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संपादक के नाम पत्र

पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं
भारत भर से आईं पाठको की चिट्ठियां

महासंग्राम का वक्त

आउटलुक के 8 मार्च के अंक में आवरण पर योगी आदित्यनाथ पूरी सज-धज के साथ मौजूद हैं। उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव हैं, तो जाहिर सी बात है यहां राजनैतिक पैंतरेबाजी में तेजी आएगी। बंगाल चुनाव के बाद तो जैसे महासंग्राम छिड़ जाएगा। इस बीच ‘चार बरस योगी’ बहुत संतुलित ढंग से लिखी गई है। यूपी का निवासी होने के नाते मैं इतना, तो कह सकता हूं कि योगी के आने के बाद बदलाव दिखते हैं। अपराध की खबरें मीडिया में चाहे जितनी चलें लेकिन वसूली पर रोक है। वैसे दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां अपराध न होते हों। यही वजह है कि यूपी में भी कुछ न कुछ होता रहता है। लेकिन योगी सख्त प्रशासक हैं और उम्मीद की जा सकती है कि अगली बार भी वे ही कुर्सी संभालेंगे।

ब्रज किशोर मिश्रा | कानपुर, उत्तर प्रदेश

 

बेरोजगारी दूर हो

8 मार्च के अंक में, ‘चार साल वादों का हाल’ पढ़ कर लगा कि उत्तर प्रदेश में यदि योगी की यही रफ्तार रही, तो वे सच में बहुत कुछ बदल पाएंगे। किसी भी राज्य को सुधारने के लिए वक्त की जरूरत होती है। कोई भी राज्य आदर्श राज्य नहीं हो सकता लेकिन यदि प्रशासक की नीयत साफ हो और वह लगातार काम कर रहा हो, तो जनता का भरोसा उस पर जमता है। योगी पर भरोसे का यही कारण है। वैसे उनके कार्यकाल की बड़ी उपलब्धि राम मंदिर निर्माण होगा। वे काम में लगे हुए हैं, कुछ के नतीजे दिख रहे हैं तो कुछ के दिखने लगेंगे। अब उन्हें अपना पूरा जोर बेरोजगारी दूर करने पर लगाना चाहिए।

निशि राजपूत | बांदा, उत्तर प्रदेश

 

कोविड पर होती बात

आउटलुक के नए अंक (8 मार्च) में उत्तर प्रदेश की कई महत्वाकांक्षी योजनाओं के बारे में पढ़ कर जाना। एयरपोर्ट और अर्थव्यवस्था से लेकर अयोध्या तक आवरण कथा में कई मुद्दों पर बात की गई है। लेकिन इसमें कोविड महामारी के बारे में बहुत कम लिखा गया है, जबकि यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था जिस पर विस्तार से बात होनी चाहिए थी। क्योंकि उत्तर प्रदेश की चरमराई हुई स्वास्थ्य व्यवस्था और गांवों की अराजक स्थिति से यहां विस्फोटक स्थिति हो सकती थी। लेकिन उत्तर प्रदेश ने खुद को बहुत ही सधे ढंग से न केवल संभाला बल्कि महामारी पर अंकुश भी लगाए रखा। इतने बड़े राज्य में जहां सैकड़ों मजदूर घर लौट आए, उनके साथ इस चुनौती को स्वीकारना छोटी बात नहीं है। क्योंकि जिन कामों की आवरण कथा में चर्चा की गई है, वो तो हर राज्य छोटे या बड़े स्तर पर करता ही रहता है। लेकिन यह ऐसी महामारी थी, जिसके बारे में किसी को पता नहीं था। उत्तर प्रदेश ने इस स्थिति को वाकई बहुत अच्छे से संभाला। इस पर ज्यादा से ज्यादा बात होनी चाहिए।

कौशल राज | लखनऊ, उत्तर प्रदेश

 

मान गए मान्या

आउटलुक के नए अंक (8 मार्च) में मिस इंडिया रनर अप मान्या सिंह के इंटरव्यू ने एक नए तरह का साहस दिया। उनका इंटरव्यू पढ़ कर लगा कि वाकई यदि पूरे मन से कोशिश की जाए, तो सफलता जरूर मिलेगी। उनकी पारिवारिक स्थिति और जिस प्रतियोगिता में उन्होंने जगह बनाई, दोनों ही दो विपरीत ध्रुव की तरह हैं। फिर भी उन्होंने अपनी मेहनत से इसे साधा। इस तरह के प्रेरणादाई लोगों के बारे में पढ़ कर अच्छा लगता है। खासकर तब जब वे युवा हों। क्योंकि बुजुर्गों के पास अनुभव का धन होता है, लेकिन युवाओं के पास सिर्फ मनोबल होता है।

प्रेमचंद कासलीवाल | नागदा, मध्य प्रदेश

 

