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आवरण कथा/बी-स्कूल: नए आसमां की तलाश

एमबीए सिर्फ बड़ी कंपनी में नौकरी पाने का जरिया नहीं रह गया, अनेक लोगों ने इस पढ़ाई में मिली सीख से नए क्षेत्रों में करियर बनाया है
उच्च संस्थानों से पढ़ कर नौकरी के बजाय बनाया अपना मकाम

शिमला के प्रणव शर्मा अगले साल बोर्ड परीक्षा में बैठेंगे। उनके माता-पिता सफल व्यवसायी हैं और चाहते हैं कि बेटा भी वही करे। लेकिन प्रणव की रुचि मेडिकल साइंस में है। उन्हें लगता है, ‘काश! मेडिकल साइंस और बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन का मिलाजुला कोई कोर्स होता।’ प्रणव खाली समय में इंटरनेट पर करियर के विकल्पों और अच्छे कॉलेज-विश्वविद्यालय की तलाश करते हैं। इसी खोजबीन में परिवार को जूनियर प्रोग्राम के बारे में पता चला जिसे मुंबई का स्टार्टअप ‘क्लेवर हार्वे’ चलाता है। इसका मकसद 13-18 आयु वर्ग के बच्चों को टेक्नोलॉजी, स्ट्रैटजी, मार्केटिंग एमबीए आदि के बारे में बताना है।

फ्लेवर हार्वे के सह-संस्थापक और सीईओ श्रीराम सुब्रमण्यम कहते हैं कि जूनियर एमबीए प्रोग्राम से हाई स्कूल के छात्रों को पता चलता है कि नियमित एमबीए में वे क्या सीखेंगे। इससे उन्हें अपनी पसंद का फील्ड चुनने में मदद मिलती है। प्यूमा, सैमसोनाइट और इनफिनिटी कार्स जैसे इंडस्ट्री पार्टनर की केस स्टडी के जरिए छात्रों को वास्तविक समस्याओं और उनके समाधान की जानकारी मिलती है। 10 से 15 दिनों का प्रोग्राम छात्रों को भारत में नियमित एमबीए प्रोग्राम या किसी प्रतिष्ठित विदेशी कॉलेज में दाखिला लेने में काफी मददगार होता है।

श्रीराम कहते हैं, “हमारे पास आने वाले करीब 35 फीसदी छात्र जूनियर सीईओ का विकल्प चुनते हैं। यह स्ट्रैटजिक मार्केटिंग और टेक्नोलॉजी में जूनियर एमबीए का मिलाजुला रूप होता है। हमारा दूसरा सबसे लोकप्रिय विकल्प जूनियर एमबीए स्ट्रैटजी है, जिसमें किशोर अपना बिजनेस प्लान डेवलप करना सीखते हैं और सैमसोनाइट के डाटा एनालिटिक्स की चुनौतियों पर काम करते हैं।” उनका स्टार्टअप 15 तरह के करियर में छात्रों की मदद करता है। प्रणव के माता-पिता दीप्ति और पंकज शर्मा कहते हैं, “प्रणव ऐसे ही प्रयोग करेगा। अगर उसे यह ठीक लगा तो वह एनडीए की तैयारी कर सकता है। अगर ठीक नहीं लगा तो वह मेडिकल साइंस की ओर जा सकता है।”

हर साल भारत के लाखों युवाओं को अपने करियर के बारे में फैसला लेना पड़ता है। एमबीए उनके सबसे पसंदीदा विषयों में एक है। 26 अक्टूबर को ग्रैजुएट मैनेजमेंट एडमिशन काउंसिल (जीमैक) ने दुनियाभर के बिजनेस स्कूल पर अपनी पहली रिपोर्ट जारी की। इसके अनुसार महिलाओं की रुचि बिजनेस शिक्षा में है, लेकिन ग्रेजुएट स्तर पर यह रुचि कम हो जाती है। 20 से 34 आयु वर्ग में 26.4 फीसदी महिलाएं बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन या लॉ में बैचलर स्तर की डिग्री लेती हैं, जबकि इस में पुरुषों का अनुपात 24.6 फीसदी है। लेकिन ग्रेजुएट स्तर पर पुरुषों के 35.7 फीसदी की तुलना में महिलाओं की संख्या 29.4 फीसदी रह जाती है।

