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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आई पाठकों की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

कुछ के लिए ही सुविधाजनक

‘नए साल के पदचिन्ह: मुबारक या मुश्किल भरा’ (आवरण कथा, 24 जनवरी 2022) बहुत अच्छी लगी। संपादकीय टीम ने हर क्षेत्र की चुनौती को बहुत ही खूबसूरत ढंग से दिखाया। कल क्या होता है, यह तो भविष्य के गर्भ में है। कोई भी सटीक तरीके से कुछ नहीं बता सकता, लेकिन क्या होगा ये जानने की उत्सुकता मनुष्य का स्वभाव है। पूरे लेख में हाइब्रिड पढ़ाई पर आकलन सबसे अच्छा लगा। यह तो दिख ही रहा है कि आगे चलकर यही मॉडल स्थायी रूप ले लेगा। उच्च शिक्षा में तो यह फिर भी फायदेमंद है क्योंकि छात्रों को पढ़ाई का एक आइडिया होता है। जो लोग महानगरों में आकर बड़ी संस्थाओं में पढ़ नहीं सकते या किसी खास कोचिंग के लिए बड़े शहर नहीं जा सकते उनके लिए यह सुविधाजनक है। महामारी के बाद सरकार को यह कोशिश जरूर करनी चाहिए कि हाइ स्कूल तक की पढ़ाई सिर्फ कक्षाओं में हो। उनके लिए यही बेहतर विकल्प है।

तारिणी मेहता | गांधीनगर, गुजरात

 

तस्वीरों में बीता साल

तस्वीरों की कितनी अहमियत होती है यह ‘अलविदा 2021: भूले न भूलेगा बीता बरस’ (10 जनवरी) देख कर महसूस हुआ। पिछला साल वाकई कठिन बीता। बीते साल की कुछ तस्वीरें देख कर पुराने दृश्य फिर ताजा हो गए। 2021 में ही खुद को लोकतंत्र का पहरुआ मानने वाले अमेरिका में ट्रंप समर्थकों और कुछ सिरफिरों ने उसकी सारी हेकड़ी निकाल दी। भारत में भी किसान आंदोलन के दौरान लाल किले पर कुछ लोगों ने धार्मिक झंडा फहरा कर देश के लोगों को हैरान कर दिया। कोरोना के कहर को तो कई भी नहीं भूल सकता। लेकिन जिस तरह अंधेरी रात के बाद सबेरा होता है, उसी तरह मीरा बाई चानू का रजत, नीरज चोपड़ा का स्वर्ण पदक, साधारण परिवार की लड़की मान्या सिंह का रनरअप बनना और साल के अंत की सबसे सुखद घटना, हरनाज कौर संधू का मिस यूनिवर्स का ताज पहनना कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।

प्रभात कुमार | दरभंगा, बिहार

 

पठनीय हो लेख

इस बार की आवरण कथा, (‘बाइस की बिसात’, 24 जनवरी 2022) कल्पनाशीलता का अच्छा नमूना है। फलां बात होगी कि नहीं, अलां मुद्दा सुलझेगा कि नहीं। ये महाशक्ति बनेगा कि नहीं, वो पार्टी जीतेगी कि नहीं। ऐसी कयास वाली खबरें तब चल सकती हैं जब सामने कोई मुद्दा न हो, कि क्या लिखा जाए। देश में इतने मुद्दे हैं, जिन पर लिखा जा सकता है। लेकिन आउटलुक ने इस बार शॉर्टकट को तरजीह दी। अमूमन मैं कोई भी अखबार या पत्रिका पढ़ लेता हूं, उस पर प्रतिक्रिया नहीं देता। लेकिन जब भाजपा की चुनौती, कांग्रेस की केंद्रीय भूमिका के बारे में पढ़ा, तो खुद को रोक नहीं पाया। यह तो राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाला व्यक्ति भी जानता है कि यह क्षेत्र पल-पल घटनाक्रम वाला है। कब क्या हो जाएगा कोई नहीं जानता। कौन सा उद्योग डूबेगा और कौन सा उबर जाएगा इसकी भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। हां यदि आप भविष्य की तकनीक की कुछ बात करते, तो भी यह लेख पठनीय होता। आने वाले दिनों में क्या सभी शहरों में ग्रीन व्हीकल हो जाएंगे, क्या ड्रायवरलैस कारें वाकई सड़कों पर बड़ी संख्या में दौड़ेंगी, क्या बुलेट ट्रेन का भारत में भविष्य है, क्या हाइपरलूप भारत में बन पाएगा। तकनीक से जुड़े ऐसे और भी तमाम सवाल हैं, जिनके बारे में हिंदी का पाठक जानना चाहता है क्योंकि उसे हिंदी में ऐसी सामग्री मिलती नहीं है। एलन मस्क आखिर भारत में क्या करने जा रहे हैं, कौन सी तकनीक ला रहे हैं। यह सब बताया जाए तो ठीक रहेगा। जाहिर सी बात है, 2022 से सभी को खूब आशाएं हैं। महामारी की आशंका बनी हुई है और इस बात का जवाब किसी वैज्ञानिक के पास भी नहीं है कि आखिर ये कब खत्म होगी। आम जनता को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन सी पार्टी का उदय होगा और कौन गर्त में जाएगी। हां अगर इसमें भी कोई रोचक तथ्य हो तो बात अलग है।

