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मोदी सरकार से बेहतर बदलाव की उम्मीद कम

कश्मीर में जब भी अनुच्छेद 370 को कमजोर करने की कोशिश की गई, राज्य में अशांति बढ़ी
जम्मू-कश्मीर/नजरिया

मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत जम्मू-कश्मीर में चौंका देने वाले कई फैसलों को लागू करके की थी। इस कड़ी में सबसे पहले 5 और 6 अगस्त 2019 को, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को हटाने के लिए दो आदेश जारी किए। उसके तीन दिन बाद, संसद में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम पारित किया गया, जिसमें राज्य को विभाजित कर, उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बदल दिया गया।

जब 5 अगस्त को राष्ट्रपति कोविंद ने अपना पहला आदेश जारी किया, उसी दिन हजारों राजनैतिक नेताओं, वकीलों, पत्रकारों और यहां तक कि नाबालिगों को भी हिरासत में ले लिया गया, ताकि कहीं विरोध न हो। मुख्यधारा के लगभग सभी राजनैतिक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री- महबूबा मुफ्ती, फारूक और उमर अब्दुल्ला भी शामिल थे। राज्य में स्थिति को नियंत्रित करने के लिए 40 हजार से अधिक अतिरिक्त सैनिकों को भेजा गया था। पूरे राज्य में कर्फ्यू लगा दिया गया। फोन और इंटरनेट सहित सभी संचार सेवाएं निलंबित कर दी गईं। इन फैसलों पर कश्मीर और जम्मू के मुस्लिम बहुल जिलों के साथ-साथ लद्दाख के करगिल में तत्काल विरोध के रूप में प्रतिक्रिया सामने आई। लोग गुस्से और सदमे में थे। उनकी इस नाराजगी को एक वाक्य में यही कहा जा सकता है, “सरकार ने हमें अपमानित किया है।”

ऐसे समय में जब राज्य में सभाएं करने पर प्रतिबंध था, तो लोगों ने अपना विरोध जताने के लिए घाटी में दुकानों, अख़बारों, स्कूलों और विश्वविद्यालयों का बहिष्कार कर दिया। यह शटडाउन करीब दो महीने चला, इसकी वजह से रोजमर्रा की वस्तुओं की किल्लत भी शुरू हो गई, जिसका उपभोक्ता और उत्पादकों दोनों को नुकसान उठाना पड़ा। जब घाटी पूरी तरह से बंद थी, देश के दूसरे हिस्सों से विपक्षी दलों के नेताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जम्मू-कश्मीर में जाने से प्रतिबंधित कर दिया गया। इसकी वजह से अनेक लोगों को न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। इन लोगों ने मोदी सरकार के फैसले को चुनौती दी थी। कई महीने की शिथिलता के बाद इस मामले पर सुनवाई शुरू हुई। लेकिन मोदी प्रशासन को इस बात की अनुमति मिल गई कि वह राज्य में सुरक्षा का हवाला देकर लिए गए फैसले पर अपना पक्ष रख सके (जबकि सरकार के अपने आंकड़े कहते हैं कि राज्य में हिंसा की घटनाओं में तेजी से कमी आई है। 2001 में जहां 4,500 घटनाएं हुई थीं, वहीं 2019 में यह कम होकर 500 से भी नीचे आ गईं। ऐसे में सरकार का यह फैसला काफी दुविधा में डालने वाला था)। अंत में, जनवरी 2020 में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने 130 पेज के फैसले में राज्य सरकार से कहा कि वह इंटरनेट प्रतिबंध के फैसले की समीक्षा करे। इस पर न्यायालय ने अपने फैसले की शुरुआत “ए टेल ऑफ टू सिटीज” के उद्धरण से की थी। अपने फैसले में न्यायालय ने राज्य में यथास्थिति को बरकरार रखा।

जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 राज्य की सहमति के बिना हटाया जा सकता है या नहीं? राष्ट्रपति अपने आदेश से राज्य का संविधान निरस्त कर सकते हैं या नहीं? इन संवैधानिक मसलों पर भी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही है। आज की अवधि तक इस मसले पर दो याचिकाओं पर प्रारंभिक स्तर तक ही सुनवाई पहुंच पाई है। न्यायालय में राहत के लिए इस तरह की दलीलें भी पेश की गईं, जिनमें कहा गया कि राष्ट्रपति के आदेश और राज्य पुनर्गठन अधिनियम को तब तक वापस ले लिया जाए, जब तक न्यायालय कोई फैसला नहीं करता है। हालांकि इस पर न्यायालय का कहना था कि याचिका को स्वीकार कर लिया गया, तो यह समय को पीछे ले जाने जैसा होगा, क्या ऐसा करना संभव हो सकता है?