बिजनेस और बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में बैचलर और ग्रैजुएट स्तर के डिग्रीधारक सबसे ज्यादा चीन और भारत में हैं, उसके बाद अमेरिका है। शीर्ष 10 बिजनेस ग्रैजुएट में पाकिस्तान और तुर्की के युवा भी हैं। पाकिस्तान में कुल बैचलर डिग्रीधारकों में बिजनेस ग्रेजुएट 28 फीसदी और तुर्की में 40 फीसदी हैं।

शिव नाडर यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मैनेजमेंट एंड आंत्रप्रेन्योरशिप के डीन डॉ. बिबेक बनर्जी कहते हैं, “अनेक मैनेजमेंट ग्रेजुएट को उभरती टेक्नोलॉजी की समझ नहीं होती। एमबीए के बाद भी उन्हें स्किल बढ़ाने की जरूरत पड़ती है।” बनर्जी के अनुसार बिजनेस स्कूल के पाठ्यक्रमों में बदलते बिजनेस वातावरण के हिसाब से बदलाव की जरूरत है। उम्मीद है कि डाटा एनालिटिक्स, बिग डाटा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग, डिजिटल मार्केटिंग, इंटरनेट ऑफ थिंग्स और डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन जैसे डिजिटल डोमेन में आगे फोकस बढ़ेगा। मैनेजमेंट पाठ्यक्रम में साइकोलॉजी, मैथमेटिक्स, कॉग्निटिव साइंस, इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्र से विषय वस्तु लेनी पड़ेंगी क्योंकि आने वाले कल के बिजनेस प्रोफेशनल को डिजिटल इकोनॉमी में फैसले लेने के लिए इन सभी तत्वों की जरूरत पड़ेगी। अब ग्रैजुएट को सिर्फ प्रबंधन का पाठ पढ़ाना काफी नहीं रह गया। एमबीए प्रोग्राम के लिए उद्यमी सोच अपनाना पड़ेगा ताकि छात्र आगे चलकर स्मार्ट फैसले ले सकें।

स्टैटिस्टा रिसर्च के अनुसार भारत के बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन ग्रैजुएट में नौकरी पाने के योग्य 2020 में 54 फीसदी थे जो 2021 में घटकर 47 फीसदी रह गए। बीते चार वर्षों से भारतीय युवाओं की रोजगार पाने की योग्यता 46 फीसदी के आसपास रही है। अनुमान है कि लगभग 3.5 लाख युवा हर साल सरकारी और निजी कॉलेजों से मैनेजमेंट की पढ़ाई पूरी करते हैं।

नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर एक आइआइएम के डायरेक्टर ने कहा, “बीते एक-दो दशकों में ढेर सारे बिजनेस स्कूल खुले, लेकिन वे शिक्षा प्रणाली की बदलती जरूरतों को पूरा करने में नाकाम रहे। बदलते बिजनेस वातावरण और जरूरतों के हिसाब से मैनेजमेंट प्रोग्राम में भी लगातार बदलाव की जरूरत पड़ती है। इससे अनेक एमबीए ग्रैजुएट को नुकसान हुआ और डिग्री की प्रतिष्ठा भी कम हुई।” यह भी एक कारण है कि भारत में दूसरे या तीसरे दर्जे के संस्थानों में पढ़ने के बजाय छात्र अब कर्ज लेकर विदेशों में एमबीए की पढ़ाई करना पसंद करते हैं।

