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कांवड़ बैठी, आर्थिकी ठप

महामारी से सावन में होने वाली कांवड़ यात्रा थमी, तो आस्थाम के साथ हजारों करोड़ के कारोबार पर ग्रहण
कांवड़ बैठी, आर्थिकी ठप

सावन बीता जा रहा है मगर उत्तर और पूर्वी भारत के कई हिस्से में भगवान शिव पर गंगा जल चढ़ाने के लिए हर वर्ष होने वाली कांवड़ यात्राओं पर भी कोविड महामारी का कहर बरपा। उत्तर में उत्तराखंड के हरिद्वार से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्‍थान, हरियाणा के सुदूर इलाकों के अलावा प‌श्चिम बंगाल में कोलकाता से ताड़केश्वर और बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश से झारखंड के देवघर में बाबाधाम तक कांवड़ यात्राओं के कुछ जाने-पहचाने मुकाम हैं। हजारों के हुजूम में कांवड़  के इस सफर की करोड़ों रुपये की अनोखी अर्थव्यवस्‍था भी है और दूसरी आर्थिक गतिविधियों की तरह यह कारोबार भी जैसे कोरोना शाप का शिकार हो गया। कांवड़ यात्रा का सामाजिक असर भी लगातार बढ़ता गया है और पिछले कुछ साल से खास तरह के राष्ट्रवादी रुझान के लिए तिरंगे झंडे का इस्तेमाल भी कांवड़ियों के हाथों में देखे जाने लगे थे। सो, लोगों की आस्था को ध्यान में रखकर उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और हरियाणा सरकारों ने गंगाजल के कलश स्‍थानीय स्तर पर मुहैया कराने के वादे भी किए।

यकीनन, इस मामले में देवघर के बाबाधाम की महत्ता अनोखी है। लेकिन बिहार के सुल्‍तानगंज से झारखंड के देवघर जाने वाली सड़क इस बार सूनी है। हर साल इस मौसम में 105 किलोमीटर लंबी इस सड़क पर कदम रखने तक की जगह नहीं होती थी। हर तरफ बोलबम का नारा और गीत गूंजते थे। सावन के महीने में 45 से 50 लाख श्रद्धालु देवघर में शिवलिंग पर जलार्पण के लिए आते थे, लेकिन इस बार कांवड़ियों का सैलाब कहीं नजर नहीं आ रहा। कोरोना महामारी के कारण प्रशासन ने यहां पूरे सावन, यानी 4 अगस्‍त तक श्रद्धालुओं के आने और कांवड़ यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया है। सुल्‍तानगंज के गंगा घाट, जहां से जल लेकर कांवड़िये देवघर जाते हैं, वहां पुलिस का पहरा है। देवघर में भी पुलिस की सख्त घेराबंदी है। देवघर में कुछ पंडे कोरोना पॉजिटिव हो गए, इसलिए प्रशासन ने बाबाधाम मंदिर में पूजन के लिए सीमित संख्‍या में ही पंडों-पुजारियों को जाने की अनुमति दी है। आम लोगों के लिए ऑनलाइन दर्शन की व्‍यवस्‍था की गई है।

बाबाधाम मंदिर के पंडा तथा धर्म रक्षिणी सभा के महामंत्री कार्तिक ठाकुर दर्शन और कांवड़ यात्रा पर प्रतिबंध के पक्ष में हैं। वे कहते हैं, “जान है तो जहान है। मेरे जैसा आदमी परहेज के बाद भी चपेट में आ गया।” देवघर में करीब पांच हजार पंडों का परिवार है। पहले लॉकडाउन और अब श्रावणी मेले पर प्रतिबंध ने उन पर बड़ा आर्थिक प्रहार किया है।

