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28 नवंबर 2022 · NOV 28 , 2022

स्मृति: ‘सेवा’ वाली इला

वे एकाकी पड़ गईं तो उन्होंने जीवन से त्यागपत्र देने से पहले अध्यक्षता से त्यागपत्र दे दिया। किसी को लगा होगा कि वे गईं लेकिन दरअसल तो हम सब गए!
इला भट्ट (7 सितंबर 1933-2 नवंबर 2022)

पढ़ कर यह जानना-समझना पूरी तरह संभव नहीं है कि गांधी की गढ़ी महिला कैसी होती थी! क्योंकि गांधी तो अब हैं नहीं-पिछले 75 साल से नहीं हैं-कि जो बनाते जाते और हम देखते जाते कि कैसी बनी थीं मृदुला साराभाई या सरोजिनी नायडू या सुशीला नैयर या आभा या मनु या प्रभावती? कैसे जानें हम कि ये सब कैसी बनी थीं; और फिर यह भी कि ये सब कैसे बनी थीं? किताबों के अलावा हमारे पास कुछ दूसरा होता ही कैसे? हम तो उनके बहुत बाद पैदा हुए हैं। गांधी भी तो हम किताबों में ही खोजते-पाते रह जाते, यदि गांधी कुछ ऐसे लोगों को अपने नमूने की तरह हमारे बीच छोड़ न जाते कि जिनको देखो तो कुछ अंदाजा लगा सकोगे कि गांधी के गढ़े आदमी कैसे होते थे! और यह बारीक बात भी तो वे ही हमसे कह गए न कि अब ऐसा कोई एक व्यक्ति तो होगा नहीं कि जो मेरा पूरा प्रतिनिधित्व कर सके लेकिन कुछ लोग ऐसे होंगे कि जो मेरा कुछ अंशों में प्रतिनिधित्व कर सकेंगे। तो विनोबा, जयप्रकाश, काका साहब, दादा धर्माधिकारी, धीरेंद्र मजूमदार जैसे कुछ और जवाहरलाल, सरदार, लोहिया, राजेंद्र बाबू जैसे कुछ नमूने हमने देखे। जो किताबों में पाया हमने और जो इनमें देखा हमने उससे कुछ अंदाजा लगाया कि गांधी की चाक कैसे चलती थी व कैसा गढ़ती थी।

सेवा वाली इला भी ऐसा ही एक नमूना थीं। गांधी ने सीधे उन्हें नहीं गढ़ा था, गांधी ने उन्हें छुआ था वैसे ही जैसे महानात्माएं हमें दूर से छूती हैं और गहरे आलोकित करती हैं। जहां तक मैं जानता हूं, 7 सितंबर 1933 को जन्मी और 2 नवंबर 2022 को जिस इला भट्ट का अवसान हुआ, उन्हें कभी गांधी का सीधा साथ नहीं मिला और न वे गांधी आंदोलन में शरीक ही रहीं। होना संभव भी नहीं था। वकील पिता तथा महिलाओं के सवालों पर सक्रिय मां की बेटी इला तब 15 साल की थीं और स्कूलों-कॉलेजों की सीढिय़ां चढ़ रही थीं जब गांधी मारे गए। इसलिए उनके जीवन में गांधी को किसी पिछले दरवाजे से ही दाखिल होना था। वे उसी तरह दाखिल हुए भी। उनके साथ मिल-बैठ कर, बातें करते हुए मुझे सहज महसूस होता था कि यह गांधी की आभा से दीपित आत्मा है। वे छोटी कद-काठी की थीं, धीमी, मधुर आवाज में बोलती थीं जिसमें तैश नहीं, तरलता होती थी लेकिन आस्था की उनकी शक्ति न दबती थी, न छिपती थी। बहस नहीं करती थीं बल्कि बहसें उन तक पहुंच कर विराम पा जाती थीं क्योंकि आत्मप्रत्यय से प्राप्त एक अधिकार उनकी बातों में होता था। वे तर्कवानों की बातों की काट नहीं पेश करती थीं। काटना या तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने जैसे हथियारों का वजन उठाना उनके व्यक्तित्व के साथ शोभता ही नहीं था लेकिन एक मजबूत इनकार की अभिव्यक्ति में वे चूकती भी नहीं थीं। सादगी की गरिमा और आत्मविश्वास का साहस उनमें कूट-कूट कर भरा था।