आंकड़े निराशाजनक हो सकते हैं, लेकिन अनेक प्रेरणादायक कहानियां भी हैं जहां लोगों ने एमबीए करने के बाद नए और गैर-पारंपरिक क्षेत्रों में अपना मुकाम बनाया है। इन उदाहरणों से पता चलता है कि एमबीए प्रोग्राम ऐसा पाठ्यक्रम उपलब्ध कराते और आधारशिला तैयार करते हैं जो भले ही बुनियादी हो, उसका इस्तेमाल अनेक क्षेत्रों में किया जा सकता है। इससे आत्मविश्वास बढ़ता है, बिजनेस, मानव संसाधन, मार्केटिंग और सेल्स की गहरी समझ विकसित होती है, साथ काम करने की क्षमता बढ़ती है।

बेंगलूरू की वॉयस कोच शिल्पी दास चौहान कहती हैं कि एमबीए से उन्हें पूरे करियर में मदद मिली। उन्होंने कहा, “मैं टेलीमार्केटिंग में थी, तब लोगों से खास तरीके से बात करनी पड़ती थी। होटल इंडस्ट्री में बिजनेस हासिल करने के लिए अलग तरीके से बात करनी पड़ती थी। ऐसे में मार्केटिंग और सेल्स की पढ़ाई बहुत काम आई।” शिल्पी के अनुसार जब उन्होंने उद्यमी बनने का फैसला किया तो उनका पहला काम अपने लिए एक बाजार तैयार करना था जिसमें एमबीए की शिक्षा ने काफी मदद की।

इसी तरह शिवानी खेतान ने जब मानसिक स्वास्थ्य क्लीनिक ‘मुदिता’ पर काम करना शुरू किया तो मानव संसाधन में एग्जीक्यूटिव प्रोग्राम की पढ़ाई ने उनका काम बहुत आसान कर दिया। वे कहती हैं, “लोगों से सहानुभूतिपूर्वक मिलने की बुनियादी शिक्षा ने मुझे यह समझने में मदद की, कि उपचार के क्षेत्र में एक ही तरीका सब पर लागू नहीं होता।” पहले या हाल ही एमबीए की पढ़ाई करने वालों का कहना है कि वहां मिली सीख कभी बेकार नहीं जाती है। बात सिर्फ इतनी है कि आपको अपने लिए एक नए आसमान की तलाश करनी है।

 

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कौशलेंद्र

किसान कोऑपरेटिव, बिहार

कौशलेंद्र

उनके माता-पिता ने पांच लाख रुपये का एजुकेशन लोन लेकर प्रतिष्ठित आइआइएम अहमदाबाद से एमबीए करवाया था। तब उन्हें जरा भी इल्म नहीं था कि उनका बेटा कुछ अलग करने की सोच रहा है। आइआइएम से 2007 में लौटने के बाद कौशलेंद्र ने परिवार से कहा कि वे बिहार में ही सब्जियां बेचना चाहते हैं। उनके अनेक सहपाठी अलग-अलग बहुराष्ट्रीय कंपनियों में मोटे वेतन वाली नौकरी पा चुके थे।

14 साल पहले नालंदा जिले के अपने गांव एकंगरसराय लौटने वाले कौशलेंद्र कहते हैं, “मैंने वह फैसला किसी आवेग में नहीं लिया। आआइएम के दिनों में मैं शिक्षकों और छात्रों के एक समूह से जुड़ा था, जिसमें सब अलग-अलग क्षेत्रों में सामाजिक और आर्थिक विकास के विभिन्न तरीकों पर नियमित चर्चा करते थे। मैं जानता था कि बिहार में देश की ‘सब्जियों की राजधानी’ बनने की क्षमता है।”

कौशलेंद्र ने महसूस किया कि आदर्श जलवायु और मिट्टी होने के बावजूद स्थानीय किसानों ने सब्जियों की खेती बंद कर दी थी और दूसरी फसलों की ओर मुड़ गए थे। कारण यह था कि बड़े बाजारों तक उनकी पहुंच नहीं थी। तब कौशलेंद्र ने समृद्धि नाम से किसान कोऑपरेटिव खोलने का फैसला किया, जिसमें किसानों से ताजी और ऑर्गेनिक सब्जियां खरीदी जाती थीं। उनका कहना है, “किसानों को सिर्फ मार्केटिंग का एक रास्ता चाहिए था जो हमने उन्हें उपलब्ध कराया।”