आम तौर पर सावन में सुल्‍तानगंज-देवघर कांवड़ि‍या ‍पथ पर झारखंड के प्रवेश द्वार दुम्‍मा मोड़ से बाबाधाम, नौ किलोमीटर तक मेला लगा रहता है। सड़क की दोनों तरफ दुकानें और ठहरने की व्‍यवस्‍था होती है। रोजाना करीब एक लाख लोग बाबाधाम में शिवलिंग पर जलार्पण करते हैं। सोमवार को यह संख्‍या चार-पांच लाख तक पहुंच जाती है। करीब 60 फीसदी कांवड़ि‍ये यहां से 42 किलोमीटर दूर दुमका जिले में बासुकीनाथ के भी दर्शन करते हैं। भगवा लिबास में श्रद्धालु दिन-रात चलते दिखते हैं। किसी को जरा-सी तकलीफ हुई नहीं कि दूसरा अपरिचित साथी मदद को हाजिर हो जाता है। प्रशासन और समाजसेवियों की व्‍यवस्‍था तो रहती ही है। चाय, भोजन, विश्राम, दवा-चिकित्‍सा, हर तरह की व्‍यवस्‍था।

यह कांवड़ यात्रा सिर्फ आस्‍था में डुबकी लगाने का धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि आस-पास के जिलों की अर्थव्‍यवस्‍था को भी यह गहरे प्रभावित करती है। फेडरेशन ऑफ झारखंड चैंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्‍ट्रीज के क्षेत्रीय उपाध्‍यक्ष आलोक मल्लिक के अनुसार प्रति यात्री औसतन दो हजार रुपये का खर्च आता है। वस्‍त्र और प्रसाद से लेकर पूजन सामग्री, रेस्‍तरां आदि का सावन में एक हजार करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार होता है, जो पूरी तरह ठप है। सालाना कारोबार का 80 फीसदी सावन में ही होता है। सुल्‍तानगंज से बासुकीनाथ तक 25 हजार से अधिक परिवारों के जीवनयापन का खर्च इसी श्रावणी मेले से निकलता है। इनकी चिंता है कि आगे इनका घर कैसे चलेगा।

बाबाधाम के प्रसाद की भी एक खासियत है। जलार्पण के बाद जब लोग लौटते हैं तो प्रसाद में पेड़ा, चूड़ा, बद्धी (धागा) जरूर होता है, हालांकि मंदिर में ये प्रसाद नहीं चढ़ाए जाते। स्‍थानीय पत्रकार मनोज केशरी बताते हैं कि देवघर में स्‍थायी रूप से सौ दुकानें होंगी मगर सावन में इनकी संख्‍या पांच हजार तक हो जाती है। देवघर से बासुकीनाथ के रास्‍ते घोरमारा का पेड़ा सबसे ज्‍यादा मशहूर है। यहां पेड़े की अनेक स्‍थायी दुकानें हैं, लेकिन इस बार ये भी सूनी हैं।

वर्षों से कांवड़ियों का मेला देख रहे भागलपुर (सुल्तानगंज इसी जिले में पड़ता है) के गिरधारी लाल जोशी ने बताया कि पहले सुल्‍तानगंज से 20-25 कांवड़ियों का जत्‍था निकला था, मगर प्रशासन ने उन्‍हें वहीं रोक दिया। पुलिस चारों तरफ तैनात है मगर यात्रियों को रोकने के लिए। देवघर के सामाजिक कार्यकर्ता संजय भारद्वाज कहते हैं, “भागलपुर, देवघर, मुंगेर, बांका और दुमका के हजारों परिवारों के लिए यह श्रावणी मेला रोजी-रोटी का इंतजाम कर देता था। कोरोना के चलते लॉकडाउन और कांवड़ यात्रा पर पाबंदी ने लोगों की कमर तोड़ दी है।”

