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सत्यजित राय जन्मशती : उम्मीद की राय

संवेदनशील फिल्मकार मानवीय नजरिए से दर्शकों में बेहतर, खुशनुमा दुनिया की आशा भर देते थे
फिल्म निर्देशक सत्यजित राय

यह देखकर दिल भर आता है कि महामारी की भारी तबाही के बावजूद मीडिया सत्यजित राय की जन्म शताब्दी पर उनके योगदान को याद कर रहा है, और संस्मरण के नए संकलन तैयार कर रहा है। इससे मुझे अपने गुरु के प्रति श्रद्धा ज्ञापन का एक और मौका मिला। मैं बस हैरान ही हो सकती हूं कि ऐसी अनजानी वैश्विक आपदा पर वे कैसी फिल्में बनाते।

राय अपनी और दूसरों की संस्कृति को बखूबी समझते और उसके बीच रिश्ते को अहमियत देते थे। अपनी फिल्मों में वे हमेशा पूरी दुनिया को समेटने वाली बड़ी तस्वीर की तलाश करते, और आप सहमत होंगे कि वे उसमें सफल रहते थे। अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े रहकर भी उन्हें सभी संस्कृतियों से सराहना हासिल हुई, इससे हमारी यह धारणा ही पुष्ट होती है कि हम साझापन की ओर बढ़ते हैं तो हमारे फर्क मिट-से जाते हैं। इससे यह भी साबित होता है कि एक-दूसरे की निजता को बरकरार रखकर उसका सम्मान करते हुए भी बड़ा संवाद कायम किया जा सकता है। जब दुनिया सिकुड़ती जा रही है और कमोवेश एक जैसी होती जा रही है, हम आलोचनात्मक खुलेपन के राय के नजरिए से बहुत कुछ सीख सकते हैं।

राय अद्वितीय प्रतिभा के धनी थे। ऐसे लेखक, जिनकी किताबें लाखों में बिकीं और आज भी बिकती हैं। इलस्ट्रेटर, डिजाइनर, संगीतकार और सबसे बढ़कर 29 फिल्में बनाने वाले फिल्मकार। उन्होंने बंगाली पुनर्जागरण को उसके मूल स्वरूप में आत्मसात कर लिया था। उन्होंने फिल्म निर्माण की नई परंपरा शुरू की, जिससे दुनिया भारतीय सिनेमा के प्रति अपनी धारणा नए सिरे से गढ़ने को मजबूर हुई। वे वाकई अपने समय के सच्चे टिप्पणीकार थे। अपने दौर के सरोकारों को अभिव्यक्त करने में उनका कोई सानी नहीं है। उनके करियर का पहला चरण देश की आजादी से पैदा हुई आशा और आदर्शवाद के दौर में कुछ बेहतरीन फिल्मों की सौगात हमें दे गया। उनमें उस समय की भावना अभिव्यक्त हुई। उनमें उनके अपने विकास और धारणा की भी अभिव्यक्ति मिली कि पूरब और पश्चिम का संगम जरूरी है, जो नए-नए आजाद भारत की आकांक्षाओं का ही हिस्सा था। हालांकि 1960 के दशक के मध्य में राजनैतिक और आर्थिक आदर्श बिखरने लगे। उसके बाद 1970 के दशक में आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल शुरू हुआ। नक्सल विद्रोह, इमरजेंसी, सुर्खियों में छाने वाले मुद्दे, सभी राय की फिल्मों प्रतिद्वंद्वी, जन आरण्य, सीमाबद्ध, गणशत्रु वगैरह में जगह पाने लगे। उनकी फिल्मों में सेकुलर भावना की गूंज व्यापक थी। उन्होंने अंध आस्था, अंधविश्वास और जाति व्यवस्था के खिलाफ (देवी, महापुरुष और सद्गति) साहसिक  टिप्पणियां कीं।

आगंतुक में राय तेजी से बदलती विश्व व्यवस्था में मानवीय सरोकारों की पैरोकारी में वस्तुत: अपनी आवाज बुलंद करते हैं। नायक मनमोहन मित्र वाकई राय का वैचारिक अवतार ही लगता है। उसके जरिए वे कला और कलाकार के महत्व पर सवाल उठाते हैं, “आखिर दुनिया के संदर्भ में इन पदों के क्या मायने हैं, सभ्यता क्या है, और वस्तुत: कौन तय करता है कि सभ्य क्या है और क्या नहीं।” फिल्मकारों और दर्शकों की नई पीढ़ी को कमान सौंपने के पहले राय अपने प्रिय माध्यम से बतौर विश्व नागरिक संदेश देते हैं, जो पासपोर्ट तथा पूर्वाग्रह ग्रस्त सीमाओं की संकीर्णता की निंदा करता है और अपने चचेरे बालक पोते के जरिए नई पीढ़ी को कूपमंडूकता से दूर रहने को कहता है। यकीनन उसे अगली पीढ़ी के फिल्मकारों के लिए आह्वान की तरह देखा जा सकता है कि बाजार के जुनून से आगे बढ़ें, ताकि ऐसी रचना दे सकें, जो रचनाकार से बड़ी हो जाए। वे उन्हें याद दिलाते हैं कि बेमिसाल फिल्में बेजोड़ तकनीक या बजट से नहीं, बल्कि असाधारण कल्पना, अंर्तदृष्टि और समझदारी से बनती हैं।

अद्वितीयः (ऊपर) सत्यजित राय की फिल्म देवी में शर्मिला टैगोर, राय की अनेक फिल्मों में नायक की भूमिका निभाने वाले सौमित्र चटर्जी घरे बाइरे में विलेन की भूमिका में थे

उन्होंने विविध विषयों पर फिल्में बनाईं, जो विविध रुचियों और व्यापक पढ़ाई-लिखाई का नतीजा थीं। बेहतरीन व्यंग्य, प्रेरणादायक इतिहास कथाएं, पौराणिक कथाएं, संगीतमय फंतासियां, राजनैतिक पटकथा, जासूसी कथाएं, समकालीन समस्याओं के विषय, मुझे नहीं लगता कि किसी दूसरे भारतीय फिल्मकार ने इतने विविध विषयों को बेजोड़ महारत के साथ उठाया होगा।

मानवता में उनकी अगाध आस्था थी। आज मानवता को तार-तार कर रहे शंकालु और असहिष्णु माहौल में उनकी फिल्में उम्मीद की किरण जैसी हैं, जो करुणा जैसे मानवीय गुणों को जगाती हैं। अडूर गोपालकृष्णन कहते हैं, “राय की कोई फिल्म कोई चाहे जितनी बार देखे, उसे नई संवेदना और सीख ही मिलेगी।” मैं उनसे पूरी तरह सहमत हूं।

आज फिल्म निर्माण का मार्केटिंग पक्ष ही तय करता है कि फिल्म कैसी होनी चाहिए। यहां तक कि फिल्म महोत्सवों के मंचों को भी ऐसे प्रायोजक अगवा कर लेते हैं, जो सुर्खियों पर हावी रहना चाहते हैं। ऐसे हालात में, यह बेहद जरूरी है कि हम उन फिल्मों और फिल्मकारों के साथ खड़े हों, जिनमें हम यकीन करते हैं, वरना हमारे प्रिय मूल्य और दुनिया हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी।

(प्रसिद्ध अभनेत्री, 14 वर्ष की उम्र में उनकी पहली फिल्म सत्यजित राय की क्लासिक अपूर संसार थी। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

 मुझे नहीं लगता कि किसी दूसरे भारतीय फिल्मकार ने इतने विविध विषयों को बेजोड़ महारत के साथ उठाया है

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