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6 फरवरी 2023 · FEB 06 , 2023

आवरण कथा/इंटरव्यू: “नोटबंदी से शुरू हुई तबाही”

एनसीआरबी के आंकडों में लगातार दूसरे साल कारोबारियों की आत्महत्या के आंकड़े किसानों से ऊपर दर्ज हुए तो अर्थव्यवस्था की हालात की डरावनी-सी तस्वीर उभरी
प्रो. अरुण कुमार

महामारी कोविड की मार से धीरे-धीरे पटरी पर लौट रही अर्थव्यवस्था में बढ़ती बेराजगारी, महंगाई और वैश्विक मंदी के अंदेशे तो हाड़ कंपा ही रहे हैं, एनसीआरबी के आंकडों में लगातार दूसरे साल कारोबारियों की आत्महत्या के आंकड़े किसानों से ऊपर दर्ज हुए तो अर्थव्यवस्था की हालात की डरावनी-सी तस्वीर उभरी। हालांकि कई अर्थशास्त्री इस दुर्दशा के लिए नोटबंदी और जीएसटी संबंधी नीतियों को ज्यादा जिम्मेदार मानते हैं। अलबत्ता, सुप्रीम कोर्ट ने अपने बहुमत के फैसले में नोटबंदी के सरकारी निर्णय को वैध माना है। बहरहाल, देश की आर्थिक स्थिति, वैश्विक मंदी के अंदेशे, कारोबारियों की बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं पर प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार से हरिमोहन मिश्र ने विस्तृत बातचीत की। प्रमुख अंशः

 

एनसीआरबी के मुताबिक छोटे कारोबारियों की आत्महत्या की घटनाएं 2020 और 2021 में किसानों से ज्यादा हो गई हैं। इसके क्या मायने हैं?

हमारा असंगठित क्षेत्र बुरी तरह पिटा है। पहले नोटबंदी, फिर जीएसटी और कोविड लॉकडाउन से। दरअसल उनकी वर्किंग कैपिटल (कामकाजी पूंजी) बहुत थोड़ी होती है। जैसे ही काम रुकता है, तो कामकाजी पूंजी हफ्ते दस दिन या महीने भर में खत्म हो जाती है। उनके लिए पूंजी उठाना मुश्किल हो जाता है। वे फिर कर्ज में घिर जाते हैं। कारोबार डूबने लगता है, परिवार का खर्च चलाना मुश्किल हो जाता है, तो वे खुदकुशी करने की दिशा में बढ़ जाते हैं। कई मामलों में आपने देखा होगा कि पूरे परिवार को खत्म करके व्यापारी ने खुदकुशी कर ली। हमारा जो स्मॉल और माइक्रो (छोटा और कुटीर) सेक्टर है, वह 2016 के बाद से बुरी तरह से परेशानी में आ गया है। ये आत्महत्याएं दिखा रही हैं कि तकलीफ बढ़ती चली गई है। नोटबंदी ने इस तरह की मुश्किल बढ़ाई। इससे उनका नकदी का प्रवाह रुक गया। ये लोग नकदी में ही काम करते हैं। आपने देखा होगा कि नोटबंदी के दौरान बाजार खाली हो गए, काम-धंधे रुक गए। पहला झटका नोटबंदी से लगा। फिर, जीएसटी आई। हालांकि 50 लाख रुपये से कम टर्नओवर वालों को जीएसटी से बाहर रखा गया और 1.5 करोड़ रुपये तक का टर्नओवर है तो सरल 1 फीसद के टैक्स स्कीम में रखा गया, लेकिन उनको इनपुट क्रेडिट नहीं मिलता। कोई माल उनसे खरीदता है तो उसको भी इनपुट क्रेडिट नहीं दे पाते, उलटा उनको उसे रिवर्स चार्ज देना पड़ता है, जो उनसे माल खरीदता है। ऐसे में डिमांड शिफ्ट कर गई है असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र में। इसलिए हमको दिख रहा है कि संगठित क्षेत्र तो बहुत अच्छा कर रहा है। स्टॉक मार्केट तेजी पर हैं, लेकिन स्टॉक मार्केट में तो तीस हजार बड़ी कंपनियां ही होती हैं। माइक्रो, स्मॉल सेक्टर तो मार्केट में आता ही नहीं है। इस तरह जीएसटी से माइक्रो और स्मॉल सेक्टर में काफी फर्क पड़ा क्योंकि उनके माल का दाम कम नहीं हुआ लेकिन संगठित क्षेत्र को इनपुट क्रेडिट मिला तो उनके सामान का दाम कम हो गया। जैसे प्रेशर कुकर, टेक्सटाइल सामान, लेदर, लगेज उद्योग है या ई-कॉमर्स में डिमांड बहुत बढ़ गई, लेकिन आपके पड़ोस के दुकानदार के यहां डिमांड कम हो गई। इस प्रकार तरह-तरह से असंगठित क्षेत्र पिट गए और डिमांड संगठित क्षेत्र में शिफ्ट हो गई। कई कारण हैं कि असंगठित क्षेत्र गिरता चला जा रहा है। उससे वे उबर नहीं पा रहे हैं। एमएसएमई सेक्टर को सरकारी रियायतों का सारा लाभ मीडियम सेक्टर उठा लेता है। माइक्रो सेक्टर तक वे चीजें पहुंचती ही नहीं हैं। स्मॉल सेक्टर तक भी कम ही पहुंचती हैं। इसलिए माइक्रो या स्मॉल सेक्टर में किसी को अपना धंधा बहाल करना है तो उसे अनौपचारिक बाजार (सेठ-साहूकार) से कर्ज उठाना पड़ता है। अनौपचारिक बाजार में ब्याज दर काफी ऊंची होती है। छत्तीस फीसदी, अड़तालीस फीसदी तक होती है। ऐसे में उनके पास पैसा नहीं बचता है। उनकी आमदनी घट जाती है। परिवार चलाना मुश्किल हो जाता है या फिर कर्ज इतनी तेजी से बढ़ता रहता है कि कारोबार डूब जाता है। इसकी वजह से नोटबंदी के बाद से समस्या बढ़ती चली गई। महामारी के दौरान तो बहुत बढ़ गई।