केंद्र सरकार ने लॉकडाउन में ढील देते हुए जब अनलॉक की प्रक्रिया शुरू की, तब भी झारखंड सरकार ने मंदिरों को खोलने की इजाजत नहीं दी। गोड्डा से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे चाहते थे कि सावन में बाबाधाम मंदिर खोला जाए और सोशल डिस्‍टेंसिंग के साथ कांवड़ यात्रा को अनुमति दी जाए। उनकी चिंता उन हजारों परिवारों को लेकर भी थी जिनकी इसी मेले पर रोजी-रोटी निर्भर करती है। इसके लिए उन्‍होंने जनहित याचिका दायर की थी। लेकिन झारखंड उच्‍च न्‍यायालय ने इस पर सुनवाई के दौरान राज्‍य सरकार के आदेश को बहाल रखा और सरकार को ऑनलाइन दर्शन की व्‍यवस्‍था करने का निर्देश दिया। उधर, बिहार सरकार ने भी धार्मिक न्‍यास बोर्ड की बैठक कर किसी भी मंदिर में जलाभिषेक, मेला या कांवड़ यात्रा पर रोक लगा दी थी। जिस तरह देश में रोजाना हजारों लोग कोरोना महामारी की चपेट में आ रहे हैं और सैकड़ों की जान जा रही है, उसे देखते हुए यह पाबंदी सर्वथा उचित है। वर्ना जैसा कि धर्म रक्षिणी सभा के कार्तिक ठाकुर कहते हैं, “कांवड़ यात्रा की इजाजत मिलती तो लाखों लोग आते और तब तो तबाही मचती।”

फौजदारी बाबा के यहां हाजिरी जरूरी

देवघर से 42 किलोमीटर है बासुकीनाथ का शिव मंदिर। इन्‍हें फौजदारी बाबा भी कहा जाता है। स्‍थानीय निवासी प्रमोद कुमार बताते हैं कि मान्‍यता के अनुसार देवघर में जलार्पण के बाद यहां जलाभिषेक करने पर ही यात्रा पूरी होती है। इसलिए बाबाधाम की यात्रा करने वाले 60 फीसदी से अधिक लोग यहां आते हैं।

किवदंतियां और हकीकत

कांवड़ यात्रा कब शुरू हुई, इसे लेकर अलग-अलग किवदंतियां हैं। एक मान्‍यता है कि समुद्र मंथन से निकले विष को पीने से शिवजी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, जिसे दूर करने के लिए रावण ने तप के बाद कांवड़ में जल लाकर शिवजी का जलाभिषेक किया। इससे विष के प्रकोप से शिवजी को मुक्ति मिली, तब से यह परंपरा चली आ रही है। दूसरी मान्‍यता यह है कि भगवान राम ने सुल्‍तानगंज से कांवड़ में गंगाजल लाकर बाबाधाम में जलाभिषेक किया था। एक मान्‍यता यह भी है कि श्रवण कुमार ने अपने नेतृहीन माता-पिता को कांवड़ में बैठा कर हरिद्वार में गंगा स्‍नान कराया और गंगा जल लेकर आया था, तब से इसकी शुरुआत हुई।

वैसे, देवघर में भगवान शिव के जलाभिषेक की परंपरा के कम से कम दो सौ साल पुरानी होने के लिखित सबूत हैं। वरिष्ठ पत्रकार डॉ. ब्रजेश वर्मा ने अपनी पुस्‍तक राजमहल में इसका जिक्र किया है। डॉ. वर्मा के अनुसार 1794 से 1815 तक बंगाल चिकित्सा सेवा में रहे स्कॉटिश डॉक्टर फ्रांसिस बुकानन ने सुल्‍तानगंज के बारे में लिखा है कि वे 21 फरवरी 1811 को सुल्‍तानगंज पहुंचे थे। वहां उन्होंने अनेक कांवड़ियों को कंधे पर जल उठाए देवघर के बाबा बैद्यनाथ मंदिर की यात्रा करते देखा था।

ऐतिहासिक-पुरातात्विक महत्‍व के विषयों पर काम करने वाले लेखक संजय कृष्‍ण के अनुसार आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्‍चंद्र ने काशी नरेश के साथ बाबाधाम की यात्रा की थी, जिसका विस्‍तृत वर्णन 1880 में हरिश्‍चंद्र चंद्रिका और मोहन चंद्रिका में छपा था। स्‍वामी विवेकानंद भी यहां 1887 से 1890 के बीच सात बार आए। इस दौरान अखंडानंद जी के साथ बाबाधाम के दर्शन भी किए।

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