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नजरिया/हिंदी: बोली की महत्ता बताने वाली जिज्जी

भाषा का मतलब शुद्ध उच्चारण और मानक प्रयोग से कहीं ज्यादा है, बच्चों पर इसका दबाव नहीं होना चाहिए
स्कूल में प्रवेश के साथ ही बच्चों पर मानक भाषा के इस्तेमाल का दबाव शुरू हो जाता है

बोली और भाषा की बहस ने हिंदी शिक्षा का जितना अहित किया है, वह अंग्रेजी के प्रसार के कारण हुए ‌अहित से कम नहीं है। सात-आठ वर्ष की आयु के बच्चे शिक्षक के सवाल का जवाब अपनी बोली में दे दें, तो आसमान टूट पड़ता है। स्कूल में प्रवेश के साथ ही बच्चों पर मानक भाषा के इस्तेमाल का दबाव शुरू हो जाता है। यह दबाव उनकी मुखरता, कल्पना और स्कूल के प्रति लगाव को प्रभावित करता है। उनकी हिंदी उस सिंचाई से वंचित हो जाती है, जो सिंचाई हमारी क्षेत्रीय बोलियां, आधुनिक काल के साहित्य की जड़ों में करती रही है। इस सिंचाई के बगैर हम विजयदान देथा और फणीश्वरनाथ रेणु की कल्पना नहीं कर सकते।

स्कूल और कॉलेज में हिंदी पढ़ाने के लिए नियुक्त अध्यापक शायद इस योगदान से परिचित नहीं हैं। प्रशिक्षण के दौरान वह यही सिखाता है कि शुद्ध उच्चारण और मानक शब्दावली का अभ्यास कराना ही हिंदी के पाठ्यक्रम का प्रमुख लक्ष्य है। इस भ्रांति को दूर करना आसान काम नहीं है। इस दिशा में सोचने की प्रेरणा साहित्य, प्रसार माध्यम और फिल्म संगीत लगातार देता रहा है। इस क्रम में एक अभिनव प्रयोग पुष्पा जिज्जी (चेतना सक्सेना) नाम से आ रहे संक्षिप्त वीडियो में है। उनकी भाषा बुंदेली है और विषयवस्तु का मिजाज हास्य-व्यंग्य का है।

उन्हें देख-सुनकर अज्ञेय के एक कथन की याद आती है और एहसास होता है कि शिक्षा का ढांचा भले कमजोर हो, उसने लड़कियों की सामाजिक उपस्थिति और भागीदारी के स्वरूप पर असर डाला है, जो पहले संभव नहीं था। लेकिन आज है। अज्ञेय ने कहा था कि तमाम किस्मों के दायित्वों का बोझ स्त्रियों के जीवन में खुले हास्य को दुर्लभ बना देता है। प्रायः वह व्यंग्य की छाया में ही प्रकट होता है। पुष्पा जिज्जी के वीडियो भी व्यंग्य-केंद्रित हैं, पर बुंदेली के प्रयोग से पैदा हुई व्यंजना और लगातार दमित हास्य का पुट देते हैं। जिज्जी स्वयं न के बराबर हंसती और मुस्कुराती हैं। इधर के कार्यक्रमों में वे केवल एक बार हंसती दिखी हैं, वह भी साड़ी बेचने वाले दुकानदार की भूमिका में। अधिकांश कार्यक्रमों में वे गंभीर बनी रहती हैं और कमर के दर्द या सामान्य थकान की मुद्रा में अपनी देवरानी से मिली हर खबर के समर्थन में बोलती हैं। बुंदेली जिस क्षेत्र की भाषा है, वहां सामंती दबाव सहते जाने की विवशता लोकजीवन का अंग रही है। सत्ता के निर्णयों से सहमति जताकर श्रोता के मन में हास्य-भाव इस तरह पैदा करना कि वह भी हंसता हुआ न देख लिया जाए, पुष्पा जिज्जी के व्यंग्य का मर्म है।

हरिशंकर परसाई और शरद जोशी का गद्य आज के कम युवा पढ़ते या पढ़ पाते हैं। उनकी जो रचनाएं कोर्स में लगी हैं, उनकी व्यंजना भी शिक्षक को खोल-खोलकर दिखानी पड़ती है। समकालीन हास्य-व्यंग्य का लिखित संसार अब प्रायः लक्षणा से ही काम चला लेता है। यूट्यूब की दुनिया में ही कुछ प्रयोगधर्मिता बची है, लेकिन उस पर पड़ रहे व्यापारिक और अन्य दबाव अक्सर फूहड़ नकल या अतिशय नाटकीयता उपजा देते हैं। समकालीन विषयों पर टिप्पणी करने के लिए ऐसी शब्दावली जिसमें व्यंजना की शक्ति बची हो, पत्रकारिता पर पड़ रहे दबावों के चलते काफी सिकुड़ गई है।

इस परिस्थिति में बुंदेली के घरेलू संस्कार लेकर चल रही पुष्पा जिज्जी हमें एक बड़े सत्य की याद दिलाती हैं। हिंदी की शिक्षा इस सत्य को पहचानने और स्वीकारने में अभी और कितना समय लेगी कहना मुश्किल है। सत्य इतना-सा है कि हिंदी की ताकत और उसकी जिजीविषा का अजस्र स्रोत उसकी आंचलिक बोलियों में हैं। रघुवीर सहाय ने हिंदी पर अपनी एक कविता में लिखा भी था कि जिस दिन शिक्षक अपनी जकड़न और व्यवस्‍था की अकड़न से मुक्त होगा, हिंदी के ‘हिरदै’ को खोलकर रख देगा।

कृष्ण कुमार

(लेखक शिक्षाविद हैं)

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