सरकार ने जो इमरजेंसी क्रेडिट लाइन स्कीम शुरू की थी, उसका फर्क पड़ा?

सरकारी योजनाओं का लाभ मीडियम और स्मॉल वाले ही ले लेते हैं। स्मॉल में भी जो छोटे होते हैं, वे नहीं ले पाते हैं। माइक्रो वाले तो बिलकुल नहीं ले पाते हैं। उनको साहुकारों से ही कर्ज उठाना पड़ता है। नहीं उठा पाते तो अपनी इकाई ही बंद कर देते हैं। खबरें तो ये आ रही हैं कि 30-40 फीसदी यूनिट बंद हो गए हैं, हालांकि कितना बंद हुआ है कहना मुश्किल है क्योंकि कोई सरकारी या आधिकारिक आंकड़े तो उसके आते नहीं हैं। लेकिन असंगठित क्षेत्र के लोग कहते हैं कि 30-40 फीसदी यूनिट बंद हो गए हैं। 30-40 फीसदी का आंकड़ा बहुत बड़ा होता है।

इमरजेंसी क्रेडिट लाइन स्कीम का एक आंकड़ा दिख रहा है, हर 6 में 1 लोन एनपीए है। तो, लाभ पाने वालों के यहां भी संकट है।

बिलकुल, जो लोन लेता है उसकी भी हालत खराब होती है क्योंकि वह रिवाइव नहीं कर पाता है, लेकिन बहुतों को तो लोन मिल ही नहीं पाता है। हमारे यहां तो करीब 6 करोड़ माइक्रो यूनिट हैं और 6 लाख स्मॉल और मीडियम यूनिट हैं। मीडियम यूनिट ही ज्यादा फायदा उठा पाती हैं। स्मॉल में जो छोटे होते हैं, वे फायदा नहीं उठा पाते हैं। माइक्रो वाले तो बिलकुल नहीं उठा पाते। वे बैंकों में भी जाते हैं तो वहां बहुत लिखा-पढ़ी होती है, खासकर एनपीए ज्यादा होने की समस्या के बाद। ये लिखा-पढ़ी कर नहीं पाते हैं। करते भी हैं तो बिचौलिया उसमें भांजी मार देता है। यानी तरह-तरह की परेशानियां ज्यादातर छोटे कारोबारियों की हैं। हुआ यह कि सरकार ने 2017-18 की चौथी तिमाही में अर्थव्यवस्था की ग्रोथ रेट 8 फीसदी दिखाई, लेकिन वह महामारी के पहले वाली आखिरी तिमाही में गिरकर 3 फीसदी रह गई। यानी संगठित क्षेत्र में भी परेशानी बढ़ रही थी, जहां बड़ी-बड़ी इकाइयां हैं। जब उनकी परेशानी बढ़ती है तो सप्लायरों को समय पर भुगतान नहीं करते हैं। बहुत सारे माइक्रो, स्माल, मीडियम सेक्टर के सप्लायरों को समय से पैसा नहीं मिलता है। इस तरह उनकी वर्किंग कैपिटल कम पड़ जाती है। उनको बैंक या सेठ-साहुकारों के पास जाना पड़ता है। फिर वे कर्ज के जाल में फंस जाते हैं। इस तरह वे मुश्किल में फंसते जाते हैं। यह भी खबर आई थी कि सरकार से भी उनको समय से भुगतान नहीं मिलता है।

बड़ी आबादी इस तबाही से गुजरी होगी और कई बेरोजगार हुए होंगे? बेरोजगारी का आंकड़ा इससे काफी बढ़ा होगा?