भारी पड़े आंसू

राकेश टिकैत के आंसुओं ने सरकार के मंसूबों पर पानी फेर दिया। आउटलुक के 22 फरवरी अंक में, ‘नए समीकरणों का आगाज’ पत्रिका की संवेदनशील, गंभीर और साहसी टीम की मेहनत का परिणाम है। इसमें समस्त उतर भारत की संयुक्त किसान मोर्चे के संगठनों की वास्तविकता को बेहतरीन ढंग से बयां किया गया है। किसान आंदोलन के चलते भाजपा सरकार ने सभी बातों को सुनना बंद कर दिया है। किसानों के विराट आंदोलन में ऐसे कुछ असामाजिक तत्वों की गतिविधियों ने ट्रैक्टर रैली के जरिए लाल किले पर निशान साहिब फहरा दिया, जबकि किसानों के नेता राकेश टिकैत दिल्ली पुलिस को यही सफाई देते रहे कि किसानों का इससे कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन राकेश टिकैत ने भी हार नहीं मानी और मोर्चे पर डटे रहे। आज राकेश टिकैत के आंसू किसानों का सबसे बड़ा संबल बन चुके हैं। केंद्र सरकार भले ही किसान आंदोलन को खत्म मान कर चल रही है लेकिन वक्त इसकी अहमियत बताएगा।

डॉ. जसवंत सिंह जनमेजय | नई दिल्ली

 

भर गई खाई

आउटलुक के 22 फरवरी अंक में, ‘नए समीकरणों का आगाज’, ‘बदली फिजा’, ‘अब मूंछ की लड़ाई’ और राकेश टिकैत के साक्षात्कार से पत्रिका पर एक बार फिर भरोसा बढ़ गया। सभी लेखों में निष्पक्ष होकर किसानों का हाल बताया गया है, क्योंकि आजकल पत्रकारिता में निष्पक्षता ही सबसे बड़ा संकट है। मीडिया में स्पष्ट तौर पर दो फाड़ दिखाई देते हैं। ऐसे में आउटलुक जैसी पत्रिका उस भरोसे को बनाए रखती हैं। किसान आंदोलन से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2013 में जाट और मुसलमानों के बीच हुए दंगों की खाई भी भर गई है। अब इस क्षेत्र के लोग मुसलमान या जाट के रूप में नहीं बंटे हैं। ये लोग किसान होकर एक साथ खड़े हैं। ‘पगड़ी बचाने पर पहुंची लड़ाई’ में पंजाब के किसान आंदोलन की रूपरेखा के साथ-साथ वहां के राजनैतिक परिदृश्य को भी समझाया गया है। ‘टूटती नहीं उलझन’ में कांग्रेस की भी सही तरीके से पड़ताल की गई है। कांग्रेस को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

खुशवीर मोठसरा | चरखी दादरी, हरियाणा

 

विभिन्न पक्षों का वर्णन

आउटलुक समीक्षावादी और विश्लेषणपरक पत्रिका है, जो समय-समय पर राष्ट्रीय और ज्वलनशील मुद्दों को उठाती रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण किसान आंदोलनों से जुड़े पहलुओं को उठाना है। 22 फरवरी के आउटलुक के अंक में जिस तरह से पश्चिम बंगाल के चुनाव को नारों में रूपांतरित कर प्रस्तुत किया गया वह बहुत पसंद आया, इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में माफियाओं पर बुलडोजर का चलाना तथ्यों पर आधारित विश्लेषण था। मैं लंबे समय से आउटलुक पत्रिका से जुड़ा हुआ हूं और मुझे इस बात की खुशी है कि हम जैसे पाठकों के पत्रों को भी पत्रिका में प्राप्त स्थान मिलता है।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

 

न हो पहरा

‘प्यार पर पाबंदी कितनी जायज’ (14 दिसंबर) पढ़ कर लगा कि प्रेम गुनाह नहीं है लेकिन छल या छद्म नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें झूठ बोल कर प्रेम किया गया। यह गलत है। प्रेम या विवाह को कोई नहीं रोक सकता। लेकिन रिश्ते में ईमानदारी होना बहुत जरूरी है।

बी.एल. सचदेवा | नई दिल्ली

 

पुरस्कृत पत्र

किसको है खतरा

भारत धीरे-धीरे विवादप्रिय देश बनता जा रहा है। सोशल मीडिया ने ऐसा माहौल रच दिया है कि लोगों को बस विवादास्पद मुद्दे ही दिखाई देते हैं। 8 मार्च के अंक में, ‘असहमति पर बढ़ती दबिश’ पढ़ कर निराशा हुई। आखिर सरकार चाहती क्या है। सरकार को क्यों लगता है कि कुछ युवाओं के बोलने से देश खतरे में आ जाएगा। वे कहते हैं कि उन्हें भारी जनादेश मिला है। फिर जनादेश पाने वाली पार्टी चंद युवाओं से क्यों डरती है। शासन के पास करने को बहुत काम होते हैं। लेकिन उनका पूरा ध्यान हर असहमति को सहमति में बदलने या आवाज दबाने में लगा हुआ है। जब हाथ की उंगलियां ही समान नहीं हैं, तो फिर इतने बड़े देश में लोग समान विचार के कैसे हों, सरकार इस पर विचार करें।

संजय हेगड़े |बेंगलूरू, कर्नाटक

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