Advertisement

रामधुन में ईश्वर अल्ला तेरो नाम कब, कैसे जुड़ा

गांधी के प्रिय और लोकप्रिय भजनों के बेहद दिलचस्प किस्से, जो गांधी दर्शन के पर्याय बने
गांधी जी ने हर भाषा के भजनों को अपनाया

महात्मा गांधी का प्रिय भजन ‘वैष्णव जन’ किस भाषा में है? यह सवाल आज बेमानी हो गया है। उसकी भाषा जो हो, उसका अर्थ, भाव सबको मालूम है। और उसकी धुन? धुन ने ही भाषा की दीवार मिटाने में मदद की है। किसी को यह भ्रम हो सकता है कि यह ‘चमत्कार’ गांधी का प्रिय भजन होने से हुआ। रोज दिन में कई बार इसे दोहराने वाले किसी ‘पक्के’ गांधीवादी कार्यकर्ता को भी यह भ्रम हो सकता है कि उसके जैसे लोगों ने गा गाकर इसे लोकप्रिय बना दिया। असल में गुजरात के संत कवि नरसिंह उर्फ नरसी मेहता के भजन और दूसरे भजनों ने ही वैष्णव मोहनदास को महात्मा गांधी बनने की शक्ति दी और हर मुश्किल पल में उनके सहायक बने। ऐसा एहसास अकेले गांधी को ही नहीं होगा, उनके साथ या उनके बाद उनके रास्ते पर चलते हुए समाज का काम करने वाले काफी सारे लोगों को यह आभास हुआ होगा। घोर सांप्रदायिक मारकाट झेलने वाले नोआखाली में गांधी और उनकी मंडली ने कैसे ऐसे ही भजनों और बंगाल में प्रचलित बाउल गीत-संगीत के सहारे शांति का मरहम लगाया, वह अनुभव तो बेहद दिलचस्प और ऐतिहासिक है।

गांधी अपने को वैष्णव हिंदू मानते थे, सर्व धर्म समभाव में भरोसा करते थे, वैसा ही आचरण करते थे, मंदिर जाने और मूर्ति पूजा से परहेज न रखते थे, जनेऊ और चोटी भी रखते थे। हालांकि छुआछूत विरोधी आंदोलन के क्रम में उन्होंने जनेऊ उतार दिया। दलितों के मंदिर प्रवेश आंदोलन के बाद मंदिर जाना भी लगभग छोड़ दिया। इसी क्रम में गोसेवा की जगह गौरक्षा का नाटक (गांधी गोसेवक थे, गौरक्षक नहीं) करने वाले हिंदूवादियों से उनका टकराव भी हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के समय यूरोप के शानदार गिरिजों पर बमबारी की खबर पर रोने के लिए उनकी आलोचना भी हुई। गांधी कर्मकांड के नाम पर शायद ही कुछ करते हों लेकिन ईश्वर की नियमित अराधना का माध्यम उनकी प्रार्थना-सभा ही थी, जो उनके आश्रमों में हर सुबह-शाम हुआ करती थी और आश्रम में रहने वाले लगभग सभी इसमें शामिल रहते थे। आश्रम में नास्तिक भी थे। उनको आजादी थी कि प्रार्थना में बैठें या न बैठें। फिर सुबह-शाम प्रार्थना का चलन सभी गांधीवादी संस्थाओं में हुआ, जो आज भी जारी है।

शांतिनिकेतन में रवींद्रनाथ टैगोर के साथ गांधी और कस्तूरबा

आम धर्मभीरु की तरह गांधी को ईश्वर उपासना की अपनी इस वृत्ति का एहसास संकट के समय, खुशी के समय ज्यादा होता था। ऐसा अनेक बार देखा गया कि अकेले या तनाव में होने पर गांधी किसी भी वक्त भजन गुनगुनाते थे या साथ के लोगों से अपने प्रिय भजन गुनगुनाने को कहते थे, जो अनिवार्यत: सिर्फ हिंदू भजन न होते थे। चार्ल्स एंड्रयूज, विनोबा भावे, बाल्कोवा, मीरा बहन और रैहाना तैयबजी पास हों तो गांधी की भजन की तलब बढ़ जाती थी। अपने लंबे उपवासों के दौरान भी गांधी ने अलग-अलग धर्मों के भजन और धर्मग्रंथों का पाठ कराके ईश्वर को याद किया। वैसे, यह बताना भी उचित है कि गांधी पहले कहा करते थे कि ईश्वर सत्य है, फिर बाद में कहने लगे कि सत्य ही ईश्वर है।