असल में एमएसएमई सेक्टर में 99 प्रतिशत यूनिट तो माइक्रो सेक्टर के हैं। स्मॉल और मीडियम सेक्टर 1 फीसदी हैं। 97.5 प्रतिशत रोजगार तो एमएसएमई के माइक्रो सेक्टर में है। 6 करोड़ यूनिट माइक्रो सेक्टर में हैं और करीब 11 करोड़ लोग उसमें काम करते हैं। इसलिए माइक्रो सेक्टर में गिरावट आती है तो बड़े पैमाने पर बेरोजगारी आती है। स्मॉल सेक्टर के टूटने से भी बेरोजगारी बढ़ती है। मीडियम और बड़े सेक्टर ज्यादा ऑटोमेशन, मॉडर्न टेक्नोलॉजी वाला है, इसलिए उसमें इतना रोजगार पैदा नहीं होता है। इसलिए माइक्रो और स्मॉल सेक्टर के ढहने से बेरोजगारी बढ़ जाती है, लोगों की आमदनी घट जाती है। आमदनी कम हो जाती है तो अर्थव्यवस्था में डिमांड भी कम हो जाती है। डिमांड कम होती है तो उसका असर संगठित क्षेत्र पर भी पड़ता है और संगठित क्षेत्र भी गिरावट की ओर बढ़ जाता है।

इसका जीडीपी पर असर तो मापा नहीं जा सकता है?

जीडीपी दरअसल संगठित क्षेत्र के आधार पर मापी जाती है। हर तिमाही का जो आंकड़ा आता है, उसमें असंगठित क्षेत्र के बस कृषि के आंकड़े होते है, बाकी तो 300-400 कंपनियां कारपोरेट सेक्टर की हैं। जीएसटी, रेल ट्रैफिक, कारों की बिक्री, माल ढुलाई वगैरह के आंकड़े होते हैं। मगर यह सारा संगठित क्षेत्र का है, इसलिए हर तिमाही में ज्यादातर इसी का डेटा होता है। उसमें भी कृषि के आंकड़े सही नहीं होते क्योंकि यह मान लिया जाता है कि जो उपज के लक्ष्य तय किए हैं वे पूरे हो गए हैं जबकि अक्सर लक्ष्य पूरे नहीं होते हैं। जैसे, इस साल पहली तिमाही का डेटा दिखा रहा है कि कृषि में तीन प्रतिशत की बढ़त हुई है, लेकिन इतनी बढ़त हो नहीं सकती क्योंकि गर्मी मार्च-अप्रैल में जल्दी आ गई तो गेहूं की फसल 1 करोड़ टन कम हो गई, सब्जियों, फलों की फसल कम हो गई। फसल कम हो गई तो तीन प्रतिशत की वृद्धि हो ही नहीं सकती, उपज तो निगेटिव में हुई होगी। दूसरी तिमाही के आंकड़े आए, उसमें दिखाया गया कि 4.5 प्रतिशत की वृद्धि है। वह भी नहीं हो सकती क्योंकि जून-जुलाई-अगस्त में धान की फसल वाले क्षेत्र में बारिश कम हुई तो धान का दाना पुष्ट नहीं हुआ, यानी उपज कम हो गई तो बढ़ोतरी कहां से होगी। इसलिए जो आंकड़े हैं, वे भी ठीक नहीं हैं। कृषि का आंकड़ा सही नहीं होता। तो, ये जो आंकड़े 6 या 7 प्रतिशत दिखाते हैं, वह संगठित क्षेत्र का है। फिर अगर हम मान लें कि असंगठित क्षेत्र सिर्फ 10 प्रतिशत गिरा है, लोग तो कह रहे हैं कि 30-40 प्रतिशत गिरा है। हम 10 प्रतिशत भी मान लें तो हमारी वृद्धि दर शून्य हो जाएगी। जीडीपी वृद्धि दर 6-7 प्रतिशत नहीं है, बल्कि निगेटिव हो गई है। शून्य से नीचे चली गई है।

