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बॉयकॉट कितना मुफीद

चीन का 30 फीसदी आयात ही रोकना संभव, पूरी तरह बहिष्कार कम से कम अभी व्यावहारिक नहीं लगता
भारत-चीन टकराव/कारोबार

करीब छह करोड़ व्यापारियों के संगठन कन्फे डरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) ने नया अभियान छेड़ दिया है 'भारतीय सामान-हमारा गौरव'। इसका उद्देश्य चीन में बने सामान का बहिष्कार तेज करना और हां, उन्हें भारत में ही बनाना है। उसने 500 श्रेणियों और 3000 उत्पादों (खिलौनों से फैब्रिक, किचनवेयर से लेकर कॉस्मेटिक सामान तक की सूची बनाई है, जिन्हें देश में स्थानीय निर्माता आसानी से बना सकते हैं। इस अभियान का उद्देश्य दिसंबर 2021 तक 13 अरब डॉलर मूल्य के चीन के उत्पादों का स्थानीय विकल्प तैयार करना है। लेकिन जरा इस पर गौर करिए। कैट के महत्वाकांक्षी अभियान के दायरे में आने वाले सामान 2017-18 में चीन से 70 अरब डॉलर के कुल आयात के पांचवें हिस्से से भी कम हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, हकीकत यही है कि अगर 'बॉयकाट चीन' के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आर्थिक आत्मनिर्भरता और आत्मनिर्भर भारत की अपील को जोड़ना है, तब भी 30 फीसदी चीन से आयात या कैट के लक्ष्य से थोड़े ज्यादा को ही रोक पाना संभव हो पाएगा। देश के पास चीन के आयात से पूरी तरह छुटकारा पाना मुमकिन नहीं होगा। फिर दोनों पड़ोसी देशों में एक-दूसरे के भारी निवेश की तो बात ही अलग है।

द्विपक्षीय आर्थिक रिश्तों को हल्के -फुल्के ढंग से नहीं लिया जा सकता है। भले आयात राष्ट्रवादी भावनाओं को उफान देने के लिए ज्यादा खटक सकता है, लेकिन इसे समग्रता में देखा जाना चाहि ए। चीन महत्वपूर्ण मशीनरी बेचता है जिससे घरेलू मैन्यूफैक्चरिंग और निर्यात को बढ़ावा मिलता है। इसका विकल्प तैयार करने में पांच से दस साल लग सकते हैं। दोनों ही देशों ने एक-दूसरे के यहां भारी निवेश किया है। यहां चीन की कंपनियों और भारतीय शेयर बाजारों में वहां के नि वेशकों को भारत छोड़कर जाने के लि ए कोई नहीं कह सकता है। ऐसे ही चीन में भारतीय कंपनि यों से बाहर जाने को नहीं कहा जा सकता है।

मोटे आकलन से पता चलता है कि चीन से करीब एक-ति हाई आयात लो-टेक गुड्स का होता है जो पहले भारत में बनते रहे हैं या आज भी कुछ कम मात्रा में बनते हैं। इस आयात को तो कम किया जा सकता है और स्थानीय उत्पा दों और ब्रांडों को बढ़ावा दिया जा सकता है। ऐसी कोशिश से देश की सैकड़ों छोटी और मझोली कंपनि यों को भी मदद मि लेगी, जो इस समय कमजोर मांग के कारण खस्ता हाली का शिकार हैं। एमएसएमई सेक्टर में विकास तेज होता है तो समूचे मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा मि लेगा और 'मेक इन इंडिया' को फायदा मिलेगा।

लोग देश में निर्मित ओवन, कुकर, आर्टिफिशियल ज्वेलरी, देवी-देवताओं की मूर्ति यां वगैरह खरीद सकते हैं, भले कुछ ज्यादा दाम देना पड़े। देश की छोटी इकाइयों को प्रोत्साहन और नीतिगत उपायों के जरिए मदद करना सही दिशा में कदम होगा। स्थानीय बिक्री बढ़ेगी तो भारतीय उत्पाद भी टक्कर लेने की स्थिति में आ जाएंगे। भारतीय उद्यमी अपने उत्पा द निर्यात भी कर सकेंगे और विश्व बाजार में चीन को टक्कर भी दे सकेंगे। नई दिल्ली के अनुसंधान संस्थान रिसर्च ऐंड इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर डेवलपिंग कंट्रीज (आरआइएस) का अनुमान है कि इसमें 2,700 उत्पादों के निर्यात की संभावनाएं हैं।

