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बदला सियासत का रंग

खास तरह के भावनात्मक मुद्दे हुए खारिज तो भाजपा हुई पस्त, विपक्षी महागठबंधन को मिला बहुमत
भरोसा खोयाः राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू (दाएं) को इस्तीफा सौंपते रघुवर दास

तारीख वही 23 दिसंबर, लेकिन फर्क पांच साल का। 2014 में इसी दिन तीसरे पहर भारतीय जनता पार्टी के रांची में प्रदेश मुख्यालय के बाहर आतिशबाजी और मिठाइयों का दौर चल रहा था, लेकिन पांच साल बाद इस दिन वहां सन्नाटा पसरा था। वहां सड़क किनारे मूंगफली और चाट की दुकान लगानेवाला सूरज कुमार थोड़ा मायूस था। चुनाव नतीजों से उसकी बिक्री ठंडी पड़ गई थी। पांच साल पहले इस दिन उसकी बिक्री 2,800 रुपये की हुई थी। लेकिन इस बार महज 130 रुपये की बिक्री हुई। सूरज कहता है, “भैया, मौसमे बदल गया है। उस बार तो जाड़ा कम पड़ रहा था, तो फुलवा महक गया। इस बार कायदे से औकात का पता चला है।” भाजपा का प्रदेश मुख्यालय हटिया विधानसभा क्षेत्र में पड़ता है, जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) का मुख्यालय कांके विधानसभा क्षेत्र में। कांग्रेस का प्रदेश मुख्यालय रांची विधानसभा क्षेत्र में है। तीनों सीटों पर भाजपा ने अपना कब्जा बरकरार रखा है, लेकिन जश्न झामुमो-कांग्रेस के दफ्तरों के बाहर मन रहा था। नेता-कार्यकर्ता खुश थे, जबकि भाजपा खेमे में मायूसी थी। तभी कांग्रेस कार्यालय के बाहर जुटे हुजूम में एक युवक ने अपना फोन दिखाते हुए बताया, “सीएम अपडेट (एक ह्वाट्सएप ग्रुप) से लोग लेफ्ट (छोड़ रहे) कर रहा है। प्रतुलवा (भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता प्रतुल शाहदेव) भी लेफ्ट कर गया।” दूसरे ने टिप्पणी की, “जहाज डूबने लगता है, तो सबसे पहले चूहे निकल कर भागते हैं।”

इन दोनों प्रतिक्रियाओं से साफ है कि झारखंड में सत्ता परिवर्तन लोगों की इच्छा थी। पांच साल में भाजपा सरकार की कार्यप्रणाली और फैसले से आम लोग आजिज आ चुके थे। कहते हैं कि व्यवस्था जब केंद्रीकृत हो जाती है, तो उसका नुकसान सबसे पहले उस व्यवस्था के नायक को होता है। यही रघुवर दास के साथ हुआ। उन्होंने सरकार तो चलाई, लेकिन लोगों से कटते गए। यहां तक कि पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ता भी उनसे नाराज हो गए। परिणाम यह हुआ कि रघुवर न कुर्सी बचा सके, न अपनी सीट। सिर्फ वही नहीं, जितने बड़बोले और जनता से दूर होने वाले नेता थे, सबको जनता ने औकात बता दी। चाहे स्पीकर डॉ. दिनेश उरांव हों या मंत्री डॉ. लुईस मरांडी, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ हों या युवा कुणाल षाड़ंगी, सब के सब इस मुकाबले में खेत रहे। चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में भाजपा ने अपने ट्रंप कार्ड, यानी अनुच्छेद 370, राम मंदिर और नागरिकता कानून-एनआरसी जैसे मुद्दे उठाए, लेकिन झारखंड के लोगों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह का जादू भी नहीं चला और भाजपा के सभी हथियार झामुमो-कांग्रेस-राजद के सामने भोथरे साबित हो गए। सचमुच साल 2019 जाते-जाते भाजपा के लिए सबसे खराब संदेश दे गया और झारखंड भी उसके हाथ से फिसल गया। पिछले एक साल में उसके हाथ से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र के बाद यह पांचवां राज्य निकला है।