सिर्फ पांच किलो सब्जियों से शुरुआत करने वाले इस कोऑपरेटिव का टर्नओवर तीन साल में ढाई करोड़ रुपये पहुंच गया। उसके बाद सैकड़ों किसान इससे जुड़े। कोऑपरेटिव ने शुरुआती दिनों में ही ऐसी ठेला गाड़ी का इंतजाम किया था जिन्हें बर्फ से ठंडा रखा जाता था। उनमें सब्जियां पांच-छह दिनों तक ताजी रहती थीं। जल्दी ही लोग कौशलेंद्र को ‘एमबीए सब्जीवाला’ कहने लगे।

उनके मुख्य खरीदार पढ़े-लिखे शहरी थे, लेकिन जब शहरों में मॉल आ गए तो वे खरीदार उनकी तरफ मुड़ गए। तब कौशलेंद्र ने दाल जैसी दूसरी फसलों की ओर जाने का निर्णय लिया। चंद छोटे केंद्रों को छोड़कर कोऑपरेटिव ने सब्जियों का रिटेल बिजनेस बंद कर दिया। उनके मॉडल पर आधारित सब्जियों का बिजनेस खड़ा करने के इच्छुक नए उद्यमियों की मदद करने लगा।

उनकी पहल के बाद बिहार के नवादा और पूर्वी चंपारण जिलों में 9000 से ज्यादा किसान दालों की खेती करने लगे। कौशलेंद्र कहते हैं, “मैंने किसानों को एक ही फसल पर निर्भर रहने के बजाय कई फसलें उगाने की सलाह दी। पहले वे सिर्फ धान और गेहूं की खेती करते थे। मैंने उन्हें समझाया कि आर्थिक फायदे के अलावा प्रोटीन युक्त दालें उनके परिवार को कुपोषण से लड़ने में भी मदद करेंगी।”

बीते पांच वर्षों से कौशलेंद्र का फोकस किसानों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के साथ उन्हें पर्यावरण हितैषी खेती के लिए भी तैयार करना है। वे कहते हैं, “हम पंचायत स्तर पर कृषि उद्यमी बनाने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा ध्यान इस बात पर है कि ग्रामीण युवा कैसे जीविकोपार्जन करें।” कौशलेंद्र के अनुसार आइआइएम अहमदाबाद का अनुभव उनकी इस यात्रा में हर कदम पर मददगार रहा है। वे कहते हैं, “हम जीवन में जो कुछ भी करते हैं वह सबके लिए मैनेजमेंट का एक पाठ है।”

गिरिधर झा

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ओशिन गोयल

वाइब्रेंटडॉट्स, शिमला

ओशिन गोयल

शिमला के युवाओं के लिए प्रोफेशनल सफलता का एक मात्र विकल्प शहर से बाहर निकलना है। लेकिन 28 साल की ओशिन गोयल को मुश्किलों से लड़ना पसंद है। आइआइएम इंदौर से मैनेजमेंट में पांच साल के इंटीग्रेटेड प्रोग्राम की पढ़ाई के बाद उन्हें किसी भी बड़ी कंपनी में अच्छी नौकरी मिल जाती, लेकिन ओशिन ने अपने कौशल और उद्यमिता का इस्तेमाल शिमला में ही करने का फैसला किया। ओशिन को लगता है कि उनका उद्यम वाइब्रेंटडॉट्स उन युवाओं के लिए उदाहरण है जो किसी चमत्कार की प्रतीक्षा करने के बजाए अपनी क्षमता पर भरोसा करते हैं। वे कहती हैं, “मैं कैंपस प्लेसमेंट में आसानी से अच्छी नौकरी पा सकती थी। लेकिन मैं कुछ ऐसा करना चाहती थी कि अपना रास्ता खुद निर्धारित कर सकूं।”

