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साहित्य/इंटरव्यू/गीतांजलि श्री : ‘साहित्य सृजन पुरस्कार के लिए नहीं होता’

गीतांजलि श्री से बातचीत
गीतांजलि श्री

अस्सी बरस की एक महिला की कहानी, जो अपने पति की मौत के बाद एकाकी जीवन जी रही है, फिर नया जीवन शुरू करना चाहती है। गीतांजलि श्री ने अपने उपन्यास रेत समाधि में बाहर और भीतर की स्थितियों को इस खूबसूरती से कलमबद्ध किया है कि पाठक शोर और सन्नाटे के संतुलन में कहीं खो से जाते हैं। इसी उपन्यास का टूम ऑफ सैंड नाम से अंग्रेजी में अनुवाद डेजी रॉकवेल किया है, जो अब इंटरनेशनल बुकर प्राइज की लॉन्ग लिस्ट में शामिल हुआ है। बुकर पुरस्कार के लिए चुनी गई फेहरिस्त में शामिल यह हिंदी का पहला उपन्यास है, जिसके नतीजे 25 मई को जाहिर होने वाले हैं। अपने समय को पहचान कर उसे संजीदगी के साथ पाठकों के सामने रखना उनकी सबसे बड़ी ताकत है और यही बात उन्हें अलग श्रेणी में रखती है। आउटलुक के लिए उन्होंने आकांक्षा पारे काशिव के साथ समय के बदलाव, विषय की गंभीरता और लेखन में ठहराव के साथ ईमानदारी पर कई बातें की। प्रमुख अंश:

 

आपने सांप्रदायिकता पर हमारा शहर उस बरस लिखा, वह नब्बे के दशक की पृष्ठभूमि में था, तब से अब तक हालात खराब ही हुए हैं। आपको लगता है कि नई स्थितियों में आपको एक बार फिर इस विषय पर लेखकीय हस्तक्षेप की जरूरत है?

लेखकीय हस्तक्षेप की जरूरत तो हर समय रहती है। लेखक का काम ही है कि वह तटस्थ रहते हुए ईमानदारी से अपने समय की प्रतिक्रिया दे। लेकिन इतना समझना होगा कि वह भगवान नहीं, जो उसके पास हर समस्या का हल हो। वह अध्यापक भी नहीं है कि उसे सारे जवाब मालूम हों। जो माहौल होता है, एक लेखक भी उसी सब से जूझ रहा होता है। वह भी आखिर इंसान ही है। उसके अंदर भी बहुत कुछ उमड़-घुमड़ रहा होता है, वह भी झंझावातों से जूझ रहा होता है। जिस पसोपेश से दुनिया या आम आदमी गुजर रहा होता है, लेखक भी उसी स्थिति से गुजर रहा होता है। इसलिए हस्तक्षेप लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। कोविड की त्रासदी से ही समझिए। जैसे ही कोविड का प्रकोप थोड़ा कम हुआ हम सब फिर वही करने लगे, जो हम बरसों से करते आ रहे थे। कोविड आने के बाद पता ही नहीं चल रहा कि हमने जो किया वो वाकई विकास था या विनाश। पर्यावरण को जो नुकसान हम पहुंचा रहे थे, स्थिति सामान्य होते ही फिर वैसा करने लगे। यही बात सांप्रदायिकता पर लागू है। इसका जहर लोगों के बीच दरार बढ़ाने का काम कर रहा है। सोचने की जरूरत है कि नफरत को बढ़ाने की आखिर जरूरत क्यों है। यह सोचने की जरूरत है कि क्या लिखा जाए और क्या नहीं। बस इतना कि जो भी लिखा जाए, ईमानदारी से लिखा जाए। कोशिश रहे कि हम इंसानियत के बूते आगे बढ़ें।

समलैंगिकता, खास कर स्त्री समलैंगिकता ऐसा विषय है जिस पर समाज कम बात करता है। सांप्रदायिकता के बाद आप तिरोहित लेकर आईं, किसी लेखक के लिए ऐसा शिफ्ट कितना चुनौतीपूर्ण होता है।