भरोसा खोयाः राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू (दाएं) को इस्तीफा सौंपते रघुवर दास

झारखंड के 19 साल के इतिहास में यह पहला अवसर है, जब गैर-भाजपा गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला है। झामुमो ने कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ मिल कर चुनाव लड़ा और 81 सीटों वाली विधानसभा में 47 सीटें जीत लीं। 2004 में हुए पहले चुनाव से लेकर 2014 में तीसरे चुनाव तक भाजपा अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और जोड़-तोड़ कर करीब साढ़े 14 साल तक शासन किया। इस बार महागठबंधन के आगे न तो अमित शाह की व्यूहरचना काम आई, न ओम माथुर की रणनीति। रघुवर दास का आक्रामक रवैया भी हेमंत सोरेन की सौम्यता के आगे विफल हो गया।

भाजपा की हार के पांच कारण

झारखंड की राजनीति पर नजर रखने वाले विश्लेषक शांतनु बनर्जी के अनुसार, भाजपा की हार के पांच मुख्य कारण रहे। सबसे बड़ा कारण है स्थानीय मुद्दों की अनदेखी। बेरोजगारी, पलायन, नक्सलवाद और विकास जैसे मुद्दे भाजपा के एजेंडे से गायब थे। दूसरा कारण पार्टी का अति आत्मविश्वास रहा, जिसने पूरे चुनाव को एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द समेट दिया। परिणाम यह हुआ कि पार्टी को हकीकत का तो पता चला ही, पुराने सहयोगियों के बजाय नए साथियों पर भरोसा करना भी भाजपा को महंगा पड़ा। राज्य गठन के बाद से ही सहयोगी रही आजसू से दोस्ती तोड़कर भाजपा ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।

इसके अलावा शिबू सोरेन-हेमंत सोरेन के खिलाफ जहर उगलना भी भाजपा के लिए भारी पड़ा। इसका असर राज्य की 27 प्रतिशत आदिवासी आबादी पर पड़ा और उसने भाजपा के जहर का जवाब गोलबंदी से दिया। कोल्हान क्षेत्र की 14 सीटों से भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया, जबकि संथाल परगना की 18 सीटों में से भाजपा के खाते में महज चार सीटें आईं। कोयलांचल की 16 में से सात और छोटानागपुर की 26 में से 11 सीटें ही भाजपा जीत सकी। भाजपा की ताबूत में आखिरी कील भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के फैसले ने ठोक दी। रघुवर सरकार ने 2016 में आदिवासी अस्मिता से जुड़े सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन कर आदिवासियों को नाराज कर दिया। इससे पहले गैर-आदिवासी सीएम बना कर उसने मामले को छेड़ा भर था। कुल मिला कर सत्ता विरोधी लहर, एकजुट विपक्ष, अति आत्मविश्वास, आदिवासी विरोधी छवि और केंद्रीकृत व्यवस्था ने भाजपा की लुटिया डुबो दी।

हेमंत सोरेन की चुनौतियां

अब झारखंड की कमान हेमंत सोरेन के हाथों में है। झारखंड के सबसे बड़े नेता शिबू सोरेन के राजनीतिक उत्तराधिकारी और युवा जोश से भरे हेमंत सोरेन के सामने कई चुनौतियां हैं। पहली चुनौती गठबंधन के घटक दलों के साथ संतुलन बना कर चलने की होगी। कांग्रेस और राजद जैसी सहयोगी पार्टियों की महत्वाकांक्षा और कार्यशैली के अनुरूप खुद को ढालना उनके लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है। बेरोजगारी, पलायन, महंगाई और स्थानीय मुद्दों पर उनकी सरकार के रवैए पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा, जिनसे निपटना आसान तो नहीं है।