गांधी हिंदू धर्मग्रंथों के इस गुण के दीवाने थे कि सारे प्राचीन ग्रंथ लयबद्ध काव्य रूप में हैं, जो किसी अन्य धर्म में नहीं है। दक्षिण भारत के वेद विद्यालयों में विद्यार्थियों का सस्वर पाठ उन्हें बहुत अच्छा लगता था। विनोबा भी इसके चलते उनके प्रिय थे। बिना सुर-ताल के अगर कोई भजन या श्लोक का पाठ करता था तो गांधी को उसे टोकने में झिझक नहीं होती थी। वे सुरीले सस्वर पाठ की तारीफ करने से भी नहीं चूकते थे। सो, उन्होंने अपने प्रिय भजनों की स्वरलिपियों को दुरुस्त कराया। आश्रम के लिए भजन चुनते वक्त सुरों का ध्यान रखा (सभी धर्मों और हर आश्रमवासी की भावनाओं का ध्यान तो रखा ही)। इस काम में नामी संगीतकारों की सेवाएं लेने में नहीं हिचके। अपने दौर के बड़े संगीतकारों, गायकों से उनकी मैत्री थी (उनका यह पक्ष कम प्रचारित है)। ‘वैष्णव जन’ और ‘रघुपति राघव राजा राम’ की मौजूदा धुन का अंतिम रूप महान शास्त्रीय संगीतकार विष्णु दिगंबर पलुस्कर का बनाया हुआ है। आश्रम के लोगों को संगीत सिखाने (गांधी गुजरात के लोगों में संगीत का भाव कम होने तथा दक्षिण और बंगाल में जबरदस्त संगीत प्रेम का खास जिक्र करते हैं) के लिए पलुस्कर साहब से एक जानकार देने की मांग की।

उन्होंने अपने प्रिय शिष्य नारायण मोरेश्वर खरे को गांधी के साथ लगा दिया। खरे साहब भी जबरदस्त आदमी थे। संगीत की दुनिया की चमक-दमक और सुख-समृद्धि छोड़कर वे गांधी के आश्रम में ही रम गए। खरे साहब ने आश्रम में रहकर सचमुच गांधी और आश्रमवासियों का जीवन संगीतमय बना दिया। यही नहीं, उन्होंने गुजरात संगीत सम्मेलन के माध्यम से गुजरात में संगीत सिखाने का व्यवस्थित कार्यक्रम चलाया, जिसकी तारीफ गांधी किया करते थे। भजनों के मामले में उनका जवाब नहीं था। गांधी के रहते सभी धर्मों की प्रार्थनाएं आश्रम के जीवन में स्थान पाती गईं। आश्रम की भजनावली में जो 188 भजन आए, लगभग सभी की धुन खरे साहब ने ही बनाए। इसमें विनोबा जैसे जानकार लोगों की मदद मिली। अभी आश्रम की जो भजनावली उपलब्ध है, उसमें हर भजन के साथ सुर, लय और ताल का जिक्र भी है। इस तरह हर रचना के साथ सुर-ताल का जिक्र सिर्फ गुरु ग्रंथ साहब में मिलता है।

हां, गांधी भजनावली में अल्लामा इकबाल की रचना ‘सारे जहां से अच्छा’ भी शामिल है। सारी सुर लिपियां हिन्दुस्तानी संगीत की न रखकर कर्नाटक संगीत की लिपियां भी बनाई गईं। दुर्भाग्य से, खरे साहब की उम्र ज्यादा लंबी न हुई। इन भजनों और उनके सुर-ताल के किस्सों की तरह ही आश्रम और गांधी के मन में उनके प्रति श्रद्धा के किस्से भी कम दिलचस्प नहीं हैं। दक्षिण अफ्रीका में सामूहिक या आश्रम जीवन के प्रारंभ से ही शाम को सामूहिक प्रार्थना की शुरुआत हुई, जो गांधी और आश्रम में रहने वालों की अपनी याद और श्रद्धा से निकले भजनों तक सीमित थी। इसका भी एक संग्रह बना था ‘नीतिनां काव्यो।’ गांधी जब चंपारण में थे तब किसी सामूहिक प्रार्थना का जिक्र नहीं मिलता, लेकिन लगभग उन्हीं दिनों साबरमती में नियमित प्रार्थना शुरू हुई। उससे पहले कोचरब आश्रम में भी प्रार्थना होती थी। इस बीच मगनलाल समेत दक्षिण अफ्रीका के कई आश्रमवासी शांति निकेतन में पहुंचे थे। सो, भजनों में रवि बाबू के कई सुंदर गीत आ गए, जो उपनिषदों की प्रेरणा से लिखे गए थे। खुद गांधी ने उपनिषद के मंत्रों के पाठ को संक्षिप्त किया।

