महामारी के लिए शरीर पर प्रयोग नहीं होना चाहिए, बल्कि असरदार और कारगर दवा होनी चाहिए। यहां बातें पद्धतियों की श्रेष्ठता को लेकर नहीं, बल्कि असरदार इलाज को लेकर है। पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में जितने शोध की आवश्यकता थी, उतना नहीं हुआ। सरकार को पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों पर विशेष ध्यान देना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा उसे आधुनिक बनाने का प्रयास करना चाहिए। आधुनिक मेडिकल विज्ञान ने निरंतर शोध से आज अनेक जटिल रोगों का सफल इलाज खोजा है। आने वाली चुनौतियां भयावह हैं। ऐसे में महामारी का कारगर इलाज जरूरी है।

शशिकांत त्रिपाठी, तिवारीपुर, गोरखपुर (उ.प्र.)

 

भारत का नाम रौशन

22 मार्च के अंक में छोटे कस्बों के नए कुबेर और अप्सराओं के हैरतअंगेज करिश्मे के बारे में पढ़ा। 40 वर्ष तक के इन युवाओं ने व्यवसाय, फैशन, गीत-संगीत, मेडिसिन जैसे क्षेत्र में पूरे संसार में भारत का नाम रौशन किया है। ये वाकई धन्यवाद के पात्र हैं। मैं आउटलुक की सर्वे टीम को धन्यवाद देना चाहता हूं क्योंकि इसके संवाददाताओं ने बड़ी मेहनत और लगन के साथ पूरे भारत का सर्वे करके इस रिपोर्ट को प्रस्तुत किया है। वाकई में यह कार्य काबिले तारीफ है।

डॉ. जसवंत सिंह जनमेजय | नई दिल्ली

 

 

 पुरस्कृत पत्र

महामारी काल में चुनावी भीड़

भारत में कोरोना वायरस की दूसरी लहर चरम पर है। रोजाना करीब दो लाख संक्रमित मामलों की पुष्टि हो रही है। एहतियात के तौर पर कई राज्यों में नाइट कर्फ्यू तथा लोकल स्तर पर लॉकडाउन के विकल्प को अपनाया जा रहा है। लेकिन इस बीच चुनावी राज्यों (पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुदुचेरी) में नेताओं की सभा, रोड शो में हजारों की संख्या में लोगो की भीड़ देख कर गुस्सा आ रहा है। महामारी काल में यह सब क्यों? इस मुश्किल समय में तो नेताओं को डिजिटल माध्यम से अपनी बात जनता तक पहुंचा कर आदर्श प्रस्तुत करना था। लेकिन बहुत शर्मनाक है प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, सहित कई मुख्यमंत्री और नेतागण प्रतिदिन हजारों की भीड़ इकट्ठी कर रहे हैं।

प्रदीप कुमार दुबे | देवास, मध्य प्रदेश

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