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आंकड़ों की राजनीति का नुकसान भारी

पिछले कुछ समय से देश की अर्थव्यवस्था को लेकर आ रहे आंकड़ों पर अब ऐसे विशेषज्ञ भी सवाल उठा रहे हैं, जो कभी सरकार का हिस्सा थे। इससे यह संशय पैदा हो गया है कि दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। इस पूरे मसले पर पूर्व चीफ स्टैटीशियन प्रणब सेन से आउटलुक के एसोसिएट एडिटर प्रशांत श्रीवास्तव की बातचीत के अंशः
पूर्व चीफ स्टैटीशियन प्रणब सेन

पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्‍मण्यम ने कहा है कि जीडीपी के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है। आपका क्या कहना है?

किसी भी देश के लिए आंकड़ों पर सवाल उठना सही नहीं है। इससे शक पैदा होता है। पिछले कुछ महीनों से ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिनकी वजह से भरोसा डगमगाया है। जहां तक अरविंद सुब्रह्‍मण्यम के दावों की बात है, तो मैं उनसे पूरी तरह से सहमत नहीं हूं। अगर वे यह कहते कि 2011-12 के पहले जीडीपी को जिन सूचकांकों के जरिए आंका जाता था, उनके आधार पर मौजूदा ग्रोथ रेट 2.5 फीसदी ज्यादा है, तो बात समझ में आती। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।

आपने कहा कि पिछले कुछ महीनों से कई घटनाएं घटी हैं, जिससे शक पैदा होता है। ये कौन-सी घटनाएं हैं?

जिस तरह से राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो सदस्यों ने इस्तीफा दिया, उसके बाद बेरोजगारी के आंकड़ों को जारी नहीं किया गया। फिर, लीक रिपोर्ट पर नीति आयोग ने बेवजह आकर सफाई दी, उससे ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था के आंकड़ों को तैयार करने में राजनैतिक दखलंदाजी की जा रही है। ऐसा लगने लगे तो शक होना स्वाभाविक है।

नीति आयोग ने उस वक्त कहा कि अभी रिपोर्ट को मंजूरी नहीं मिली है, हालांकि चुनाव के बाद उसी रिपोर्ट को सरकार ने सार्वजनिक कर दिया, जिसमें बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर दिखाई गई है। इस पर क्या कहना है?

केंद्रीय सांख्यिकी आयोग का गठन ही इसलिए हुआ था कि आंकड़ों में किसी तरह की दखलंदाजी नहीं हो। रिपोर्ट को अंतिम रूप देकर स्वीकृत करना उसी का काम है। मुझे समझ में नहीं आता है कि रिपोर्ट में नीति आयोग की क्या भूमिका है। ऐसे में आप पर कोई भी भरोसा नहीं करेगा। सरकार नया आयोग लाने की बात कर रही है। आप कुछ भी लाइए, जरूरी है कि लोगों का भरोसा बना रहे। पिछले चार महीने से आयोग में नियुक्तियां नहीं हुई हैं। इस पर आप क्या कहेंगे? फिलहाल कोई नियुक्ति होती नहीं दिख रही है। संदेश यही है कि आप आंकड़ों से राजनीति कर रहे हैं।

आंकड़ों पर सवाल उठना नीतिगत फैसलों पर कैसे असर डाल सकता है?

देखिए, जब तक आंकड़ों पर तकनीकी स्तर पर सवाल उठते हैं, उस वक्त तक कोई चिंता की बात नही है। लेकिन यहां तो राजनैतिक दखलंदाजी का शक है। ऐसे में हर चीज पर सवाल उठेंगे। बजट में सरकार कौन-से आंकड़े दिखाएगी। आखिर अपुष्ट आंकड़ों पर क्या योजनाएं बनाई जाएंगी, इस पर कुछ कहा नहीं जा सकता है। लेकिन अगर आंकड़ों पर शक होगा तो कोई भी आपके दावों को स्वीकार करने से पहले कई बार सोचेगा।

क्या हम चीन की तरह होते जा रहे हैं, जिसके आंकड़ों पर हमेशा सवाल उठते हैं?

चीन के आंकड़ों पर एक समय कोई भरोसा नहीं करता था। आज भी स्थिति बहुत सुधरी नहीं है। अगर जल्द ही केंद्र सरकार ने भरोसा बढ़ाने  वाले कदम नहीं उठाए तो हम भी उसी स्थिति में पहुंच सकते हैं।

ऐसी स्थिति में क्या विदेशी निवेश से लेकर रेटिंग आदि पर असर पड़ सकता है?

चीन के उदाहरण से तो ऐसा नहीं लगता है लेकिन यह बात जरूर है कि निवेशक से लेकर रेटिंग एजेंसियां अपने स्तर पर भी आकड़ों का विश्लेषण करेंगी। आखिर में उनके पास विकल्प क्या बचेगा?

भरोसा जीतने के लिए सरकार को क्या करना चाहिए?

लोगों को लगना चाहिए कि संस्थाओं में राजनैतिक दखल नहीं हो रही है। जब ऐसा होने लगेगा तो खुद ही भरोसा बढ़ जाएगा। इसके साथ ही ग्रोथ रेट तय करने के लिए इतना ही कर सकते हैं कि बार-बार मानकों को बदला नहीं जाए। मेरे अनुसार मौजूदा पद्धति सही है।

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