श्रीमद राजचंद्र जी गांधी के गुरु जैसे थे और गांधी ने साबरमती आश्रम के भजनों में उनके बनाए भजन भी शामिल किए। प्रार्थना के बाद राजचंद्र जी की पुस्तक ‘राजबोध’ का पाठ भी चलता था। इसी कड़ी में समर्थ रामदास के मनोबोध का पाठ भी हुआ। आश्रम में खरे जी के साथ ही विनोबा, काका साहब कालेलकर, मामा फड़के और बाल्कोवा जैसे मराठीभाषियों का जमावड़ा होने से महाराष्ट्र के संत कवियों की कई रचनाएं भी प्रार्थनाओं की सूची में आ गईं। जब स्वामी सत्यदेव कुछ दिनों के लिए आश्रम में रहने आए तो तुलसी रामायण का पाठ शुरू हुआ। काका साहब ने स्त्रोत्रराज मुकुंदमाला, पांडवगीता और शंकराचार्य की द्वादशपंजरी में से कुछ श्लोक प्रार्थना में शामिल कराए। फिर गीता का पाठ शुरू हुआ। उसके बाद गीता की कक्षाएं लगाई गईं, ‘गीता प्रवचन’ हुआ, उसके लिए अलग रोजनामचा बना। खरे साहब ने राग-रागिनियों के हिसाब से सुबह, दोपहर, शाम और रात के राग और उसी के अनुरूप वाले श्लोक चुने। काका साहब का आग्रह था कि प्रार्थना की शुरुआत वेदवाणी से होनी चाहिए इसलिए ईशावास्योपनिषद से पहला मंत्र लिया गया, जो अभी तक हर प्रार्थना में सबसे पहले आता है।

जब गांधी आगा खां पैलेस में थे तो उनका ऑपरेशन करने वाले डॉ.गिल्डर भी प्रार्थना में बैठते थे। इसका एक लाभ यह हुआ कि आश्रम के भजनों में पारसी भजन भी शामिल हो गए, जिसकी कमी गांधी काफी समय से महसूस करते थे। गांधी मानते थे कि जिस तरह शरीर की जरूरत के लिए हरेक को उसके अनुकूल पौष्टिक खुराक जरूरी है, उसी तरह प्रार्थना के लिए हरेक को उसकी रुचि और श्रद्धा का आध्यात्मिक आहार मिलना चाहिए। इसी सोच के साथ पहले से ही कुरान और बाइबल के पाठ से इस्लाम और ईसाई धर्म के लोकप्रिय भजनों को आश्रम की प्रार्थना में शामिल किया गया था। फिर कोई तमिल आया तो तमिल भजन शामिल हुआ। मजेदार बात यह है कि जिस लड़के के आग्रह पर यह प्रार्थना शामिल की गई थी, उसके चले जाने के बाद भी उसे गाया जाता रहा।

यही मुश्किल अलग-अलग जगहों पर आश्रम खुलने से भी आई। लेकिन खुद गांधी ने इतने साफ नियम बनाए थे कि कहीं भजन के चुनाव में दिक्कत नहीं आई। फिर शिशु विद्यालय बना तो उसके लिए अलग भजन और मंत्र चुने गए, महिला मंडल की अलग प्रार्थना हुई तो उसके लिए अलग प्रार्थना का चयन खुद गांधी ने किया। गांधी के वर्धा में रहने के दौरान एक जापानी बौद्ध साधु भी वहां रहते थे, जो प्रार्थना से पहले अपने कुछ मंत्र बोलते थे और चमड़े का पंखा बजाते थे। विश्व युद्ध शुरू होते ही उन्हें सरकार ने गिरफ्तार कर लिया लेकिन गांधी की प्रार्थना में पहले की तरह उनके मंत्र सबसे पहले पढ़े जाते रहे।

