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फर्जी एवरेस्ट फतह

नाम और पैसा कमाने के लोभ में एवरेस्ट पर चढ़ाई का झूठा दावा करने वालों की तादाद बढ़ी
एवरेस्ट पर तारकेश्वरी भालेराव की नकली फोटो

कपट इतनी ऊंचाई तक शायद ही पहले कभी पहुंचा हो। हरियाणा के 26 वर्षीय नरेंद्र सिंह यादव को 29 अगस्त को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद तेनजिंग नोर्गे अवार्ड से सम्मानित करने वाले थे। यह एडवेंचर स्पोर्ट्स में भारत का सबसे बड़ा सम्मान है। लेकिन सरकार ने उन्हें सम्मानित करने का फैसला रोक लिया है। इसके बाद यादव का अता-पता नहीं हैं। कई पर्वतारोहियों ने सोशल मीडिया पर कहा कि यादव ने 2016 में कभी एवरेस्ट पर चढ़ाई नहीं की और दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर उनकी फोटो नकली है। इसी के बाद सरकार ने उन्हें सम्मानित करने का निर्णय टाला। विवाद सामने आने के बाद यादव सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से भी गायब हो गए हैं। आउटलुक ने फोन मैसेज, व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर के जरिए उनसे संपर्क साधने की कोशिश की लेकिन उनका कोई जवाब नहीं आया।

नेपाल सरकार ने यादव के दावे की जांच शुरू कर दी है। नेपाल सरकार ने ही 2016 में उनके दावे को मंजूरी दी थी। अगर यादव का दावा गलत पाया जाता है तो नेपाल सरकार उन्हें जारी किया गया सर्टिफिकेट निरस्त कर सकती है, जैसा कि उसने पुणे के एक पुलिस दंपती के साथ किया था जिन्होंने 2016 में ही एवरेस्ट पर विजय का दावा किया था।

भारत सरकार के कदम उठाने से पहले जर्मनी के पर्वतारोहण पत्रकार स्टीफन नेस्लर, अमेरिका के एडवेंचर लेखक क्रेग बेकर और अमेरिका के ही पर्वतारोही और इतिहासकार ऐलन आर्नेट ने दुनियाभर के पर्वतारोहियों में यह बात फैला दी थी कि “एक और भारतीय ने एवरेस्ट फतह का झूठा दावा किया है।”

पिछले चार वर्षों में यादव सातवें व्यक्ति हैं जिन्होंने एवरेस्ट को लेकर झूठा दावा किया है। दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंचने का गलत दावा करने वालों में दूसरे देशों के भी लोग शामिल हैं, लेकिन उनमें सबसे ज्यादा भारतीय ही हैं।

एवरेस्ट पर सात बार और दुनिया की दूसरी सबसे ऊंची लेकिन सबसे कठिन चोटी के-2 पर दो बार चढ़ाई करने वाले काठमांडू के पर्वतारोहण गाइड लाकपा शेरपा ने फोन पर बताया, “भारत में पर्वतारोहण का नया क्रेज बना है। हाल के वर्षों में एवरेस्ट पर चढ़ने की ख्वाहिश रखने वालों में सबसे ज्यादा भारतीय ही हैं। इनमें कुछ के पास तो पर्याप्त अनुभव भी नहीं। धोखाधड़ी करके वे भारत के असली चैंपियन की प्रतिष्ठा को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं।” 2019 में 78 भारतीयों को एवरेस्ट पर जाने की अनुमति मिली थी। उनमें से 61 ने सफलता हासिल की। चढ़ते-उतरते वक्त चार लोगों की मौत हो गई।

 

पर्वतारोहण में छल?