विषय का चुनाव बाहर से नहीं बल्कि भीतर से आता है। शुरुआत में भी मैंने कहा लेखकीय ईमानदारी जरूरी है। लिखे के प्रति आपकी जिम्मेदारी है। चुनौती तो बस यही है कि जद्दोजहद जो लेखक के भीतर है, वह इस तरह बाहर आए कि कोई आहत न हो। जब मैं स्त्री समलैंगिकता पर लिख रही थी, तो मेरे मन में यह था कि मैं ऐसे किसी भी व्यक्ति का दिल न दुखा दूं, जो इस तरह का रिश्ता या जीवन जीते हैं। मैंने इसे सनसनी के लिए लिखा भी नहीं। कहीं भी मैंने शब्द के माध्यम से यह नहीं जताया कि दोनों पात्र समलैंगिक हैं। पढ़ते हुए पाठक ही तय करें कि हो सकता है कि उन दोनों के बीच इतनी घनिष्ठता थी, सो संबंध भी हो सकते हैं। आम मान्यता है कि समलैंगिक अलग होते हैं। लेकिन यह अलग बिरादरी नहीं है। ये भी इंसान ही हैं। मेरे अंदर उनके प्रति संवेदना भी थी और जिज्ञासा भी। मैंने इसे किसी फार्मूले के तहत नहीं लिखा। मैं यह नहीं सोचती कि अब मेरा एक उपन्यास समलैंगिकता पर आना चाहिए। मैंने जब हमारा शहर उस बरस लिख कर खत्म किया, तो अगला कुछ भारी लिखने का मन नहीं था। हमारा शहर लिखना दर्दनाक प्रक्रिया थी। तिरोहित लिखते वक्त मेरे अंदर एक छत की कल्पना थी, जो मुहल्ले के घरों को आपस में जोड़ती थी। जहां इस कोने से उस कोने तक जा सकते थे। नीचे घर लड़कियों के लिए भले ही कट्टर, परंपरावादी रहते हों लेकिन छत उन सब कानून से परे रहता था। वहां कोई कानून नहीं। वहां लड़कियां खुल कर सांस ले सकती थीं। बस इसी ने मुझे प्रेरित किया और दो लड़कियों की दोस्ती की कहानी ने आकार लिया। इसलिए मैंने इसमें न समलैंगिकता का नारा लगाया न झंडा उठाया।

25 मई तक हम सभी की धड़कनें बढ़ी रहेंगी, जब तक बुकर पुरस्कारों की घोषणा नहीं हो जाती। हिंदी जगत के लिए यह बहुत बड़ी घटना है। हिंदी के और लोग यहां तक पहुंच सकें इसके लिए किस तरह के प्रयास करने होंगे?

इस प्रश्न का जवाब देने से पहले मैं यह बताना चाहती हूं कि एक राष्ट्रीय दैनिक ने गैर जिम्मेदाराना ढंग से मुझसे बिना बात किए मुझे कोट कर लिखा कि मैं बुकर का इंतजार कर रही थी। ऐसा मैंने न कहीं कहा और न मैं ऐसा सोचती हूं। साहित्य सृजन पुरस्कार प्राप्ति के लिए नहीं होता। तत्पश्चात सृजन को कोई पुरस्कार मिल जाए, छोटा या बड़ा, तो लेखक को खुशी होती ही है। बुकर इसलिए बड़ा बना क्योंकि वहां तक चुनिंदा किताबें ही पहुंचती हैं। मेरी रेत समाधि का इसके लिए शॉर्टलिस्ट होना मेरे लिए बहुत अप्रत्याशित और सुखद है। हिंदी साहित्य एक वृहत्तर प्रकाश-वृत्त में आएगा। मेरा सौभाग्य है कि मैं इसका निमित्त बनी।

रेत समाधि की अनुवादक डेजी रॉकवेल से आपका रिश्ता कैसा रहा। क्या कभी आपको कोई चैप्टर पढ़ कर लगा कि अनुवाद आपके लेखन की आत्मा को नहीं पकड़ पा रहा है या आप इससे पूरी तरह संतुष्ट रहीं?