इस साल मंदी का अंदेशा भी बढ़ रहा है?

वृद्घि दर शून्य या निगेटिव हो गई तो समझिए मंदी आ गई है। दुनिया में मंदी बढ़ती चली आ रही है। यूरोप, ब्रिटेन, अमेरिका, रूस या चीन में जीरो कोविड खत्म करने से वृद्धि दर गिर गई है। एक तरह से मंदी आ ही गई है। होता यह है कि आइएमएफ वगैरह सही समय पर नहीं बताते कि मंदी आ गई है। उनको डर होता है कि हमने मंदी का ऐलान कर दिया तो सारे शेयर बाजार वगैरह गिर जाएंगे। आपने देखा कि 2007-08 में वैश्विक वित्तीय संकट आया तो जब तक लेहमन ब्रदर्स नहीं डूबा, तब तक वे मना करते रहे। कहते रहे, डेढ़ प्रतिशत की वृद्धि तो होगी ही। वित्तीय संस्थाएं स्वीकार नहीं करतीं कि मंदी आ गई है, लेकिन दुनिया में मंदी आ ही गई है।

पूरे समाज पर क्या असर देखते हैं?

असर तो यह है कि तकरीबन 94 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं, चाहे वे कारोबार, काम-धंधा या मेहनत-मजदूरी करते हों, दोनों पर निगेटिव असर है। बेरोजगारी बढ़ जाती है, तनख्वाह कट जाती है। परिवार की आमदनी कम हो जाती है। गरीबी बढ़ जाती है, क्रय-शक्ति घट जाती है। लिहाजा, बाजार में मांग कम हो जाती है। मांग कम होने से अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी हो जाती है। निवेश घट जाता है, जिससे वृद्धि दर और कम हो जाती है। यह एक दुश्चक्र बन जाता है। इससे दाम कम हो जाते हैं, लेकिन अभी चक्कर दूसरा है। दाम इसलिए नहीं कम हो रहे हैं क्योंकि ये दाम बढ़े हुए हैं, ये सप्लाई अवरुद्ध होने से बढ़े हुए हैं। सामान्य तौर पर होता है कि मांग बढ़ती है तो आप ब्याज दर वगैरह बढ़ा देते हैं कि मांग कम हो जाए, लेकिन अभी मांग तो कम हो जाएगी, पर सप्लाई अवरुद्ध होने से दाम घट नहीं रहा है। वजह यह है कि बहुत सारे कारोबार बंद हो जाते हैं तो सप्लाई घट जाती है। फिर बाहर से चीन वगैरह से जो माल आ रहा है वहां सप्लाई अवरुद्ध हो गई। बहुत सारी चीजें हैं जो हम आयात करते हैं उससे हमारा आयात बिल बढ़ गया है लेकिन निर्यात नहीं बढ़ रहा है। इससे भुगतान संतुलन का संकट हो गया है। इससे रुपया गिरने लगता है। रुपया गिरता है तो महंगाई और तेज हो जाती है। फिर भुगतान संतुलन के संकट से निवेश और क्रेडिट पर असर पड़ जाता है। कुल मिलाकर हमारे बजट पर असर हुआ, बढ़ोतरी पर असर हुआ, लोगों की आमदनी पर असर हुआ। लोगों के जीवन स्तर पर असर हुआ। असर बहुत सारे दिख रहे हैं।

इस भंवर से निकलने के उपाय क्या हो सकते हैं या गिरावट और तेज हो सकती है?