साबरमती आश्रम को लेकर विवाद खड़ा हुआ था। तब हुआ यूं था कि अचानक ही आज की सरकार ने 1200 करोड़ रुपयों की थैली साबरमती आश्रम में शांत-निद्र्वंद्व सोये गांधी के सिरहाने रख दी थी और शोर मचा दिया कि यहां से उठिए श्रीमान मोहनदास करमचंद गांधीजी कि हम इस आश्रम को ‘वर्ल्ड क्लास’ बनाकर ही दम लेंगे! शोर उठा; शोर का आयोजन करवाया गया। ऐसी विषाक्त हवा बनी कि जो आश्रम के ट्रस्टी थे वे गांधी के ‘ट्रस्ट’ की कीमत पर, सरकार का ‘ट्रस्ट’ खरीदने को तैयार हो गए। गांधी का ‘ट्रस्टी’ होना एक नैतिक दायित्व को वहन करने के साहस का नाम है, यह वे भूल ही गए। वे किसी व्यावसायिक कंपनी की मुनीमगिरी में लग गए। जब गांधी की नैतिकता का जुआ ढोने का साहस व कुव्वत न बची हो तो गांधी को प्रणाम कर, स्वयं को पीछे कर लेने का विवेक कहां से बचेगा!

‘‘गांधी जैसे थे और जैसे हैं वैसे ही वर्ल्ड क्लास हैं; कि हम सरकार के साथ मिल कर उन्हें वर्ल्ड क्लास बनाने का आयोजन करेंगे?’’ मेरे सवाल पर वे कहीं गहरे में विचलित हुईं। वे ही साबरमती आश्रम ट्रस्ट की अध्यक्ष थीं। वैधानिक दायित्व भी उनका ही था और नैतिक दायित्व भी! ‘‘लेकिन मैं क्या करूं?’’ उनकी आवाज की व्यग्रता मैं सुन भी रहा था, समझ भी रहा था, ‘‘उम्र इतनी हो गई है, शक्ति बची नहीं है, ट्रस्टी-मंडल में मैं एकदम अकेली पड़ जाती हूं। मुझे ये लोग सारी बातें बताते भी नहीं हैं,’’ आवाज में दर्द भी था, लाचारी भी, ‘‘आपके साथ दौड़ना चाहिए मुझे लेकिन मैं चल भी नहीं पा रही हूं।’’ मैंने कहा, ‘‘आप अकेली नहीं हैं। ट्रस्टी मंडल से आप हट जाएंगी तो वे सब अकेले पड़ जाएंगे जो आज अपनी संख्या का बल गिन रहे हैं। यह पूरी मंडली आपकी नैतिक पूंजी से ताकत पाती है। आप एक बार देश व गुजरात को बता दें कि इन लोगों से असहमत होकर मैं इनसे अलग हो रही हूं तो फिर रास्ता इन्हें खोजना होगा, आपको नहीं।’’ मैं क्या कह रहा था और किससे कह रहा था, मैं जानता था। वे मेरे कहे का सारा दर्द झेल रही थीं, ‘‘आप जो कह रहे हैं वह तो रास्ता है लेकिन मैं यहां से हटूंगी तो इनका रास्ता और आसान हो जाएगा। मैं वहां रह कर प्रतिरोध करूंगी लेकिन मेरा अपना तरीका होगा। मैं सबको साथ ले कर चलूंगी फिर जिसे अलग होना हो, हो।’’ उन्होंने वैसा कुछ किया भी और प्रतिरोध के साथ सामने आईं भी। मेरे एक निजी पत्र के जवाब में उन्होंने इतना ही कहा कि आप मुझसे निराश नहीं होंगे।