2017 में स्थापित वाइब्रेंटडॉट्स स्कूल, कॉलेज और मैनेजमेंट संस्थान के छात्रों को प्रशासनिक कार्यों में व्यावहारिक प्रशिक्षण देने के साथ नेतृत्व कौशल भी सिखाता है। ओशिन की एमबीए की पढ़ाई इसमें बहुत काम आई। उनके पिता, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज, शिमला से रिटायर हुए डॉ. एस.के. गोयल भी बेटी के उद्यम में साथ हैं। ओशिन ने दिल्ली-एनसीआर, बेंगलूरू, इंदौर और आइआइएम काशीपुर जैसी जगहों के छात्रों के लिए कई प्रोग्राम आयोजित किए हैं।

वे बताती हैं, “हम रेसिडेंशियल कैंप और यात्राएं आयोजित करते हैं। शिक्षण संस्थानों के छात्र-छात्राओं को हिमाचल प्रदेश में अलग-अलग जगहों पर ले जाया जाता है जहां वे विशेषज्ञों के साथ मिलते हैं।” ओशिन स्वीकार करती हैं कि कोविड-19 महामारी का समय उनके उद्यम के लिए बहुत कठिन रहा क्योंकि उन दिनों यात्रा और एजुकेशनल टूर नहीं हो रहे थे। शिक्षण संस्थान बंद हो गए थे और सब कुछ दूर बैठे इंटरनेट के जरिए हो रहा था, पर अब स्थिति सामान्य होने लगी है।

ओशिन का दावा है कि उनके प्रोग्राम से युवाओं को टीम रणनीति विकसित करने, रचनात्मकता बढ़ाने, जटिल परिस्थितियों से निपटने और काम तथा बाकी जीवन के बीच संतुलन बनाने में भी मदद मिलती है। उनके पिता ने भी स्कूली बच्चों के लिए नया उद्यम शुरू किया है। ओशिन कहती हैं, “मैं अपने पिता की ही रोल मॉडल बन गई हूं।”                                                                     

अश्विनी शर्मा

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शुभी जैन,

फैशन ब्लॉगर और संस्थापक, मी टाइम अरोमा, बेंगलूरू

शुभी जैन

वनस्थली विद्यापीठ से 2010 में फाइनेंस और बैंकिंग में एमबीए करने के बाद शुभी को एक ही रास्ता पता था- दुनिया की चार सबसे बड़ी कंसलटेंसी फर्मों और इन्वेस्टमेंट बैंकों में नौकरी के लिए आवेदन करना और ऊंची तनख्वाह वाली नौकरी करना ताकी उनके माता-पिता रिश्तेदारों के सामने गर्व कर सकें। उन्होंने आइबीएम का कैंपस इंटरव्यू पास किया। 1 सितंबर को वे नौकरी करने बेंगलूरू पहुंचीं। दिन तेजी से निकलने लगे। उन्होंने कंपनियां बदली, ज्यादा पैसे भी मिले। लेकिन काम के घंटे बढ़ते गए और अपने लिए समय निकालना मुश्किल हो गया।

वे कहती हैं, “मैं काम के अलावा ऐसा समय चाहती थी जो सिर्फ मेरे लिए हो। मैं हर दिन कुछ ऐसा करना चाहती थी जिसमें रोमांच और पैशन हो।” कॉरपोरेट की नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने कुछ दिन किताबें पढ़ने में बिताए। छह महीने बाद उन्हें एहसास हुआ कि पढ़ाई के अलावा फैशन उन्हें ज्यादा रोमांच देता है। वे घर में ही पड़ी चीजों से आईने के सामने तरह-तरह की मैचिंग करती रहती थीं। उन्हें एक फैशन ब्लॉग शुरू करने का विचार आया। 12 अप्रैल 2018 को ब्लॉग की शुरूआत की और नाम रखा ‘सांगरिया ह्यूज’। सांगरिया उनका पसंदीदा रंग है।