जब तक अनुवादक के साथ लेखक का रिश्ता पुख्ता और समझदारी भरा न हो तब तक न अनुवाद करने वाले में सहजता रहेगी न लेखक में। जब एक-दूसरे पर पूरी तरह भरोसा हो, तभी यह काम हो सकता है। मैं डेजी से कभी मिली नहीं लेकिन हमारी लंबी बात होती थी। अनुवादक के साथ लेखक का रिश्ता संवेदना के स्तर पर होना चाहिए। दोनों की दुनिया देखने की दृष्टि में साम्य हो, दोनों भिन्न-भिन्न स्तर पर न सोचें तो काम आसान हो जाता है। दोनों में से कोई भी विचार को लेकर कट्टर हो या अलग हो, तो आत्मा तक पहुंचना कठिन है। दोनों को मिल कर ऐसी नींव बनानी होगी कि उस पर इमारत खड़ी की जा सके। सिर्फ डेजी ही नहीं मेरी फ्रेंच अनुवादक आनिमोंते के साथ भी मेरी जीवन दृष्टि, संवेदना का स्तर मिलता है। संवाद से हर समस्या सुलझ जाती है। यदि संवाद ही ठीक न हो, तो अनुवाद कैसे ठीक होगा। डेजी अनुवाद के दौरान मुझसे खूब सवाल पूछती थी। जैसे, मैंने यह क्यों लिखा, ऐसा क्यों किया। कई बार जब लेखक लिखता है, तो उसके अवचेतन में बहुत कुछ होता है, जिसे वह लिख जाता है। लेकिन अनुवादक को उस दृश्य, उस स्थिति, उस माहौल को समझने के लिए उसे चेतन रूप में समझना पड़ता है। एक बात समझनी होगी कि आपकी कृति दूसरे लोकेल यानी स्थानीयता में फिर प्राण-प्रतिष्ठा पा रही है। तब जिद से काम नहीं चलता। कुछ बातें छोड़नी भी पड़ती हैं। जैसे हिंदी के समकक्ष यदि अनुवाद की भाषा में ठीक वैसा कोई मुहावरा या वाक्य नहीं बन रहा तो उसे भी समझना जरूरी है।

आपको मार्मिक और मनोवैज्ञानिक शब्द चितेरा के तौर पर जाना जाता है। आप अपने पात्रों को कैसे तैयार करती हैं और इस तैयारी के लिए कितना समय लेती हैं?

समय जैसी कोई बात लेखन के लिए नहीं होती। कोई भी पात्र धीरे-धीरे मन में जगह पाता है। जैसे तिरोहित की छत बाद में दूसरे रूप में आगे बढ़ी। सोच कर तो कुछ नहीं लिखा जा सकता। महसूस कर ही लिख सकते हैं। जैसे रेत समाधि में पीठ एक बिंब है। पीठ इस उपन्यास में मां की खिन्नता का बिंब है। निराशा का बिंब है। पीठ के सामने क्या है, पीठ के ऊपर सिर है, उसके आगे अपनी दुनिया है। जब लिखते हैं, तो फिर पात्र धीरे-धीरे जीवंत हो उठते हैं। लिखते वक्त मनमानी नहीं चलती। पात्र जो बोलना चाहता है, उसे बोलने देना पड़ता है। जहां जाना चाहता है, जाने देना पड़ता है।

नए लेखक जो अंतरराष्ट्रीय पटल की ओर ताकते रहते हैं, उनके लिए क्या कहना चाहेंगी?

लेखक की पहचान सिर्फ और सिर्फ उसका लेखन ही है। इस बात को समझना बहुत जरूरी है। मैं किसी सोशल मीडिया पर नहीं हूं। आना भी नहीं चाहती। मेरी पहचान मेरा लेखन ही है। सारा ध्यान लिखने पर दें। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम यहां भी दिखाई दें, वहां भी दिखाई दें। जितना अच्छा लिख सकते हैं उतना अच्छा लिखने की कोशिश करें। किसी भी दूसरी बात पर भरोसा करने के बजाय अपने लिखे हुए को ही अपना सब कुछ मानें।

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