पहली बात तो यह कि ऐसा करना आसान नहीं, इसके लिए चोटी के करीब तो जाना ही पड़ेगा। एवरेस्ट के रास्ते में चार कैंप होते हैं। आखिरी कैंप 8,000 मीटर की ऊंचाई पर है। दावा करने के लिए कम से कम वहां तक तो जाना ही पड़ेगा। दूसरी बात, एवरेस्ट पर चढ़ाई का खर्च करीब 20 लाख रुपये आता है। तीसरी बात, एवरेस्ट पर पहुंचने की औपचारिक स्वीकृति नेपाल सरकार के पर्यटन विभाग से मिलती है। अभियान चलाने वाली एजेंसी, साथ जाने वाले शेरपा, टीम लीडर और लायजन अधिकारी (जो सरकारी कर्मचारी होते हैं) पर्यटन विभाग को रिपोर्ट देते हैं। पर्वतारोही को सबूत के तौर पर फोटो या वीडियो देना पड़ता है।

इस सिस्टम में खामियों की गुंजाइश है। 2019 में नेपाल के सेंटर फॉर इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म (सीआइजेएन) ने लायजन अधिकारियों की भूमिका की जांच के बाद लिखा था कि इन अधिकारियों, अभियान चलाने वाली एजेंसियों और पर्यटन मंत्रालय के अधिकारियों की सांठगांठ से नकली पर्वतारोहियों को सर्टिफिकेट दिए जा रहे हैं। नेपाल के पर्यटन विभाग ने भी 2019 में माना था कि 37 लायजन अधिकारियों में से सिर्फ 22 एवरेस्ट के बेस कैंप तक पहुंचे थे। सीआइजेएन की रिपोर्ट के अनुसार इनमें से भी ज्यादातर कुछ ही दिनों के लिए बेस कैंप में रुके थे।

काठमांडू स्थित पत्रकार भद्र शर्मा ने बताया, “अभियान एजेंसियों और लायजन अधिकारियों के साथ पर्वतारोहियों की सांठगांठ के बिना किसी गलत दावे को सही ठहरा पाना मुश्किल है।” लायजन अधिकारियों को नियुक्त तो सरकार करती है लेकिन उनका खर्च पर्वतारोही उठाते हैं। भारत के पर्वतारोही समुदाय के कई लोगों ने आउटलुक को बताया कि ज्यादातर लायजन अधिकारी एवरेस्ट तक गए बिना कागजात पर दस्तखत कर पैसे ले लेते हैं। एवरेस्ट पर एक बार नेपाल की तरफ से और एक बार चीन की तरफ से चढ़ने वाले पर्वतारोही कुंतल जोशियर ने बताया कि कई बार तो टीम लीडर को भी हर पर्वतारोही की स्थिति की जानकारी नहीं होती। कागजात करीब 100 पन्नों के होते हैं, इसलिए बिना पूरा विवरण देखे, वे उन पर दस्तखत कर देते हैं। उन्होंने कहा, “अगर अभियान एजेंसी ने किसी असफल पर्वतारोही का नाम कागजात में लिख दिया है तो बहुत संभावना है कि वह टीम लीडर की नजर में ही ना आए।”

हालांकि अभियान एजेंसियों का दावा है कि उनकी भूमिका बहुत कम होती है। नेपाल की प्रमुख एजेंसियों में एक, सेवन समिट ट्रेक के मिंगमा शेरपा ने बताया, “अगर टीम लीडर और साथ जाने वाले व्यक्तिगत शेरपा ने पर्वतारोही के दावे को सही बताया तो हम उसे कैसे नकार सकते हैं।”

2019 में लायजन अधिकारी बिश्व बंधु रेगमी बेस कैंप में मई के मध्य तक ही रुके थे, इसके बावजूद उन्होंने हरियाणा के तीन पर्वतारोहियों विकास राणा, शोभा बानवाला और अंकुश कसाने के दावे पर मुहर लगा दी। दावे के बावजूद नेपाल सरकार ने उन्हें सर्टिफिकेट नहीं दिया था। हालांकि बानवाला अपने दावे पर अब भी कायम हैं। उन्होंने आउटलुक से कहा, “अभियान एजेंसी ने हमारे साथ धोखा किया। शेरपा गाइड को तस्वीरें खींचनी थीं जो नहीं खींची। हम एवरेस्ट के शिखर तक पहुंचे लेकिन शेरपा और एजेंसी के कारण हमारे पास कोई प्रमाण नहीं था।”