कानून की पढ़ाई, शिक्षा-संस्थानों में नौकरी, सरकारी नौकरी आदि रास्तों को पार करती 1972 में उन्होंने उस ‘सेवा’ की स्थापना की जो कालांतर में असंगठित कामगार महिलाओं का देश का- संसार का भी संभवत:- सबसे बड़ा संगठन बन गया। महिलाओं को नेतृत्व में लाने का ऐसा व्यापक प्रयास दूसरा हुआ हो तो मुझे ध्यान नहीं आता है। इसके पीछे भी कहीं गांधी खड़े थे। बिहार के चंपारण का किसान आंदोलन खड़ा कर गांधी वहां से सीधे पहुंचे अहमदाबाद जहां एक मजदूर आंदोलन की खिचड़ी पक रही थी। साराभाई-परिवार के कपड़ा मिलों का साम्राज्य तब बहुत बड़ा था। यहां के मजदूरों के संघर्ष की कमान गांधी ने संभाली। वह पूरी कहानी छोड़ कर इतना ही कि उस संघर्ष के गर्भ से पैदा हुआ मजूर-महाजन संगठन मजदूर आंदोलनों के इतिहास में गांधी की अपनी देन है। इला की ‘सेवा’ के पीछे मजूर-महाजन संगठन से मिला अनुभव था।

‘सेवा’ का काम जितनी गति से बढ़ा और जैसा वृहदाकार उसका बना, वह इला की संगठन-सूझ, संवेदना, दृढ़ता व काम करने की जबर्दस्त लगन का स्मारक ही बन गया। सफलता भी मिली, अनगिनत सम्मान भी मिले तो मुश्किलें भी आईं, चुनौतियां भी खड़ी हुईं। 1986 में सरकार ने ‘पद्म-भूषण’ से सम्मानित कर इला के जीवन पर अपनी मुहर तो लगा दी लेकिन उनके काम को आसान नहीं बना सकी। उनका सारा काम व्यवस्था से बारीक तालमेल बिठा कर तथा बाजवक्त उसे चुनौती दे कर ही संभव हुआ था। इसमें कमलादेवी चट्टोपाध्याय के साथ से मिली दृष्टि, अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन तथा बुच साहब से मिला सहयोग अहम था। इसरायल जाने व तेल अवीव के एफ्रो-एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ लेबर ऐंड कोऑपरेटिव्स में पढ़ाई करने का अवसर इला को वह बना गया जो हमने उनके बाकी के सारे जीवन में आकार लेते देखा। यह कहानी परिपूर्ण नहीं होगी यदि हम रमेश भट्ट का जिक्र न करें, जिनसे 1956 में उनका विवाह हुआ। रमेश भाई इला की ‘सेवा’ में ऐसे रमे कि अंतिम सांस तक उबरे नहीं।

18 जुलाई 2007 को नेल्सन मंडेला, डिसमांड टूटू आदि ने मिलकर एक अनोखी ही पहल की और वरिष्ठ जन का एक ऐसा ग्रुप बनाया - इ एल्डर्स- जिसका खाका नेल्सन मंडेला के शब्दों में इस प्रकार उभरा: ‘‘हमारी यह टोली स्वतंत्रता व साहस के साथ बोलेगी; चाहे सामने आकर हो या नेपथ्य से, जब जैसा जरूरी  होगा, काम करेगी। हम मिलकर जहां भय है वहां साहस को सहारा देंगे; जहां मतभेद हैं वहां सहमति की तलाश करेंगे तथा जहां निराशा है वहां आशा का संचार करेंगे।’’ इस स्वप्नदर्शी पहल में उन्होंने इला को साथ जोड़ा। इला ऐसी जुड़ीं इससे कि सारी दुनिया में कहां-कहां नहीं टोली लेकर पहुंचीं। 2010 में अपने वरिष्ठों को लेकर वे गाजा पहुंची थीं और तब उन्होंने अपनी टोली की तरफ से लिखा था: ‘‘जुल्म के खिलाफ अहिंसक संघर्ष में हिंसक युद्ध से अधिक जान झोंकनी पड़ती है और वे कायर होते हैं जो हथियारों का सहारा लेते हैं।’’ गुरु गांधी ने ही सिखलाया था कि जहां असहमति व विरोध से बात न बने और सीधी लड़ाई की क्षमता न हो, वहां असहकार का अहिंसक हथियार इस्तेमाल करना। इसलिए जब साबरमती आश्रम तथा गुजरात विद्यापीठ के सभी जनों ने उनका हाथ छोड़ दिया और वे एकाकी पड़ गईं तो उन्होंने जीवन से त्यागपत्र देने से पहले अध्यक्षता से त्यागपत्र दे दिया। किसी को लगा होगा कि वे गईं लेकिन दरअसल तो हम सब गए!

अब हमारे खाली हाथों में उनके दोनों त्यागपत्र हैं; और उससे भी खाली व सूनी आंखों से हम गहराते अंधकार को देख रहे हैं।

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