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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आई पाठको की प्रतिक्रियाएं
चिट्ठियां

पुरस्कृत पत्र

संतुलन जरूरी

आउटलुक की पाठक होने के नाते कह सकती हूं कि इस पत्रिका में हर विषय की जानकारी होने से सामग्री का संतुलन बना रहता है। इस अंक में (19 अक्टूबर) किसानों की परेशानी के साथ श्रमिकों की दुविधा, दलितों पर अत्याचार, मध्य प्रदेश के उपचुनाव, बिहार के विधानसभा चुनाव में अच्छी जानकारी दी गई है। किसान आंदोलन पर भी इस अंक बहुत अच्छा लेख है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का इंटरव्यू भी बहुत मौजू॒ है। लेकिन लगा उन्होंने सरकार के बयान को ही दोहरा दिया है। इस अंक का सबसे खास लेख, पटना कलेक्ट्रेट परिसर पर लगा। आखिर क्यों सरकार ऐतिहासिक इमारतों को संरक्षित नहीं करती? भारत में पता नहीं कब इतिहास के प्रति प्रेम जागेगा।

गुंजन सरकार |आसनसोल, पश्चिम बंगाल

 

अनजान सरकार

19 अक्टूबर की आवरण कथा, ‘बाजार हवाले किसान’ पढ़ी। आवरण पर प्रकाशित चित्र ही अपने आप में बहुत कुछ कहता है। कहने को तो भारत कृषि प्रधान देश है, लेकिन कृषि में लगे लोगों की दुर्दशा किसी से छुपी नहीं है। आवरण कथा में बहुत विस्तार से किसानों की दरिद्रता के बारे में बताया गया है। सरकार चाहे किसी की भी हो, अब किसानों के बारे में ठोस नीति बननी चाहिए। क्या सरकार बिचौलियों के हस्तक्षेप से अनजान है? यदि नहीं तो फिर क्या वजह है कि बिचौलिए तो फलते-फूलते हैं और किसान गरीब के गरीब ही रह जाते हैं।

अरविंद पुरोहित | रतलाम, मध्य प्रदेश

 

ईश्वर भरोसे किसान

आउटलुक की आवरण कथा, ‘बाजार हवाले किसान’ (19 अक्टूबर) में कई मुद्दे उठाए गए हैं, लेकिन ठोस समाधानों की कमी खलती है। हालांकि नए कृषि कानून को इस लेख में बहुत अच्छे ढंग से समझाया गया है। अनेक किसान नए कृषि कानून के विरोध में हैं। सड़कों पर आंदोलन हो रहे हैं। सरकार भी पीछे हटने के मूड में नहीं है। यदि यह कानून वाकई किसानों के हित में है, तो सरकार को विस्तार से इसके बारे में समझाना चाहिए और बाकायदा एक जागरूकता अभियान चलाना चाहिए, जिसमें सरकारी नुमाइंदे इस कानून की विशेषता समझाएं। लेकिन सरकार भी चुप साध कर बैठी है, जिससे लगता है कि जरूर इस कानून में झोल है।

प्रताप शंकर वर्मा | मेरठ, उत्तर प्रदेश

 

किसानों की परेशानी

आउटलुक के नए अंक (19 अक्टूबर) में किसानों की बात की गई और संपादकीय भी इसी पर आधारित था। ‘किसान की त्रासदी’ में बहुत अच्छे ढंग से किसानों की दशा बताई गई है। किसानों को आयकर में छूट ऐसा मसला है, जिस पर कम ही किसान ध्यान देते हैं। संक्षिप्त तरीके से इसमें बताया गया है कि आखिर क्यों बीज और खाद पर सबसिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य के बाद भी किसानों की आय में सुधार नहीं हुआ। कृषि और किसान ऐसा विषय है, जिस पर लगातार लेख और जानकारी आती रहनी चाहिए, ताकि आम लोग भी इससे जुड़ कर किसानों की परेशानियों को समझ सकें।