अगर हेमंत सोरेन ने इन चुनौतियों से पार पा लिया, तो फिर वह अपने पिता और राजनैतिक गुरु की तरह राजनीति के क्षितिज पर छा जाएंगे, जिन्हें पूरा झारखंड दिशोम गुरु के नाम से जानता है। हेमंत के रूप में झारखंड ने एक ऐसा नेता चुना है, जिसके सपने बेहद ऊंचे हैं और काम करने की क्षमता भी है। राष्ट्रीय मुद्दों से लेकर झारखंड तक के मसलों पर साफ नजरिया रखने वाले हेमंत सोरेन की छवि एक सौम्य, मृदुभाषी और संवेदनशील नेता की है। लोग उनसे मिलने से कतराते नहीं हैं और यही उनकी सबसे बड़ी पूंजी है।

सरयू राय, भाजपा के बागी

कांग्रेस को मिला नया जीवन

झारखंड चुनाव ने देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को भी नया जीवन दिया है। लोकसभा चुनाव में एक सीट जीतने के बाद पार्टी ने कुछ जमीन हासिल की थी, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व की उदासीनता ने पार्टी को हाशिए पर पटक दिया था। पार्टी के प्रदेश प्रभारी आरपीएन सिंह और सह प्रभारी उमंग सिंघार के साथ प्रदेश के दूसरे नेताओं ने जिस तरह झामुमो और राजद के साथ समन्वय बना कर काम किया, उससे कांग्रेस को नया जीवन मिला। पार्टी ने राज्य में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर साबित कर दिया है कि उसमें अभी बहुत जान बाकी है।

चुनाव में रघुवर दास को पटखनी देने वाले भाजपा के बागी सरयू राय कहते हैं, “जनता की आह लगने के कारण ही रघुवर दास हारे। शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को हमेशा निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को सहारा देना चाहिए, जो रघुवर और उनके करीबियों ने नहीं किया।” उधर रघुवर दास ने साफ किया कि यह उनकी व्यक्तिगत हार है, भाजपा की नहीं। पार्टी आलाकमान के सामने ‘ब्लू आइड बॉय’ की छवि बना चुके रघुवर के पास और कोई विकल्प है भी नहीं, क्योंकि पार्टी ने उन्हें इस चुनाव में सारे अधिकार सौंप दिए थे। कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी आरपीएन सिंह इसे भाजपा के बुरे दिनों की शुरुआत मानते हैं। वे कहते हैं कि अब जहां-जहां चुनाव होंगे, भाजपा हारेगी। झारखंड का किंगमेकर बनने का सपना लेकर चुनाव मैदान में उतरे झारखंड विकास मोर्चा के प्रमुख बाबूलाल मरांडी और आजसू प्रमुख सुदेश महतो बुरी तरह चोटिल होकर जनादेश के सम्मान की बात कह रहे हैं। दोनों नेता विधायक तो बन गए, लेकिन हेमंत की आंधी ने उनकी भी मिट्टी पलीद कर दी है।

झारखंड के नतीजों के बारे में पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता सुबोधकांत सहाय कहते हैं, “झारखंड की जनता ने साफ संदेश दिया कि उसके हितों की कीमत पर राजनीति करने वाला कभी उसका रहनुमा नहीं हो सकता। मोदी-शाह-रघुवर ने हमेशा झारखंड के हितों की कीमत पर राजनीति की। इसका परिणाम सामने है।”

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“टीवी में नहीं, हर चेहरे पर दिखेगा विकास”

भाजपा के साथ कड़े मुकाबले के बाद झारखंड की कमान दूसरी बार झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन को मिली है। चुनाव नतीजों के बाद आउटलुक से बातचीत में उन्होंने कहा कि अब झारखंड में विकास की लकीर लोगों के चेहरे पर दिखेगी, टीवी के परदे पर नहीं। प्रमुख अंश:

इतनी बड़ी जीत पर आप क्या कहना चाहेंगे?