देखिए, आरबीआइ को ब्याज दर इसलिए बढ़ानी पड़ रही है क्योंकि अमेरिका, यूरोप में ब्याज दरें बढ़ रही हैं। वहां तो ठीक है क्योंकि वहां असंठित क्षेत्र बहुत छोटा है। वहां तो उसका असर दामों पर पड़ेगा लेकिन उनकी वृद्धि दर भी कम हो जाएगी। हम ब्याज दर इसलिए बढ़ा रहे हैं कि पूंजी बाहर न जाए। उसका असर हमारी वृद्धि पर पड़ रहा है लेकिन हमारी कीमतों पर उसका असर नहीं पड़ता क्योंकि सप्लाई अवरुद्ध है। जैसे कि पिछले साल मार्च-अप्रैल में गर्मी तेज हो गई तो सप्लाई कम हुई और गेंहू के दाम बढ़ गए, सब्जी-फलों के दाम बढ़ गए या तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें बढ़ गईं तो उसमें ब्याज दर नीति क्या कर लेगी? हमारे यहां समस्या वित्तीय नीति की है, न कि मौद्रिक नीति की। मौद्रिक नीति कामयाब नहीं होगी। हमें वित्तीय नीति के तहत पेट्रोल, डीजल वगैरह के दाम कम करने होंगे, अपना टैक्स कम करना पड़ेगा। इस समय टैक्स उगाही अच्छी हो रही है। देश में जीएसटी, कारपोरेट टैक्स, इनकम टैक्स उगाही ठीक चल रही है तो हम उत्पाद कर कम कर सकते हैं, टैक्स कम कर सकते हैं। ऊर्जा की कीमतें थोड़ी कम होंगी तो दाम कम हो जाएंगे। दूसरे, हमारा कारपोरेट सेक्टर काफी मुनाफा कमा रहा है। उसकी प्राइसिंग पावर बढ़ गई है क्योंकि असंगठित क्षेत्र पिट रहा है। उसकी मांग बढ़ गई तो उसने दाम बढ़ा दिए हैं। इस पर भी हमें वेल्थ टैक्स लगाना चाहिए, जिससे हम संसाधन जुटाकर गरीबों की मदद कर सकें या उससे परोक्ष कर घटा सकें। ये हम कर सकते हैं। तीसरे, माइक्रो सेक्टर में जान फूंकने के लिए हमें एमएसएमई को दो अलग-अलग भागों में बांट देना चाहिए। माइक्रो सेक्टर अलग और स्मॉल तथा मीडियम सेक्टर अलग। हमें माइक्रो सेक्टर के लिए विशेष नीति बनानी चाहिए। अभी जो नीतियां एमएसएमई के लिए बनाई जाती हैं, उसका फायदा स्मॉल और मीडियम सेक्टर को मिल जाता है। हमें माइक्रो सेक्टर के लिए अलग से नीति बनानी होगी। आखिर उनकी समस्या क्या है? समस्या तीन है। एक, उन्हें कर्ज नहीं मिल पाता। दूसरे, टेक्नोलॉजी विकसित नहीं कर पाते। इससे होता यह है कि छोटी-छोटी चीजें पतंग, माझा, गुलाल, पिचकारी, गणेश की मूर्ति सब चीन से आ जाता है। वे बड़े पैमाने पर उत्पादन करते हैं तो हमारे यहां का कारोबार पिट जाता है। अगर सरकार टेक्नोलॉजी विकसित करके माइक्रो सेक्टर को दे तो वे भी होड़ में खड़े हो पाएंगे। तीसरी बात मार्केटिंग की है। चीन मार्केटिंग में तेज है। उसे पता है कि कब क्या बिकेगा। हमारे माइक्रो सेक्टर के लिए कोऑपरेटिव बनाकर तीन चीजें उपलब्ध कराई जाएं: मार्केटिंग, क्रेडिट और टेक्नोलॉजी। उससे उसका रिवाइवल होगा। सप्लाई बॉटलनेक कम हो जाएंगे। इसलिए सरकार को वित्तीय नीति पर जोर देना चाहिए।

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