वे बताती हैं, कुछ ही दिनों में मुझ अनेक पाठक मिल गए। उनमें मेरे पिता भी थे। लोगों ने मुझे मैसेज भेजे और कमेंट में लिखा कि कैसे किसी खास ‘मिक्स एंड मैच’ पहनावे ने उन्हें एक नया विचार दिया, कैसे पिता के बारे में पोस्ट पढ़कर उनकी आंखों में आंसू आ गए। उसके बाद शुभी ने इंस्टाग्राम पर अपना प्रोफाइल और कम्युनिटी बनाई। फैबइंडिया, वेस्टसाइड, कैडबरी और सेंट बोटानिका जैसी फैशन और लाइफस्टाइल कंपनियों के साथ गठजोड़ किया। पिछले साल जनवरी में उन्होंने ‘मी टाइम अरोमा’ नाम से अरोमा थेरेपी ब्रांड लांच किया। आज वे अपनी उपलब्धियों से खुश हैं। उन्हें लगता है इसकी नींव एमबीए ने ही रखी थी।

वे कहती हैं, “शिक्षा कभी बेकार नहीं जाती। एमबीए ने न सिर्फ मेरी संवाद शैली में मदद की बल्कि मुझे समय के प्रबंधन और बिजनेस कौशल भी सिखाया। उम्मीद है कि मेरी कहानी किसी और को भी प्रेरित करेगी और वह अपने पैशन के साथ आगे बढ़ेगा।”                                                         

लक्ष्मी देब राय

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शिल्पी दास चौहान

वॉयस कोच, बेंगलूरू

शिल्पी दास चौहान

1990 के दशक में जब उन्होंने करियर शुरू किया तो उन दिनों डॉक्टर, इंजीनियर या एमबीए को ही सफल माना जाता था। एमबीए करने के बाद वे 11 वर्षों तक मुंबई में कॉरपोरेट प्रोफेशनल के तौर पर काम करती रहीं। उनकी शादी हुई, बच्चे भी हुए। इन सबके बीच वे यदा-कदा वॉयस ओवर आर्टिस्ट का काम भी करती थीं।

दिसंबर 2011 में शिल्पी परिवार समेत बेंगलूरू चली गईं। बच्चों की देखभाल के लिए उन्होंने आठ वर्षों का ब्रेक लिया और 2014-15 में फिर से काम शुरू करने की सोची। लेकिन वे कॉरपोरेट नौकरी में वापस नहीं जाना चाहती थीं। उन्होंने वॉयस कोच बनने का फैसला किया। वे कहती हैं, “मुंबई में जब कॉरपोरेट ट्रेनर थी, तब से वॉयस कोचिंग करना चाहती थी। वॉयस आर्टिस्ट को आवाज में भावनात्मक उतार-चढ़ाव लाना पड़ता है। अगर यही बात कंपनियों में नेतृत्व के स्तर पर लागू की जाए तो संवाद अधिक प्रभावशाली होगा।”

शिल्पी अपने क्लाइंट के आवाज की रिकॉर्डिंग सुन कर विश्लेषण करती हैं। हालांकि विश्लेषणों के मुताबिक लोगों को शैली बदलने में वक्त लगता है। शुरूआत में उन्होंने काफी सोच-विचार किया कि उनका क्लाइंट कौन होगा, क्या लोग उन्हें अपना कोच बनाएंगे, वे उनसे क्या चाहेंगे? वे कहती हैं कि एक सीमा तक तो हम खुद सीख सकते हैं, लेकिन तकनीकी बारीकियां कोच ही सिखा सकता है। जैसे कहां रुकना है और कितनी देर रुकना है, किन शब्दों पर अधिक जोर देना है, आवाज कितनी तेज या धीमी होनी चाहिए इत्यादि।

