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झाबुआ से मिली नई संजीवनी

भाजपा अब सत्ता पलटने की धमकी देने की स्थिति में नहीं, पार्टी में भी कमलनाथ के खिलाफ थम सकती हैं आवाजें
जीत का लड्डूः झाबुआ सीट जीतने के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ मुख्यमंत्री कमलनाथ

झाबुआ विधानसभा क्षेत्र के लिए 21 अक्टूबर को हुए उपचुनाव में कांग्रेस की जीत से मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार की ताकत बढ़ी और भाजपा को तगड़ा झटका लगा। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने यह सीट दोबारा कांग्रेस की झोली में डालकर एक तीर से कई निशाने साध लिए हैं। एक तो सरकार पलटने की बार-बार धौंस देने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के मुंह पर ताला लग जाएगा। दूसरे, सरकार के साथी विधायकों की धमकी-चमकी भी बंद हो जाएगी। पार्टी के भीतर सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वाले भी शांत हो जाएंगे। झाबुआ की जीत से कमलनाथ सरकार मजबूत हुई है। 230 सदस्यीय मध्य प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस के अभी तक 114 सदस्य थे, अब 115 विधायक हो जाएंगे। चार निर्दलीय, दो बसपा और एक सपा विधायक के समर्थन से चल रही कमलनाथ सरकार को बहुमत के लिए 116 विधायकों का साथ चाहिए। कमलनाथ ने अपने करीबी निर्दलीय विधायक प्रदीप जायसवाल को खनिज मंत्री बना रखा है। ऐसे में 115 कांग्रेस विधायकों और एक निर्दलीय विधायक की मदद से कमलनाथ को अब खतरा नहीं रह जाएगा। बसपा विधायक रामबाई और बुरहानपुर से निर्दलीय विधायक शेरा आए दिन सरकार को आंखें दिखाने से नहीं चूक रहे थे। अब ऐसी स्थिति खत्म हो सकती है। वहीं, भाजपा के 107 विधायक रह गए हैं। कमलनाथ सरकार को तख्तापलट की धमकी देने वाली भाजपा निर्दलीयों के साथ भी बहुमत जुटाने की स्थिति में नहीं रही।

इस जीत से दिग्विजय सिंह भी ताकतवर हुए हैं। झाबुआ विधानसभा उपचुनाव जीतने वाले कांतिलाल भूरिया दिग्विजय के समर्थक माने जाते हैं। 68 वर्षीय भूरिया प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी रह चुके हैं। दिग्विजय सरकार में मंत्री रहे भूरिया मनमोहन सिंह की कैबिनेट में भी थे।

कांग्रेस ने झाबुआ उपचुनाव को ‘करो या मरो’ की तर्ज पर लड़ा, तो भाजपा में गुटबाजी चरम पर दिखी। कमलनाथ ने चुनाव में मंत्रियों को जिम्मेदारी सौंपने के साथ प्रबंधन पर भी ध्यान दिया। कांतिलाल भूरिया के परिवारवाद से नाराज लोगों को मनाया और काम पर लगाया। आदिवासी बहुल झाबुआ को भूरिया का गढ़ माना जाता है। यहां से वे तीन बार सांसद चुने गए। रतलाम सीट से भी दो बार सांसद बने। लेकिन अपने ही लोगों से दूरी बना लेने के कारण वे अपने बेटे विक्रांत भूरिया को विधानसभा चुनाव नहीं जिता पाए और खुद भी लोकसभा चुनाव हार गए। 2018 के विधानसभा चुनाव में जेबियर मेड़ा ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर 35,000 वोट लेकर भूरिया परिवार का खेल बिगाड़ दिया था। भाजपा के गुमान सिंह डामोर चुनाव जीत गए। 2019 में डामोर के सांसद बन जाने से सीट रिक्त हो गई थी। भाजपा ने उपचुनाव में बुजुर्ग कांतिलाल के मुकाबले युवा भानू भूरिया को उतारा, लेकिन दांव नहीं चला। 

चर्चा है कि कमलनाथ की पसंद भूरिया नहीं थे। दिग्विजय सिंह के दबाव के चलते उन्हें सहमति देनी पड़ी और प्रत्याशी को जिताने के लिए एड़ी-चोटी का जोर भी लगाना पड़ा। कमलनाथ ने भूरिया के विरोधी पूर्व विधायक जेबियर मेड़ा को साधा और उन्हें भूरिया के पक्ष में काम करने के लिए मनाया। धार-झाबुआ में आदिवासी युवाओं के ताकतवर संगठन जयस को साधने का काम दिग्विजय सिंह ने किया। जयस को खड़ा करने वाले विधायक डॉ. हीरालाल को दिग्विजय का करीबी माना जाता है। भूरिया के प्रचार में जोबट की विधायक और उनकी भतीजी कलावती भूरिया भी लगी रहीं। वैसे 2018 के विधानसभा चुनाव में भी आदिवासी वोटरों ने कांग्रेस का साथ दिया था, जिससे उसे आदिवासी सीटें ज्यादा मिली थीं।

झाबुआ इलाके में दो ही नाम चलते थे दिलीप सिंह भूरिया और कांतिलाल भूरिया। दिलीप सिंह भाजपा से और कांतिलाल कांग्रेस से। दिलीप सिंह का निधन हो गया। उनकी बेटी निर्मला भूरिया शिवराज कैबिनेट में मंत्री भी रहीं, लेकिन इस चुनाव में वह सक्रिय नहीं दिखीं। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने भी ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। भाजपा में चुनाव जितवाने का पूरा दारोमदार पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह के कंधे पर था।

झाबुआ में भाजपा की हार का बड़ा कारण रहा अति आत्मविश्वास और अंतर्कलह। चुनाव प्रचार के वक्त नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव अति आत्मविश्वास में दिखे, तो नतीजों के बाद अंतर्कलह खुलकर सामने आ गई। सीधी से भाजपा विधायक केदारनाथ शुक्ला ने प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह को हार के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें हटाने की मांग कर डाली। भाजपा के पास मध्य प्रदेश में कोई बड़ा आदिवासी चेहरा भी नहीं है। सरकारी नौकरी से रिटायर होकर राजनीति में आए जी.एस. डामोर की पकड़ स्व. दिलीप सिंह भूरिया जैसी नहीं है।

उपचुनाव से सबक लेकर भाजपा नेताओं को सरकार के काम में मीनमेख निकालने और बड़बोलापन की रणनीति छोड़कर कार्यकर्ताओं में जोश भरने और गलतियों को सुधारने के लिए काम करना होगा। झाबुआ को कांग्रेस की परंपरागत सीट बताकर भाजपा नेता जिम्मेदारी से नहीं बच पाएंगे। दूसरी ओर, कांग्रेस ने भाजपा से झाबुआ सीट छीनकर कमलनाथ सरकार के कामकाज पर जनता की मुहर लगवा ली है। कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के सरकार विरोधी बयान के बाद भी झाबुआ के लोगों ने मुख्यमंत्री कमलनाथ के सिर सेहरा बांध दिया। 27,804 वोटों से जीत बड़ी जीत है। इतनी उम्मीद तो कांग्रेस को भी नहीं थी। झाबुआ के बाद अब स्थानीय निकाय चुनाव में कमलनाथ की रणनीति किस तरह काम करती है और वे कितने सफल होते हैं, उसका लोगों को इंतजार है। इसके बाद उनके सामने निगम-मंडलों में पद बांटने समेत कई चुनौतियां आने वाली हैं।

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