सुप्रीम कोर्ट में लंबित याचिकाओं के बावजूद, मोदी प्रशासन जमीन पर तथ्यों को स्थापित करने के लिए काफी तेजी से काम कर रहा था। अगस्त में फैसला लागू होने के महीने भर के भीतर, दो नए केंद्रशासित प्रदेशों के बीच संपत्तियों का बंटवारा करने के लिए अलग-अलग समितियों का गठन किया गया। इसी तरह जम्मू-कश्मीर पुलिस को केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत लाया गया। राज्य की विधानसभा के उच्च सदन को समाप्त कर दिया गया। उद्योगों के लिए भूमि की खरीद आसान की गई। इसी तरह पर्यटन क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए पूरे देश की बड़ी कंपनियों को निवेश के लिए आमंत्रित किया गया। साथ ही, गैर-कश्मीरी ठेकेदारों को खनन अधिकार भी दिए गए।

दिसंबर 2019 के अंत तक, घाटी की अर्थव्यवस्था काफी बुरी स्थिति में पहुंच गई। फल उद्योग, जो राज्य के सबसे बड़े उद्योगों में से एक है, ने सीमित परिवहन सुविधाओं के कारण अपनी फसल का तीन चौथाई हिस्सा खो दिया। बिगड़ती स्थिति को देखते हुए सरकार ने नेशनल एग्रीकल्चरल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया (नेफेड) द्वारा फसलों की खरीद का फैसला किया। लेकिन नेफेड को भी सीमित परिवहन साधन और पूंजी की कमी का सामना करना पड़ा। इसी तरह पर्यटन उद्योग पर भी भारी मार पड़ी। बिजनेस 86 फीसदी तक गिर गया। कश्मीर चैंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री के अनुसार शटडॉउन के चार महीनों में राज्य की अर्थव्यवस्था को 1787.18 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ, जो अब तक बढ़कर दोगुना हो गया होगा।

इन परिस्थितियों के बीच 31 मार्च, 2020 को जम्मू-कश्मीर देश के बाकी हिस्सों के साथ कोरोना वायरस के संकट से घिर गया। इसी बीच केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य के लिए नए डोमिसाइल नियम भी जारी कर दिए। इसके तहत जो व्यक्ति पिछले 15 साल से राज्य में रह रहा है या फिर उसने सात साल वहां पढ़ाई की है, वह डोमिसाइल प्रमाण पत्र के लिए पात्र होगा। डोमिसाइल प्रमाण पत्र केवल जिलाधिकारी द्वारा जारी किया जा सकेगा, पहले तहसीलदार के पास डोमिसाइल प्रमाण पत्र जारी करने का अधिकार था।

डोमिसाइल प्रमाण पत्र रखने वाले लोगों को मुफ्त शिक्षा, सरकारी नौकरी और अचल संपत्ति के स्वामित्व के अधिकार होगा। नए नियमों को राज्य सरकार ने 18 मई 2020 को अधिसूचित कर दिया है। नए डोमिसाइल नियम ने घाटी के मुसलमानों को उस डर को एक बार फिर से मजबूत किया है कि मोदी सरकार राज्य में जनसांख्यिकी परिवर्तन करना चाहती है। अहम बात यह है कि यह डर जम्मू क्षेत्र में भी बना हुआ है। ऐसे में सवाल उठता है कि वैश्वीकरण के दौर में जम्मू-कश्मीर में डोमिसाइल का मुद्दा क्यों अहम बना हुआ है?

इसके दो प्रमुख कारण है, पहला, स्व-शासन के लिए प्रतिनिधित्व का लोकतांत्रिक सिद्धांत। बीसवीं सदी की शुरुआत में राज्य के गठन के बाद यह मुख्य उद्देश्य था कि सत्ता, प्रशासन और दूसरे संस्थानों में कश्मीरी मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को बढ़ाया जाए, जो राज्य के गठन के समय बहुत कम था। लेकिन शुरुआत से ही राज्य युद्ध में फंस गया। इसकी वजह से निजी उद्योगों का विकास नहीं हो पाया। ऐसे में सरकारी नौकरियां रोजगार का प्रमुख जरिया बन गईं। इन परिस्थितियों में भी एक अहम बात यह थी कि कम से कम राज्य में चुनी हुई सरकार रहती थी, जो राज्य के लोगों के द्वारा चुनी जाती थी। साथ ही, राज्य के शीर्ष ब्यूरोक्रेट भी राज्य के ही हुआ करते थे।

जब मोदी सरकार राज्य को पहले राज्यपाल के शासन में, फिर राष्ट्रपति शासन के तहत और अंत में एक उपराज्यपाल के शासन के तहत ले आई, तो स्थिति में भारी बदलाव आया। वर्तमान में, उप-राज्यपाल मुर्मू के साथ नीति तय करने वाले वरिष्ठ नौकरशाहों के समूह में ज्यादातर राज्य के बाहर के लोग हैं। इसमें केवल एक ही नौकरशाह  राज्य से संबंधित हैं। कश्मीर में जनमत बनाने वाले लोग इस बदलाव की तुलना कश्मीर की डोगरा राजशाही से कर रहे हैं।

