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आवरण कथा/इंटरव्यू/ मुहम्मद सलीम: “बना रहे हैं मजबूत गठबंधन”

बंगाल में 23 साल सत्ता में रह चुके वाम मोर्चा की मौजूदा सियासी हालत कांग्रेस से बहुत बेहतर नहीं है
मुहम्मद सलीम

बंगाल में 23 साल सत्ता में रह चुके वाम मोर्चा की मौजूदा सियासी हालत कांग्रेस से बहुत बेहतर नहीं है। 2019 के संसदीय चुनावों में उसका मत प्रतिशत 8 के आसपास रहा था। उसे राज्य में अपना वजूद बचाए रखने के लिए न केवल तृणमूल कांग्रेस, बल्कि भाजपा की चुनौती का भी सामना करना है। ऐसे में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की चुनावों को लेकर क्या रणनीति है, कांग्रेस के साथ गठबंधन कितना कारगर होगा, इन सब मुद्दों पर पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य मुहम्मद सलीम ने आउटलुक के प्रशांत श्रीवास्तव से बातचीत की। प्रमुख अंश:

 

वामदल-कांग्रेस गठबंधन पिछली बार तो बहुत कारगर नहीं रहा था। इस बार भाजपा और तृणमूल कांग्रेस को कितनी चुनौती दे पाएगा?

हम लेफ्ट फ्रंट का विस्तार कर रहे हैं। इसके तहत हम सभी गैर-सांप्रदायिक दलों को एक साथ जोड़ रहे हैं। इसी कड़ी में हमारे साथ कांग्रेस है। दलों के अलावा समूहों और व्यक्तिगत स्तर पर भी लोगों को अपने साथ जोड़ रहे हैं। ये वे लोग हैं, जो तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के विचारों से इत्तेफाक नहीं रखते हैं। यह एक मजबूत विकल्प के रूप में खड़ा होगा। जहां तक 2016 की बात है, तो आज माहौल पूरी तरह बदला हुआ है।

तो, क्या यह बिहार जैसा महागठबंधन होगा?

हम बिहार की नकल नहीं कर रहे हैं। महागठबंधन जैसा नाम नहीं देने वाले हैं। हम बंगाल की संस्कृति के आधार पर चल रहे हैं। हमारा लक्ष्य ममता को हटाना और भाजपा के रोकना है।

अगर आपका गठबंधन जीतता है तो क्या यह तय है कि माकपा का ही नेता मुख्यमंत्री बनेगा?

देखिए अगर माकपा को अकेले भी बहुमत मिलता है तो भी हम गठबंधन की सरकार बनाएंगे। माकपा के पास वह अनुभव और प्रतिष्ठा है, जिससे वह गठबंधन की सरकार चला सके। ममता बनर्जी ने भी गठबंधन किया था, आज वे अकेले हैं। एनडीए के साथी भी उसे छोड़ रहे हैं, जबकि माकपा के साथ 17 दल हैं।

भाजपा और तृणमूल कांग्रेस में किसे नंबर वन विरोधी मानते हैं?

हर मीडिया यह सवाल पूछता है, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं है। हम चुनाव जीतने के लिए लड़ रहे हैं। हम केंद्र की सत्ता में बैठी भाजपा और राज्य में बैठी तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ हैं। हमारी लड़ाई दक्षिणपंथियों से है। और आज उस ओर भाजपा और तृणमूल दोनों हैं।

चुनावों में हिंसा की बात भाजपा कर रही है?

जो लोग हिंसा करते हैं, वे इस समय तृणमूल और भाजपा दोनों में हैं। ये गुंडागर्दी, गोलाबाजी, कमीशन के लिए आपस में लड़ रहे हैं। ये चुनावी हिंसा नहीं है, यह सब लूट की लड़ाई है।

ठीक चुनाव से पहले भाजपा में तृणमूल और वाम दलों के लोग शामिल हो रहे हैं?

यह भाजपा की कमजोरी है। मीडिया भी उसके पक्ष में माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और होती है। अपना पलड़ा भारी करने के लिए भाजपा दूसरे दलों के लोगों को अपने साथ जोड़ने के लिए तोड़-फोड़ कर रही है।

ममता बाहरी बनाम स्थानीय मुद्दा उठा रही हैं

यह गलत राजनीति है। संविधान के अनुसार इस देश का कोई भी व्यक्ति कहीं से भी आकर चुनाव लड़ सकता है। मोदी जी भी तो गुजरात से आकर उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ते हैं। बंगाल में उत्तर प्रदेश, बिहार और दूसरे राज्यों से आकर लोग बसे हैं। इसमें हर्ज क्या है। तृणमूल,भाजपा इस तरह की राजनीति कर लोगों में उन्माद पैदा करते हैं। ये लोग धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र के नाम पर लोगों को बांटना चाहते हैं।

भाजपा आक्रामक रवैये से चुनाव लड़ती है और लोगों को बांटने का भी आरोप लगता है?

भाजपा राजनीति कम करती है, वह हथकंडे ज्यादा अपनाती है। असल में उसका नेतृत्व ऐसा ही है। वे इन्हीं हथकंडे पर भरोसा करता है। चाहे गृह मंत्री अमित शाह हों या फिर कैलाश विजय वर्गीय, दोनों पैसे के बल पर, एजेंसियों का इस्तेमाल करके और लोगों को बदनाम करने के तरीके अपनाते हैं, ताकि लोगों को डरा सकें। ऐसा ही तृणमूल बंगाल में करती हैं। इसमें दोनों को महारत हासिल है।

लेकिन भाजपा पिछले संसदीय चुनाव में अच्‍छा प्रदर्शन कर चुकी है, ऐसे में वह बंगाल में क्यों असफल होगी?

देखिए बंगाल का अपना एक चरित्र है। राजनीति हमेशा समाज, संस्कृति के आधार पर चलती है। अगर कुछ लोग यह समझते हैं कि मीडिया, फेक न्यूज, हिंदू-मुसलमान के बीच वैमनस्य पैदा करके चुनाव जीत सकते हैं, तो वह बार-बार नहीं होता है। लोकसभा के चुनाव और राज्य के चुनाव में अंतर है।

राज्यपाल की भूमिका को कैसे देखते हैं?

तृणमूल और राज्यपाल में नूराकुश्ती चल रही है। माकपा सरकारिया आयोग के पहले से ही कहती आई है कि राज्यपाल के पद को राजनीति के लिए केंद्र सरकार इस्तेमाल करती है। लेकिन ममता बनर्जी जब हमारे खिलाफ लड़ती थीं तो वे हमेशा राज्यपाल के पास पहुंच जाती थी।

गृह मंत्री अमित शाह ने एक बार फिर सीएए, एनआरसी का मुद्दा उठाया है?

अमित शाह जो भूत दिखा रहे थे। अब उसको सामने लाने का फिर समय आ गया है। चुनाव के समय यह निकलता है। यह केवल विभाजन की राजनीति करने के लिए है। इसके तहत बंगाली और गैर-बंगाली और हिंदू-मुस्लिम को बांटना है। केवल भय का वातावरण बनाने के लिए है। असम में यही किया लेकिन बंगाल के लोग ऐसा होने नहीं देंगे।

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