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साइक्लिक नहीं, चेन इफेक्ट

दूरगामी परिणामों का आकलन किए बिना लिए गए फैसलों का हश्र परेशानी बढ़ाने वाला ही होता है, जैसे इस साल का ड्रीम बजट और कश्मीर का फैसला
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन

आजकल कुछ शब्द काफी सामान्य हो चले हैं, जैसे साइक्लिक यानी चक्रीय। इसका मतलब है कि कुछ मसलों में उतार-चढ़ाव आता रहता है। यह शब्द सरकार का पसंदीदा बन गया है क्योंकि देश की सुस्त होती आर्थिक विकास दर के लिए वह ढांचागत संकट बताने के बजाय साइक्लिक से काम चला रही है। लेकिन इस मामले में एक शब्द ज्यादा सटीक है और वह है चेन इफेक्ट। यानी आप जो करते हैं उसका असर दूर तक जाता है। यह बात केवल आर्थिक फैसलों और घटनाक्रमों में ही लागू नहीं होती, बल्कि राजनैतिक और प्रशासनिक फैसलों पर भी उतनी ही सटीक बैठती है।

हाल फिलहाल ऐसे मामले आर्थिक मोर्चे पर ही अधिक हैं। बात इस साल के बजट से शुरू होती है जिसमें वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1997 के पी. चिदंबरम के ड्रीम बजट की तर्ज पर ही ड्रीम बजट पेश किया। पहले ड्रीम बजट में कर दरों में भारी कटौती, स्लैब में बदलाव, कालेधन को निकालने वाली स्वैच्छिक आय घोषणा योजना जैसी तमाम बड़ी घोषणाएं थीं। लेकिन सितंबर आते-आते उस बजट के अनुमान ध्वस्त होने लगे थे। इस साल का बजट भी बड़ा ड्रीम लेकर आया। यह ड्रीम है 2024 तक देश की इकोनॉमी को पचास खरब डॉलर तक पहुंचाने का। लेकिन जिस तरह अर्थव्यवस्था की विकास दर गिरकर पांच फीसदी तक पहुंच गई है और शेयर बाजार लगातार गोते लगा रहा है, वह इस स्वप्न के पूरा होने की संभावना को धूमिल कर रहा है।

बात केवल वित्त मंत्री के आठ फीसदी विकास दर पर आधारित अनुमानों की नहीं, बल्कि इसके चेन इफेक्ट की है। मसलन, राज्यों को केंद्र से मिलने वाला राजस्व उनको बजट तैयार करने का अनुमान देता है। जीएसटी लागू करने पर बनी सहमति की शर्तों के तहत केंद्र राज्यों के राजस्व घाटे की भरपाई करेगा लेकिन प्रत्यक्ष करों के मोर्चे पर लक्ष्य से काफी कम राजस्व का सीधा मतलब है राज्यों के अनुमान का भी गड़बड़ाना। इसका ताजा उदाहरण तेलंगाना सरकार के बजट में भारी कटौती के रूप में सामने आ गया है। यह सिलसिला बाकी राज्यों तक भी जाएगा।

असल में बिना तैयारी और दूरगामी परिणामों की परवाह किए बिना होने वाले फैसले इसी तरह के नतीजे लेकर आते हैं। हाल ही में रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कहा कि चालू साल की पहली तिमाही की पांच फीसदी की कमजोर वृद्धि दर उनके लिए अप्रत्याशित है। वैसे, उन्होंने भी चालू साल के लिए 6.9 फीसदी की वृद्धि दर का अनुमान लगाया है, जो पहले सात फीसदी रखा गया था। हकीकत जानने के बावजूद अनुमान दुरुस्त करने में रिजर्व बैंक पूरी कंजूसी बरत रहा है। यहां 15वें वित्त आयोग का भी एक संदर्भ है। आयोग ने कहा है कि वह विकास दर के सरकार के आठ फीसदी के अनुमान को आधार नहीं बनाएगा। मतलब साफ है कि वह भी मान रहा है कि जो दिखाया गया है, वह सच नहीं है। अब इसे इत्तेफाक कहें या कुछ और, 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष एन.के. सिंह 1997 के ड्रीम बजट के समय वित्त मंत्रालय में राजस्व सचिव होते थे। एक और नई मिसाल बन रही है। पिछले दिनों 15वें वित्त आयोग के टर्म ऑफ रेफरेंस में नई शर्त जोड़ी गई है, जिसमें कहा गया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा के लिए एक नए सेस यानी उपकर को भी लाया जाए। दिलचस्प बात यह है कि यह टर्म तब जोड़ा गया है जब वित्त आयोग राज्यों के साथ बैठकें कर चुका है।

भले सरकार यह स्वीकार नहीं करती कि अर्थव्यवस्था में सुस्ती है लेकिन लगभग हर सप्ताह इसे पटरी पर लाने की खातिर टुकड़ों-टुकड़ों में पैकेज घोषित करने के लिए वित्त मंत्री प्रेस कॉन्फ्रेंस करती रहती हैं। यह भी संयोग ही है कि 1997 के ड्रीम बजट की तरह इस साल का बजट भी जल्द ही गड़बड़ाने लगा है क्योंकि वित्त मंत्री ने बजट के अपने फैसले पलटने का सिलसिला अगस्त से ही शुरू किया है। अगले पड़ाव में जीएसटी दरों में कटौती का एजेंडा है, लेकिन यह राज्यों और केंद्र की जीएसटी काउंसिल में ही संभव है। इस पर राज्यों का कहना है कि अगर केंद्र सरकार ऑटो और दूसरे उद्योगों को राहत देना चाहती है, तो वह जीएसटी दरों में कटौती के बजाय सेस में कटौती करे, क्योंकि इसका सारा राजस्व केंद्र के पास ही रह जाता है। संविधान के अनुच्छेद 270 के तहत केंद्र सरकार को सेस लगाने का हक है और मौजूदा सरकार इसका भरपूर उपयोग कर रही है।

पिछले कुछ बरसों में सरकार के कई बड़े फैसले ऐसे रहे जो बिना तैयारी और परिणामों का आकलन किए बिना ही लिए गए। इसमें नोटबंदी, जीएसटी, पशुओं की आवाजाही और कारोबार से लेकर मौजूदा बजट में लगाए गए करों तक को शामिल किया जा सकता है। लेकिन उनके चलते पैदा होने वाली स्थिति से कैसे निपटा जाए, उसको लेकर सटीक रणनीति नहीं दिखी। इन फैसलों का चेन इफेक्ट लोगों की दिक्कतें बढ़ाने वाला साबित हो रहा है, जबकि दावा ईज ऑफ लिविंग यानी जिंदगी की सहूलियत बढ़ाने का है। इसी तरह कश्मीर से विशेष दर्जा खत्म करने का फैसला भी अपना चेन इफेक्ट दिखाने लगा है, जिसका जवाब देना सरकार के लिए मुश्किल हो रहा है।

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