यह मेरी या किसी पार्टी की जीत नहीं है। यह गुरु जी (शिबू सोरेन) के त्याग और समर्पण की जीत है, यह झारखंड की जीत है।

आपकी सरकार का एजेंडा क्या होगा?

अलग राज्य के रूप में झारखंड के सपनों को पूरा करने का दिन अब आया है। यह मतदाताओं की आकांक्षाओं को पूरा करने का संकल्प लेने का दिन है। हम ऐसा विकास करेंगे जो झारखंड के लोगों के चेहरे पर दिखेगा, केवल मीडिया की सुर्खियों में नहीं। हमारे लिए झारखंड सबसे पहले है।

नागरिकता कानून और एनआरसी पर आपका नजरिया क्या है?

चुनावी व्यस्तता के कारण मैं अब तक इन दस्तावेजों को पढ़ नहीं पाया हूं, इसलिए अभी इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। पहले मैं इन कानूनों का अध्ययन करूंगा, उसके बाद अपने सहयोगियों से विचार-विमर्श करके ही किसी फैसले पर पहुंच सकूंगा। मोटे तौर पर मैं कह सकता हूं कि यह देश के लोगों को एक बार फिर से लाइन में खड़ा करने वाला फैसला है। हम हमेशा राज्य और देश की भावना के साथ खड़े रहने वाले लोग हैं। हमारी पार्टी की तो पैदाइश ही आंदोलन से हुई है।

इस जीत से आपमें क्या बदलाव आया है?

हम तो आज भी वैसे ही हैं, जैसे हमेशा थे। हम वैसे लोगों में नहीं जो जीतने पर खुशी से बेकाबू हो जाते हैं। हम लड़ने वाले लोग हैं, आंदोलन की उपज हैं। मेरी राजनीति लड़ाई और आंदोलन के इर्द-गिर्द घूमती है। यह जीत हमारे लिए एक चुनौती है, अवसर है। हम इसका सदुपयोग झारखंड को संवारने में करेंगे। झारखंड के लिए हम अपने विजन पर काम करेंगे और लोग देखेंगे कि विकास क्या होता है।

इस चुनाव ने आपको क्या सिखाया?

इस चुनाव से मैंने सीखा है कि कोई भी व्यक्ति चाहे कितना भी ताकतवर क्यों न हो जाए, उसे जमीन से जुड़ा रहना चाहिए। आप जनता की भावनाओं से खेल कर सफल नहीं हो सकते। जनता के सपनों को कुचल कर जीत नहीं सकते। इस चुनाव ने हमें सिखाया है कि जनता को कभी निराश नहीं करना चाहिए, उसे भयभीत नहीं करना चाहिए।

झारखंड के नतीजों का क्या संदेश है?

साफ संदेश है कि पहले स्थानीय मुद्दों का समाधान करें। अनुच्छेद 370 और राम मंदिर जैसे मुद्दे हो सकते हैं, लेकिन बेरोजगारी, जमीनी विकास और हमारी अस्मिता सबसे महत्वपूर्ण है। झारखंड की जनता ने साफ कहा है कि हमें अपने अस्तित्व की चिंता है इसलिए पहले हमारी सुनो, बाकी बाद में।

सहयोगियों के बारे में आप क्या कहेंगे?

हमने मिल-जुल कर चुनाव लड़ा। प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और रक्षा मंत्री ने झारखंड में प्रचार किया, एक व्यक्ति को टारगेट पर रखा, लेकिन लोगों ने उन्हें करारा जवाब दिया। हमने अपने सहयोगियों के साथ लोगों से जुड़ने की रणनीति पर काम किया। हमारे सहयोगियों ने शानदार काम किया है। अब काम करने का समय आ गया है। हम इसमें सफल ही नहीं होंगे, बल्कि नई लकीर खींचेंगे।

 

 

“जनता की आह लगने से  रघुवर दास हारे। निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को सहारा देना चाहिए, जो नहीं किया”

सरयू राय, भाजपा के बागी

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