सुरेंद्र तोमर | अलवर, राजस्थान 

 

काले धन पर चोट

‘छापे पर उठते सवाल’ (24 जनवरी 2022) लेख की शुरुआत में ही लिखा है, “एक बार फिर चुनाव से पहले जांच एजेंसियों के छापे का ‘खेल’ शुरू हो गया है।” रिपोर्टिंग का यह बेहद गलत तरीका है। किसी के यहां भी छापा एक दिन में नहीं डल जाता। टीम उसके लिए बाकायदा खोज-पड़ताल करती है, उसके बाद ही छापा मारा जाता है। हर बात राजनीति से प्रेरित नहीं होती। छापा कोई खेल नहीं है। चुनाव में यही धन वोटरों को खरीदने के काम आता है। जनता की मेहनत की कमाई ये लोग अपने घर में दबा कर रखते हैं। यदि छापे में करोड़ों की अघोषित संपत्ति निकली है, तो इसकी सराहना की जानी चाहिए। न कि छापे को खेल लिखा जाना चाहिए। काले धन को बाहर निकालने के लिए बार-बार नोटबंदी नहीं की जा सकती। तब काला धन सामने लाने के लिए छापा मारना ही एकमात्र विकल्प है। चुनावी मुद्दों में ऐसे मामले आ जाने से दोषी लंबे समय तक बचे रहते हैं और गरीब पिसता ही रहता है। नौकरी-पेशा लोगों से तो सरकार दफ्तर से ही टैक्स काट लेती है। लेकिन ऐसी बड़ी मछलियां करोड़ों-अरबों रुपये की संपत्ति इकट्ठा कर सिस्टम को अंगूठा दिखाती रहती हैं। बेहतर हो कि ऐसी कार्रवाई की सराहना की जाए।

सी.एस. कदम | पुणे, महाराष्ट्र

 

पूरे कुएं में भांग

‘जहरीले असभ्य बोल’ (24 जनवरी 2022) लेख दहशत पैदा करने वाला है। उत्तराखंड के हरिद्वार में और फिर छत्तीसगढ़ के रायपुर में जो नफरती आयोजन हुए उस पर कोर्ट को संज्ञान लेना चाहिए। यह इतना आसान मामला नहीं हैं, जितना दिख रहा है। धर्म के चोले की आड़ में इनका मकसद साफ नजर आता है। लेख में लिखा है कि “ऐसे तत्वों को इस तरह की बोली मंच लगाकर बोलने की हिम्मत कहां से आ जाती है?” दरअसल इन लोगों को दिमागी हिम्मत तो बहुत पहले से थी। भगवा झंडे की आड़ में एक ऐसा दल बना हुआ है, जिसके कार्यकर्ता बलवा, तोड़फोड़ के उस्ताद हैं। अभी तो पूरे कुएं में भांग घुली हुई है। यह हिम्मत उसी से पैदा होती है। मूर्ख हैं वे लोग जो इन जैसे नकली भगवाधारियों की बातों में आ जाते हैं।

सारिका जैन | इंदौर, मध्य प्रदेश

 

कौन हैं प्रभावित होनेवाले

चुनाव का वक्त है, तो जो न हो वही कम लगेगा। अभी तो पता नहीं और क्या-क्या होना बाकी है। उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में हुए आयोजन (‘जहरीले असभ्य बोल’ (24 जनवरी 2022) इसी बात को बताते हैं। चंद स्वार्थी लोगों की बदौलत देश, समाज और धर्म सबका माथा शर्म से झुक जाता है। ऐसा भी नहीं है कि ये लोग यह सब बोलने के परिणामों के बारे में नहीं जानते। सरकार यदि सख्त कदम नहीं उठाएगी, तो निश्चित तौर पर भारत में गृहयुद्ध होगा। दो धर्मों के बीच खाई बढ़ाना इस सरकार को महंगा पड़ेगा। सरकार तो आज है, कल नहीं होगी, लेकिन लोकतंत्र को तो हमेशा रहना है। इन लोगों ने यह नहीं सोचा कि चुनाव के वक्त भावनाएं भड़काने से ये लोग न खुद का भला कर रहे हैं न ही समाज का। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि ये लोग गांधी को गाली देते हैं या गोडसे का महिमामंडन करते हैं, तो कौन इनकी बातों से प्रभावित होता है। यदि नहीं होता तो क्या ये लोग सिर्फ कोशिश कर रहे हैं कि आज नहीं तो कल लोगों का ध्यान इस ओर जाएगा ही। लेकिन यदि कुछ लोगों पर भी इसका असर पड़ता है, तो वे लोग कौन हैं और आखिर कैसे वे इन लोगों की बातों में आ जाते हैं। क्योंकि नफरती भाषण सुन कर अभी भले ही चार लोग खुश हों लेकिन इनके चालीस में तब्दील होने में बहुत समय नहीं लगेगा। इन लोगों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।