श्रीवत्स भारद्वाज | हरिद्वार, उत्तराखंड

 

थमती नहीं प्रवृत्ति

19 अक्टूबर के अंक में, ‘आखिर कौन हैं दलितों के साथ हिंसा करने वाले’ लेख बहुत अच्छा लगा। वाकई दलितों के प्रति हिंसा की प्रवृत्ति रुकने का नाम नहीं ले रही है। इन सबमें स्त्री हमेशा निशाने पर रहती है। लेख उस प्रवृत्ति की गहराई तक जाता है। सामाजिक परिवेश के साथ-साथ पालन-पोषण भी उस मानसिकता को बढ़ावा देने में महती भूमिका अदा करता है। राज्य-केंद्र सरकारें यदि सख्त कदम उठा लें, दोषियों को जल्द से जल्द सजा मिल जाए तो बहुत हद तक ऐसे अपराधों पर लगाम लगाई जा सकती है। लेकिन भारत में सजा भी जाति देख कर होती है। अगर किसी सवर्ण को सजा हो भी जाए तो वह बहुत मामूली होती है और फिर कुछ सालों बाद ‘अच्छे चाल-चलन’ का हवाला देकर वे लोग जेल से छूट जाते हैं। जब तक यह सब बंद नहीं होगा, दलितों के साथ ऐसा शर्मनाक व्यवहार होता रहेगा।

मालिनी ठाकुर | फारबिसगंज, बिहार

 

यह कैसा न्याय

28 साल बाद सीबीआइ की विशेष अदालत ने फैसला दिया कि बाबरी विध्वंस मामले में कोई भी दोषी नहीं है! 19 अक्टूबर अंक में, ‘कोई सबूत नहीं सब बरी’ लेख में उस दिन घटनास्थल पर मौजूद दिवंगत प्रमोद महाजन, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी का फोटो प्रकाशित किया गया है। क्या इतना बड़ा सबूत अदालत के पास नहीं होगा? लोगों का न्यायपालिका में भरोसा कायम रहता, इसके लिए जरूरी था कि अदालत भले ही मामूली सजा देती लेकिन सजा देनी चाहिए थी। यह निर्णय हैरान करने वाला है।

कनक तिवारी | बलरामपुर, उत्तर प्रदेश

 

श्रमिकों का अहित

इस बार का आउटलुक का अंक श्रमिकों-किसानों के मुद्दे लिए हुए थे। ‘श्रमेव अ-जयते’ (19 अक्टूबर) ने श्रमिकों के अधिकारों पर कटौती को विस्तार से समझाया। यह सरकार दावा करती है कि वह गरीबों के साथ है लेकिन उनकी कोई भी नीति श्रमिकों, मजदूरों और वंचितों के हक में नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण है कि सरकार खुद ही सारे निर्णय ले लेती है। लोकतांत्रिक तरीके से कभी कुछ नहीं किया जाता। इस बार भी बिना संसद में ऐसा ही कुछ हुआ। श्रमिकों का सबसे बड़ा हथियार हड़ताल तो सरकार ने छीन ही लिया है। फिर किस बात का सुधार और श्रमिकों का कौन सा हित?

कैलाश रानी राजपूत | जोधपुर, राजस्थान

 

सरकार का कर्तव्य

जब इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनलों पर ‘गोदी मीडिया’ का ठप्पा लग रहा है, ऐसे में आउटलुक हर विषय को निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ उठाता है। 19 अक्टूबर के अंक की आवरण कथा, (बाजार हवाले किसान) किसानों की समस्याओं, उसके आंदोलन और सरकार द्वारा बनाए गए कानून पर केंद्रित थी। भले ही सरकार किसानों के बिल से फायदे की बात कर रही है, लेकिन लोकतंत्र में सरकार का यह कर्तव्य है कि वह किसानों की शंकाओं पर बातचीत करे, उन्हें संतुष्ट करे। लेकिन वह विरोधियों से कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है। सरकार ने राज्यसभा में जिस तरह का व्यवहार किया है, उसी से सरकार की मंशा पता चलती है।

हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश

 

महत्वपूर्ण मुद्दे गायब

5 अक्टूबर के अंक में, ‘हर कोई खेल रहा दलित कार्ड’ लेख से बिहार चुनाव के पहले के हालचाल मिले। दरअसल, बिहार में जब भी चुनाव होता है, रोजगार, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे गौण हो जाते हैं और सभी राजनीतिक दल जातिगत गणित साधने में लग जाते हैं। लिहाजा जनसरोकार से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे चुनावी सभाओं से गायब हो जाते हैं। तमाम पार्टियां भले ही कहें कि वे विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही हैं, लेकिन हर पार्टी जाति के गणित को देखते हुए ही उम्मीदवार को टिकट देगी। जहां जिस जाति का बाहुल्य होगा वहां उसी जाति से संबंधित उम्मीदवार पर पार्टी दांव लगाएगी। यदि वह उम्मीदवार बिना काम किए या आपराधिक पृष्ठभूमि का होने के बाद भी जीत जाता है तो सोचिए गलती किसकी है। जाहिर सी बात है मतदाता भी हर मुद्दे से ऊपर जाति को रखते हैं। इसलिए बाद में मतदाता यह शिकायत नहीं कर सकते कि उनके क्षेत्र का विधायक काम नहीं करता है। यदि वे लोग सही उम्मीदवार को चुनेंगे तो धीरे-धीरे जाति आधारित चुनाव खुद-ब-खुद खत्म हो जाएंगे।

कुंदन कुमार | बीएचयू, वाराणसी

 

मजबूत गिरफ्त

आउटलुक के 5 अक्टूबर अंक में, नशे के कारोबार पर बहुत अच्छी जानकारी है। भारत में नशे का कारोबार तेजी से अपने पैर पसार रहा है। युवाओं और बच्चों पर इसकी गिरफ्त इतनी मजबूत है कि वे अपने करिअर या भविष्य की चिंता किए बिना इसके गर्त में डूब रहे हैं। इससे कई प्रतिभाशाली बच्चे जीवन में पिछड़ रहे हैं। इसके खात्मे के िलए काम होना चाहिए।

चंद्रिका कुमार | पुणे, महाराष्ट्र

 

इतिहास का आईना

प्रिय क्रिस,

एशले और उबाऊ दुनिया के शैतानी प्रतिभाशालियों

आपको क्या लगता है, आप रिश्वत में 1934 में बना सबसे शानदार कोरोना साइलेंट टाइपराइटर उपहार में देकर मेरे ‘काम’ के बारे में जानने की कोशिश करेंगे?

आप ऐसा सोचते हैं तो आप गलत हैं। लेकिन एक बात है, यह शानदार है। यह बेहतर काम करता है और इसके गहरे लाल रंग के तो क्या कहने। लेकिन जरा ठहरिए...मैं इतना भी सरल नहीं हूं। और हां, यह वाकई बिना शोर के टाइप करता है।

तो चलो फिर ठीक है!

मेरे पास मेरे लोग हैं, जो आपसे संपर्क करेंगे और साक्षात्कार जैसी प्रक्रिया पर काम करेंगे

तुम सब भाड़ में जाओ

टॉम हैंक्स

वर्तनी का कबाड़ा- 2012 में क्रिस हार्डविक (नर्डिस्ट पॉडकास्ट के प्रस्तोता) ने टॉम हैंक्स को अपने शो में आने के लिए मनाने के लिए 1934 का दुर्लभ स्मिथ कोरोना टाइपराइटर भेजा। पुराने टाइपराइटर इकट्ठा करने के शौकीन हैंक्स ने क्रिस को एक पत्र लिखा, जिसमें वर्तनी की गलतियों की भरमार थी।

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