स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय संयोजक अश्विनी महाजन कहते हैं, “यह मि थ्या प्रचार है कि हमें चीन के उत्पादों पर निर्भर रहना पड़ेगा। हमारे नीति-निर्माता देश में मैन्यूफैक्चरिंग क्षमता बढ़ाने में मदद करने के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। उत्पादों की कीमत और देश की पसंदीदा खरीद नीति के चलते भारतीय उद्योग इकाइयों को भारी नुकसान उठाना पड़ा । इससे स्टील और इलेक्ट्रॉनिक्स इकाइयां अपनी क्षमता के मुकाबले कम उत्पादन करने को मजबूर हैं। केमिकल उत्पादन में तो भारतीय इकाइयों की क्षमता उपयोग महज 30-35 फीसदी रह गई है।” इस स्थिति को फौरन बदला जा सकता है।

यह बात सही है कि नीतियों में बदलाव करके ड्रैगन के बढ़ते कदम को रोकने की पर्याप्त गुंजाइश है। विशेषज्ञ कहते हैं कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियम अपने उद्योगों को संरक्षण के लिए भारत को पर्याप्त अधिकार देते हैं। उदाहरण के लिए, भारत ने चीन के 300 उत्पादों के खिलाफ क्वालिटी स्टैंडर्ड जैसे नॉन-टैरिफ बैरियर का इस्तेमाल किया, जबकि इसकी तुलना में अमेरिका ने 6,000 चीनी उत्पादों पर प्रतिबंध लगाए। हाल में चीन ने अपने टेलीकॉम और इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्टों में भारतीयों का प्रवेश रोक दिया। डब्ल्यूटीओ के पारस्परिकता के नियम के तहत भारत ने भी चीन की कंपनियों पर ऐसा ही कदम उठाया। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या चीन की आयातित वस्तुओं की जगह घरेलू उत्पादों को स्थापि त करने का काम एक झटके में किया जाना चाहिए या फिर धीरे-धीरे किया जाना चाहिए। व्यापारी संगठन कैट मानता है कि कम से कम कुछ हद तक दिसंबर 2021 तक इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।

आरआइएस के प्रोफेसर प्रबीर दे मानते हैं कि चरणबद्ध तरीका बेहतर रहेगा। वे कहते हैं, “इससे भारतीय कंपनियों को अधिकांश उत्पादों का निर्माण शुरू करने की तैयारी का समय मिल जाएगा। अगर हम अभी आयात बंद कर देते हैं तो हमें ही इसका नुकसान होगा।” वे यह भी आशंका व्यक्त करते हैं कि चीन के भारी आयात के दबाव में जो देसी निर्माता महज व्यापार करने लगे हैं, वे जल्दी दोबारा निर्माण गतिविधियों में लौट पाएंगे या नहीं।

अगर ये उद्यमी ऐसा करना भी चाहें तब भी यह शर्तिया कहा जा सकता है कि उन्हें उत्पादन शुरू करने के लिए चीनी मशीनरी और कई अन्य सामान की जरूरत होगी, जो भारतीय कंपनियां नहीं बना सकती हैं या अगले कुछ वर्षों में तो नहीं ही बना पाएंगी। यह चीन की तारीफ करने का मामला नहीं है लेकिन सच्चाई यही है कि उसने मेडिकल डिवाइस, फैक्ट्री बॉयलर, कूलिंग सिस्टम, एंटी-पॉल्यूशन इंस्ट्रूमेंट और पावर फ्लांट मशीनरी जैसे कैपिटल गुड्स और अत्याधुनिक उपकरणों की आपूर्ति में जो भूमि का नि भाई है, उसे कम करके नहीं आंका जा सकता है। चीन के उत्पाद सिर्फ सस्ते ही नहीं, (अमेरिका और यूरोप के उत्पादों की कीमत तो तीन-चार गुना ज्यादा हैं) बल्कि अत्याधुनिक उपकरणों और मशीनरी के क्षेत्र में वैश्विक खिलाड़ी के तौर पर उभरने के मामले में भारत की क्षमता पर सवाल बना हुआ है।

यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि भारत में 100 से ज्यादा चीनी कंपनियां काम कर रही हैं। चीन की कई सरकारी कंपनियों ने भारत में कई बड़े प्रोजेक्ट हासिल किए हैं, इनमें साइनोस्टील, शुगांग इंटरनेशनल, बायोशन आयरन ऐंड स्टील, सैनी हेवी इंडस्ट्री, चोंगक्विंग लाइफन इंडस्ट्री, चायना डोंगफांग इंटरनेशनल और साइनो हाइड्रो कॉरपोरेशन प्रमुख हैं। इसके अलावा टेलीकॉम सेक्टर में चीन की तीन कंपनि यों शाओमी, वीवो और ओप्पो के पास 50 फीसदी भारतीय मोबाइल हैंडसेट मार्केट है। (हालांकि वे दबाव महसूस कर रही हैं और हाल में बॉयकाट चायना अभियान के चलते ओप्पो को ऑनलाइन लांच रद्द करना पड़ा ।)

दूसरी ओर, भारत की बड़ी कंपनियां भी अपने उत्पाद बेचने के लिए चीन में काम कर रही हैं। अनेक भारतीय कंपनियां अपनी सेवाएं भारत के साथ पूरी दुनिया में दे रही हैं। इनमें प्रमुख फार्मा कंपनियां जैसे डॉ. रेड्डीज लैबोरेटरीज, अरविंदो फार्मा और मैट्रिक्स फार्मा के अलावा एनआइआइटी, इन्फोसिस, टीसीएस, एपटेक, विप्रो और महिंद्रा सत्यम जैसी आइटी कंपनियां शामिल हैं। दोनों देशों में एक-दूसरे की कंपनियों के निवेश को देखते हुए चीन के साथ नीतियों में उचित संतुलन बनाना आवश्यक है। अगर कोई भी देश दूसरे के निवेशकों को सुरक्षा नहीं देगा तो उसे भी समस्या का सामना करना पड़ेगा।

पूर्व ऊर्जा सचिव अनिल राजदान बताते हैं, “हमें निवेश के बारे में तत्काल फैसला करना होगा क्योंकि डब्ल्यूटीओ और अन्य वैश्विक प्रतिबद्धताओं के चलते भारत चीन को बाहर नहीं रख सकता है। जब तक हम चीन को दुश्मन देश घोषित नहीं करते हैं, तब तक ग्लोबल फंडिंग पाने वाले प्रोजेक्टों के मामले में यह नियम लागू होता है।” इसलिए बेहतर विकल्प यही है कि जब तक भारत अपनी खुद की मैन्यूफैक्चरिंग क्षमता विकसित नहीं कर लेता है, तब तक चीन के निवेश पर नरम रुख अपनाना होगा। इस मामले में दीर्घकालिक योजना बनाना ज्यादा फायदेमंद होगा।

हकीकत यह है कि चीन या फिर किसी भी अन्य देश के निवेश पर सख्ती करने का यह सबसे खराब समय है। चायनीज एकेडमी ऑफ सोशल साइसेंज के एसोसिएट रिसर्च फेलो लियू शियाक्सुई ने अपने ताजा लेख में लिखा, “महामारी के दौर में ग्लोबल इकोनॉमी अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है। अगर भारत और चीन सीमा पर तनाव और बढ़ने देते हैं, तो इस साल अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ने के चलते दोनों ही देशों को आर्थिक विकास में भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।” आपको अच्छा लगे या नहीं, लेकिन आर्थिक और कारोबारी मसलों में यही सच है।

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चीन मेडिकल डिवाइस, फैक्ट्री बॉयलर, कूलिंग सिस्टम, एंटी पॉल्यूशन इंस्ट्रूमेंट, पावर प्लांट मशीनरी का प्रमुख सप्लायर है

 

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