शिल्पी मानती हैं कि एमबीए ने उनके करियर में काफी मदद की है। वे बताती हैं, “मैं जो करती हूं वह अमूर्त होता है। सार्वजनिक रूप से बोलने या संवाद कोच तकनीकी सुधार पर ध्यान देता है, लेकिन वॉयस कोच बोलने के साथ आपको भावनात्मक रूप से जुड़ने की शैली भी बताता है। इसलिए यह अधिक प्रभावशाली होता है।” शिल्पी अपने हर क्लाइंट को अलग-अलग प्रशिक्षण देती हैं। उनका हर सेशन करीब दो घंटे का होता है।     

ज्योतिका सूद

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शिवानी खेतान

होलिस्टिक मेंटल हेल्थ, नोएडा

शिवानी खेतान

 

आध्यात्मिक शिक्षा से जुड़े परिवार से ताल्लुक रखने वाली शिवानी के भीतर हमेशा एक अंतरात्मा की आवाज थी। ग्रेजुएशन के बाद वे टेक्सटाइल डिजाइनर बन गईं। एक दशक से भी ज्यादा समय तक सुबह नौ से शाम छह बजे तक की नौकरी करती रहीं। अपने बारे में सोचने का समय बड़ी मुश्किल से मिल पाता था। उनकी शादी एक व्यवसायी परिवार में हुई, जो होम फर्निशिंग का सामान अमेरिका जैसे देशों को निर्यात करता था। उन्होंने भी परिवार के बिजनेस में हाथ बंटाया और कर्मचारियों की देखभाल का जिम्मा लिया। काम को बेहतर अंजाम देने के लिए उन्होंने आइएमटी गाजियाबाद से 2008 में मानव संसाधन विकास में एग्जीक्यूटिव एमबीए की पढ़ाई की। अमेरिका में आर्थिक संकट के चलते परिवार को वह बिजनेस बंद करना पड़ा।

शिवानी मानती हैं कि सीखने का कोई की कोई सीमा नहीं होती। वे मेंटल और होलिस्टिक हेल्थ की पढ़ाई करने लगीं। 2019 में फोर्टिस हेल्थकेयर के मानसिक स्वास्थ्य और व्यवहार विज्ञान विभाग से एक्सप्रेसिव थेरापिस्ट और फिर श्रीलंका ओपन यूनिवर्सिटी से टैरो में पीएचडी की डिग्री ली। वे बताती हैं, “लोगों से बात करने पर पता चला कि वे अपना उपचार नहीं करवाते थे बल्कि खुद को ऐसी परिस्थिति में ले आते थे जहां वे समस्या को भूलकर बेहतर महसूस करने लगते थे।” इससे उन्हें समग्र मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में उतरने का विचार आया।

वे बताती हैं, “मैं समग्र मानसिक स्वास्थ्य उपचार को लोगों के लिए अधिक स्वीकार्य बनाना चाहती थी।” शिवानी के अनुसार एक्सप्रेसिव आर्ट थेरेपी लोगों की कल्पना और रचनात्मकता को जागृत करता है, इससे लोगों को यह समझने में मदद मिलती है कि वे क्या हैं। इस प्रक्रिया में उन्हें अपने आसपास के लोगों को समझने और ज्यादा विनम्र, विनीत और परिपक्व बनाने में मदद मिलती है।

शिवानी मुदिता नाम से क्लिनिक चलाती हैं जहां अकेलेपन से जूझ रहे वरिष्ठ नागरिकों की मदद करने के अलावा बेचैनी, डिप्रेशन, डिमेंशिया जैसी बीमारियों के वैकल्पिक उपचार भी किए जाते हैं। भारत के अलावा अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में उनके क्लाइंट हैं। वे कहती हैं, “लोगों के साथ समन्वय बनाने में एमबीए ने काफी मदद की। जो लोग मेरे पास उपचार के लिए आते हैं, उनके लिए प्लान तैयार करने में मुझे उससे काफी सहायता मिलती है।  

ज्योतिका सूद

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