विरोध का दूसरा अहम कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भूमि का महत्व है। 1950 के दशक की शुरुआत में शेख अब्दुल्ला के भूमि पुनर्वितरण कार्यक्रम ने कश्मीर के भूमिहीन श्रमिकों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाया। इस एक कदम से राज्य में मानव सुरक्षा सूचकांक देश के सर्वश्रेष्ठ राज्यों में शामिल हो गया। उससे कश्मीर में आर्थिक हालात में क्रांतिकारी बदलाव आ गए।

इन फैसलों का क्या होगा असर अब जब मोदी सरकार ने राज्य की स्वायत्तता को खत्म कर दिया है, ऐसे में जम्मू-कश्मीर में शांति की क्या संभावनाएं हैं? राज्य में खास तौर से कश्मीर घाटी का इलाका कोरोना महामारी की दस्तक से पहले ही आठ महीने से लॉकडाउन में था। ऐसे में महामारी के संकट के बीच बहुत से लोगों को यह उम्मीद बंध गईं थी कि मोदी सरकार मानवता के आधार पर घाटी में 4जी सेवाओं को बहाल करेगी और पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत नजरबंद किए गए नेताओं को रिहा कर देगी। फारूक और उमर अब्दुल्ला को रिहा करने के अलावा मोदी प्रशासन ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। और न ही सुप्रीम कोर्ट ने कोई फैसला दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने गृह मंत्रालय के 18 मार्च 2020 को जारी किए गए फैसले को भी संज्ञान में नहीं लिया, जिसमें राज्य के मानवाधिकार से संबंधित मामलों को देखने का अधिकार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को दे दिया गया है। जबकि दिल्ली को छोड़कर देश के सभी राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों में राज्य मानवाधिकार आयोग काम करता है।

ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो जब भी अनुच्छेद 370 को कमजोर करने की कोशिश की गई है तो राज्य में अशांति बढ़ी है, यहां तक कि इस वजह से युद्ध भी हुए हैं। भारतीय गणराज्य के खिलाफ पहली बार विरोध के स्वर शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के समय उठे थे। उस वक्त रायशुमारी फ्रंट का गठन हुआ था। उसके बाद मार्च 1965 में राष्ट्रपति के आदेश पर राज्य प्रमुख के नामों में बदलाव किए गए। उस वक्त राज्य के प्रमुख को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति कहा जाता था, जिसे बदलकर मुख्यमंत्री और राज्यपाल किया गया। इस फैसले का विरोध इस स्तर तक पहुंचा कि दूसरी बार भारत-पाकिस्तान के बीच अगस्त 1965 में युद्ध की नौबत आ गई। इसी तरह 1987 में जब मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट ने विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया तो उसे प्रतिबंधित करने की कोशिश हुई। इस कारण राज्य में सशस्‍त्र विरोध भी बढ़ा।

निश्चित रूप से इतिहास खुद को दोहराकर दोषी नहीं कहलाना चाहेगा। सामान्य तौर पर संघर्षरत इतिहास तभी बेहतर होता है जब सरकारें उन अनुभवों से शांति बनाने का प्रयास करती हैं। मोदी प्रशासन में इस तरह के बेहतर बदलाव के संकेत बहुत कम दिख रहे हैं। इसी वजह से पिछले कुछ समय से सशस्‍त्र संघर्ष की घटनाएं बढ़ने लगी हैं। क्या इसका मतलब यह है कि अनुच्छेद 370 अब अतीत की बात हो गया है? फिलहाल इसका जवाब, हां है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ को लंबित याचिकाओं पर निर्णय देना बाकी है। अदालत का जो भी फैसला आएगा, उसके बावजूद कश्मीर का मुद्दा बना रहेगा। भारत के साथ कश्मीर का विलय स्वायत्तता के आधार पर हुआ था। और समय-समय पर कश्मीरियों ने विरोध प्रदर्शन कर यह भी जताया है कि स्वायत्तता के अलावा उन्हें कोई दूसरा संबंध स्वीकार्य नहीं है। एक बात और समझनी होगी कि अगर भविष्य की कोई केंद्र सरकार, जो अधीनता के बजाय शांति चाहेगी, उसे कश्मीर के मुद्दे से जूझना होगा। ऐसी सरकार के लिए सवाल यह होगा कि क्या स्वायत्तता एक संभावित समाधान है? एक सवाल यह भी है कि क्या मोदी प्रशासन ने संघर्ष को एक ऐसे बिंदु पर धकेल दिया है, जहां केवल स्वतंत्रता ही शांति स्थापित करने का उपाय रह जाएगा।

(लेखिका राजनैतिक टिप्पणीकार हैं। उनकी नई पुस्तक पैराडाइज एट वारः ए पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ कश्मीर है)

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भारत के साथ कश्मीरियों का रिश्ता स्वायत्तता के आधार पर तय हुआ। समय-समय पर विरोध प्रदर्शनों से उन्होंने बताया कि कोई दूसरा रिश्ता मंजूर नहीं 

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संंघर्षरत इतिहास तभी बेहतर होता है, जब सरकारें उन अनुभवों से शांति बनाने का प्रयास करती हैं। मौजूदा सरकार में ऐसे संकेत कम ही दिख रहे हैं

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