सचिन शाह | दिल्ली

 

वक्त-वक्त की बात

एक समय था जब शिव तांडव गा कर प्रसिद्ध हुए कालीचरण महाराज को पूरे मीडिया ने सिर आंखों पर बैठाया था। अब यही कालीचरण महाराज जेल में सलाखों के पीछे हैं। (‘जहरीले असभ्य बोल’ (24 जनवरी 2022) लेख बताता है कि इन लोगों के मकसद बहुत खास हैं। इनका मकसद सिर्फ चुनाव तक ही सीमित नहीं है। बल्कि ये लोग गांधी को गलत कह कर गोडसे को लगातार सही ठहरा रहे हैं। एक वक्त ऐसा आएगा जब इनका झूठ सच हो जाएगा। बेशक इसमें समय लगेगा लेकिन इन लोगों ने कोशिश तो शुरू कर ही दी है। एक झूठ को बार-बार बोलने से फिर वही सच के रूप में मान्य हो जाता है। एक पूरी पीढ़ी बाद में मानने लगेगी कि गोडसे सही था। इन नफरती भाषणों को सिर्फ चुनाव तक जोड़ कर देखना इनकी अनदेखी होगी। इनकी योजना चुनाव से भी आगे की है। चुनाव तो राजनीतिक पार्टियों का हथियार है लेकिन जो लोग धर्म के नाम पर जहर घोलना चाहते हैं उन्हें तो लोगों के दिमाग की जरूरत होती है, जिसमें वे नफरत के बीज बो सकें। उत्तर प्रदेश में चुनाव हैं इसकी फिक्र इन लोगों को वाकई नहीं है। क्योंकि यहां जो कुछ दांव पर लगा है वह केंद्रीय नेतृत्व का सिरदर्द है। उत्तराखंड के बाद उन्होंने छत्तीसगढ़ को इसलिए चुना क्योंकि यह भी पिछड़ा क्षेत्र है और हिंदी प्रदेश है। यहां के लोगों को भी धर्म के नाम पर आसानी से ठगा जा सकता है। उत्तराखंड राज्य सरकार ने कार्रवाई इसलिए नहीं की होगी क्योंकि उन्हें लगा होगा कि ये तो अपने लोग है। लेकिन ऐसे विचार वाले समझ नहीं रहे हैं कि यही अपने लोग एक दिन सभी को नुकसान पहुंचाते हैं।

सेवकराम प्रजापति | चुरू राजस्थान

 

गैरजरूरी राष्ट्रवाद

कोविड महामारी की दूसरी लहर में लोगों ने खोखली स्वास्थ्य सुविधाओं के चलते अपनों को खोया। अब भी स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है। युवाओं को रोजगार चाहिए और महंगाई से आम जनता परेशान है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सहारे वास्तविक समस्याओं से निजात तो नहीं मिलने वाली। राजनेता अब राजनीति का अर्थ सत्ता पर किसी भी तरह कब्जे को समझते हैं। राष्ट्रवाद से पेट नहीं भरता। इस अंक (10 जनवरी 2022) में सौंदर्य की आभा बिखेरती भारतीय युवतियों के बारे में स्वाति बक्शी का लेख रोचक लगा। सौंदर्य स्पर्धाएं सदैव बाजार की मांग पूरी करती नजर आती हैं। यह माना जा सकता है कि इन स्पर्धाओं में युवतियों को अपनी खूबियों को निखारने और बेबाकी के साथ उसे दुनिया के सामने रखने का एक बेहतरीन मौका मिलता है। चकाचौंध की बाजारी दुनिया नवघोषित सुंदरियों का स्वागत करती है। बीते बरस की यादों को संजोये यह अंक संग्रहणीय बन पड़ा है। 

हिमांशु शेखर | प्रयागराज, उत्तर प्रदेश

 

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पुरस्कृत पत्र

खूबसूरत कथा

खूबसूरती में भी दुनियादारी चलती है, यह आवरण कथा (10 जनवरी) से ही पता चला, सौंदर्य प्रतियोगिताओं से लेकर प्रसाधनों के इस्तेमाल तक। सौंदर्य की राजनीति से लेकर उसके दबाव तक। सभी तरह की जानकारी इसमें शामिल थी। वाकई अंतरराष्ट्रीय मंच तक पहुंचना फिर वहां इतने देश की प्रतिभागियों में अपना स्थान बनाना आसान नहीं है। जो लड़कियां इन प्रतियोगिताओं में जाना या जीतना चाहती हैं उन्हें हिकारत से नहीं देखा जाना चाहिए। इन प्रतियोगिताओं को खराब मानने वाले क्या बाजार में अपने लिए अच्छी चीजें नहीं छांटते, क्या वे किसी खूबसूरत प्राकृतिक स्थल घूमने नहीं जाते, क्या उन्हें खूबसूरत चीजें नहीं लुभाती। तो कोई लड़की खूबसूरत दिखना चाहती है, तो फिर यह दोहरा मापदंड क्यों?

अमन वर्मा | दिल्ली

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