गांधी का मकसद सिर्फ भक्ति और अराधना ही नहीं था। सो, प्रार्थना के चुनाव में पर्याप्त ‘राजनीति’ का भी खयाल रखा गया। आश्रम के घोषित सिद्धांतों को ही सबसे ऊपर रखा गया और अगर किसी प्रार्थना से उनका उल्लंघन होता हो तो उसे शामिल नहीं किया जाता था। जैसे, मृत्यु का डर दिखाने वाले भजन गांधी के यहां नहीं चले, स्त्री जाति की किसी भी तरह की निंदा या अपमान वाला भजन शामिल नहीं किया गया। छूछे वैराग्य, भक्ति बढ़ाने के लिए लालच दिखाने वाले, कृत्रिम भक्ति दिखाने वाले भजन भी शामिल नहीं किए गए। ईश्वर के विविध रूप बताने वाले भजनों पर भी आपत्ति हुई लेकिन उन्हें नहीं माना गया। गांधी और गांधी के लोगों को भजन और भक्ति से क्या मिला और उसका लाभ समाज को क्या मिला, इसका मूल्यांकन होना चाहिए।

ऐसे प्रसंग काफी हैं, जब गांधी को भजनों और कीर्तन से बड़ी ताकत मिली। जब गांधी 1924 में सांप्रदायिक सद्भाव के लिए सबसे लंबा उपवास कर रहे थे, तब कई बार उनका स्वास्थ्य एकदम बैठने लगा। डॉक्टर तक हाथ खड़े करने लगे। गांधी ने तब इसी ‘वैकल्पिक’ चिकित्सा का सहारा लिया और परिणाम देखकर सब हैरान थे। उन्होंने अली बंधुओं के दिल्ली आवास पर हुए इस अनशन में विनोबा, बाल्कोवा से भजन सुने, उपनिषद का पाठ कराया, इमाम साहब से कुरान का पाठ कराया, सुशील रूद्र, जॉर्ज जोजफ और चार्ल्स एंड्रयूज से भजन गवाए और सबसे मिल-जुलकर उपवास तोड़ा। इस अवसर पर अली बंधुओं का परिवार, मोतीलाल जी और जवाहरलाल समेत पूरा नेहरू परिवार, डॉ. अंसारी और सैकड़ों अन्य लोग मौजूद थे।

भजन और कीर्तन की असली ताकत दुनिया ने नोआखाली और बिहार दंगों के दौरान देखी, जब गांधी सब कुछ छोड़कर अपने मुट्ठी भर विश्वस्त साथियों के साथ गांव-गांव भटकते फिरे। उनकी टोली के साथ कुछ स्थानीय लोग और कई बार एक-दो बाउल गायक पैदल गाते हुए चलते थे। गांधी दंगा पीडि़तों और सब कुछ गंवा चुके लोगों में इन्हीं भजनों के जरिए साहस और प्रेम का संचार कर रहे थे। उसका जादू-सा असर भी हुआ क्योंकि वहां तो शासन भी दंगाइयों के साथ हो गया था। मनुष्य की बुनियादी अच्छाई और ईश्वर में भरोसे से ही गांधी सफल हुए। और इसी क्रम में एक चमत्कार हुआ जिससे गांधी भी हैरान थे। ‘वैष्णव जन’ उनका प्रिय भजन था, लेकिन नोआखाली में मुंह से ‘रघुपति राघव’ ज्यादा निकलता था।

एक दिन अचानक गांधी जी की पोती मनु, जो कस्तुरबा की मौत के बाद उनका ख्याल रखती थीं, ने ‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम’ में ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ वाली पंक्ति जोड़ दी। गांधी को यह झट से पसंद आया और उन्होंने इसका स्रोत पूछा। मनु ने बताया कि पोरबंदर के सुदामा मंदिर के पंडित जी यह पंक्ति गाते थे। गांधी ने कहा, ‘मनु स्वयं ईश्वर ने तुम्हारे दिमाग में यह पंक्ति सुझाई है। परमेश्वर की करुणा विस्मयकारी है।’ कहना न होगा कि जिस मौके पर यह पंक्ति सूझी, वह तब गांधी के मिशन से मेल खा गई। पंक्ति जैसे गांधी के दर्शन का साक्षात रूप थी। उसकी लोकप्रियता भी गांधी के विचारों की लोकप्रियता जैसी हुई।

(चंपारण प्रयोग और गांधी पर कई चर्चित किताबों के लेखक)

Advertisement
Advertisement
Advertisement