हालांकि वरिष्ठ पर्वतारोही इस तर्क से सहमत नहीं। उन्होंने बताया कि अगर कोई पर्वतारोही शिखर तक पहुंचता है तो उसके व्यक्तिगत शेरपा को 1,500 डॉलर बोनस मिलता है। दूसरी तरफ, पर्वतारोही इसी बोनस का लालच देकर शेरपा का समर्थन लेते हैं। नेपाल की जानी-मानी पर्वतारोहण एजेंसियों के अनुसार शेरपा एवरेस्ट के हर अभियान में पांच से छह लाख नेपाली रुपये कमाते हैं। बोनस के रूप में उन्हें दो लाख रुपये और मिल सकते हैं।

सिस्टम में और खामियां भी हैं। हिमालयन टाइम्स ने 2016 में लिखा था कि नेपाल के पर्यटन विभाग ने व्यक्तिगत शेरपा की राय लिए बिना पुणे पुलिस के एक दंपति को सर्टिफिकेट जारी कर दिया था।

चढ़ाई का खर्च

2011 में 54 साल की उम्र में एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाले एलन आर्नेट ने पिछले साल फॉक्स न्यूज में लिखा था, “अक्सर किसी पर्वत पर चढ़ना सिर्फ चढ़ना नहीं होता, उसके पीछे वजह भी होती है। भारत सरकार शिखर तक पहुंचने वाले पर्वतारोहियों को नकद पुरस्कार और जमीन देती है जिसके लिए लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाते हैं।” आर्नेट के अनुसार यही कारण है कि 8,000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर भारतीय पर्वतारोहियों की मौतों की संख्या बढ़ने लगी है।

भारत के वरिष्ठ पर्वतारोही भी आर्नेट की बात का समर्थन करते हैं। उन्होंने बताया कि एवरेस्ट पर चढ़ाई में 20 से 22 लाख रुपये का खर्च आता है। ज्यादातर भारतीयों के लिए इतनी रकम जुटाना मुश्किल होता है। एक बार उन्होंने पैसे का इंतजाम कर लिया तो उनके पास विफल होने का विकल्प नहीं होता।

जोशियर कहते हैं, “एवरेस्ट पर चढ़ाई किसी व्यक्ति को भारत में तत्काल हीरो बना देती है। इसके साथ अनेक फायदे भी जुड़े होते हैं। इसलिए नई पीढ़ी पर्याप्त अनुभव के बिना भी जोखिम लेने को तैयार रहती है ताकि उनका जीवन बदल जाए। इससे मौत, दुर्घटना और ठंड से अंग जम जाने के मामले लगातार बढ़ रहे हैं।”

2014 में चीन की तरफ से एवरेस्ट की चढ़ाई करने वाले देबब्रत मुखर्जी ने बताया, “कंचनजंघा, अन्नपूर्णा और धौलागिरि जैसे पर्वतों की ऊंचाई 8,000 मीटर से कम होने के बावजूद इनकी चढ़ाई एवरेस्ट से ज्यादा कठिन मानी जाती है। फिर भी लोगों की रुचि, मान-सम्मान और आर्थिक फायदा सब एवरेस्ट से ही जुड़ा है। इसलिए गंभीर किस्म के पर्वतारोही दूसरी चोटियों पर जाते हैं और नए पर्वतारोही एवरेस्ट की चढ़ाई करते हैं।”

फर्जी दावे का आरोप किसी के पर्वतारोहण के सपने को बर्बाद कर सकता है। फिर भी वरिष्ठ पर्वतारोही देबाशीष विश्वास का कहना है कि गलत दावा करने वाले के प्रति दूसरे पर्वतारोहियों और मीडिया को सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाना चाहिए। देबाशीष भारत के उन दो पर्वतारोहियों में हैं जिन्होंने 8,000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाली सभी आठ चोटियों (भारत की पहुंच वाली, छह अन्य पाकिस्तान में हैं जहां भारतीय पर्वतारोहियों को जाने की अनुमति नहीं है) तक चढ़ाई की है। वे कहते हैं, “धोखा दुनिया के हर खेल का हिस्सा है। गलत दावा करने वालों ने संभवतः इसमें लगे दांव के कारण गलती की है। फिर भी उनमें पर्वतों के प्रति कुछ हद तक प्रेम तो है ही। हमें उन्हें पहाड़ों में दोबारा लौटने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।”

(साथ में चंडीगढ़ से हरीश मानव)

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