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28 नवंबर 2022 · NOV 28 , 2022

व्यंग्य: बुलडोजर की आत्मकथा

चुनावी विश्लेषक अब तक सदमे में हैं कि एक पक्ष का हथियार दूसरे का ब्रह्मास्त्र कैसे बन गया
पिछले चुनावों में नेताओं से ज्यादा बुलडोजर ने सुर्खियां बटोरीं

शक्ल-सूरत और रंग-रूप पर न जाइए। इसी ढब में मैं करीब सौ साल से इस धरती को रौंद रहा हूं। डेढ़-सौ साल से लोगों की जुबान पर चढ़ा हूं। अरबों गरीबों को मैंने कुदाल-हथौड़ा में खपने से बचाया है। महीनों की तोड़-फोड़ मिनटों में कर देता हूं। पहाड़ भेदना कहां आदमी के बस का था, जब मैं न था।

उन्नीसवीं सदी में मैं बस बोलचाल में था। किसी न दबने वाली चीज को दबाकर उसका रूप-आकार बदलने के सफल उद्यम को मेरा नाम दिया गया। फिर मुझे दवाई के बड़े डोज और किसी की तगड़ी धुलाई के वर्णन में इस्तेमाल किया गया। यानी डोज का साइज इतना बड़ा कि बैल भी लंबा पड़ जाए। धमकाने और कोड़े से पीटने के पर्याय के रूप में भी लोकप्रिय हुआ। उस दौर के एक अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में भी मेरी जमकर चर्चा हुई। वहां मैं एक मुहावरा था, ‘चाबुक का डर दिखाकर अफ्रीकी-अमेरिकियों को चुनाव में वोट देने से रोकना।’ सदी का अंत आते-आते मेरा अनर्थ बड़ी बंदूक और उसे लिए फिरने वाला भी हो गया। लोकोक्ति में भी मैं उफान पर था। किसी अड़ंगे को अगर धक्के से हटाना हो तो उस कृत्य को अलंकृत करने का सौभाग्य भी मुझे ही मिला।

इतनी ख्याति कहां से बेकार जाती! बीसवीं सदी का दूसरा दशक आते-आते मेरा मूर्त रूप भी धरती पर उतर ही आया। ट्रैक्टर के आगे-पीछे ठेलने-तोड़ने का जुगाड़ फिट कर मुझे पहले-पहल बुल-ग्रेडर कहा गया। फिर बुलडोजर ब्लेड। जल्दी ही मैं बुलडोजर के नाम से जग-प्रसिद्ध हुआ। क्यूट किस्म के लोग दुलार से मुझे डोजर के उपनाम से भी पुचकारते हैं। ऐसा नहीं कि सारे मेरे मुरीद हैं। वामपंथी मुझे मजदूरों का दुश्मन बताते हैं, प्रकृतिवादी विनाशक उपभोक्ता संस्कृति का ध्वजवाहक। कहते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में मैं डाइनामाइट का भतीजा हंू।

मैं गड्ढे खोदने और मलबा हटाने में मस्त था। मकान-दुकान, सड़क-दफ्तर बनता देख रहा था। अपनी प्रसिद्धि पर मैंने कभी घमंड नहीं किया। कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा मेरी कभी रही नहीं। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। एक बड़े राज्य के गला फाड़ चुनाव में एक पक्ष की मति मारी गई। मुझे खामख्वाह घसीट लिया गया। सोच थी कि बिना तेल-पानी के मुझे उधर चिपकाकर वे कोई चुनावी तोड़-फोड़ कर लेंगे, मलबे से अपना टूटा किला जोड़ लेंगे। भूल गए कि कुछ करना हो तो हवा-पानी देख लेना चाहिए, जानकारों से जान लेना चाहिए। पासा उल्टा पड़ा। चुनाव-चिन्ह से ज्यादा फोटो मेरे छपे। भाषणों में तो मैं पहले वाक्य में ही आ धमकता था। प्रखर राजनीति-शास्त्री और मुखर चुनावी विश्लेषक अब तक सदमे में हैं कि एक पक्ष का हथियार दूसरे पक्ष का ब्रह्मास्त्र कैसे बन गया!

वर्षों बाद भी सरकारों में मुझसे कुख्यात लोगों के घर-दुकान-दफ्तर ढहाने की होड़ लगी है। करोड़ों मुझे सामाजिक विकृतियों का शुद्धि-यंत्र मान बैठे हैं। कारण जो भी हो, मुझे ऐसा लगता है कि भटकों को ये समझ में आ गया है कि बाहुबली किसी के सगे नहीं हैं। लंबी और महंगी कानूनी प्रक्रिया के बीच ये अपराध को फटाफट पैसे कमाने का जरिया बना लेते हैं। काली कमाई का कुछ अंश इधर-उधर फेंककर ये अपने कुनबे-जाति के ठेकेदार बन जाते हैं। बाहुबली से जाति-कुनबे के त्राता और फिर वहां से चुनावी समर के ‘बहुबली’ का कवच ओढ़ लेते हैं, अभेद्य हो जाते हैं।

जब तक इंटरनेट-सोशल मीडिया नहीं था, ठग-बदमाश कुशलतापूर्वक ये इंद्रजाल फैलाए हुए थे कि जैसे-तैसे सत्ता हथियाने और चांदी काटने में कोई बुराई नहीं है। जहां हक न मिले वहां लूट सही। दशकों से इनके लोग इनकी सुनते-मानते रहे। ये सोच कर कि इस स्कीम का लाभ एक-एक कर एक दिन सबको मिलेगा। समय बीतता गया। ऐसा कुछ हुआ नहीं तो इनके धीरज का बांध टूट गया। अब ये ही सोशल मीडिया पर चढ़ फैलाने में लगे हैं कि तरक्की का मॉडल सबको सहज उपलब्ध नहीं है। हो ही नहीं सकता। सब ठग-लुटेरे बन जाएंगे तो कौन किसको लूटेगा?

समर्थक जितने जोश-खरोश से जिंदाबाद करते हैं, हवा बदले तो उतनी ही फुर्ती से कुर्ते भी फाड़ने लगते हैं। कभी जयकारे लगाने वाले अब चरम पर हैं कि लूट-खसोट वालों का माल वापस खोंस लो। कोई कहता है कि उनका एनकाउंटर कर दो। जीप पलटने और मुझसे बदमाशों की इमारत ढहाने की स्वतःस्फूर्त तकनीक इसी लोकप्रिय मांग से प्रेरित एक अर्ध-घोषित सरकारी स्कीम है। अब मैं ब्रेकिंग न्यूज हूं। कोई अदना लोहे की मशीन नहीं, जिसे कभी कभी पीले पंजे के नाम से दुत्कारते थे। जिधर का रुख करता हूं, टीवी-अखबार वाले चल पड़ते हैं। मेरा करतब चटखारे ले-लेकर दिखाते हैं। सवाल टीआरपी और उससे मिलने वाले विज्ञापन की कमाई का है। और यह बड़ा सवाल है। ठगी के पैसे से बना बहुमंजिला जब जमींदोज होता है तो खबर के शौकीनों की बांछे खिल जाती है। कभी ठगी-बदमाशी में अपना भविष्य तलाशने वाले संतोष की सांस लेते हैं कि चलो हमारा नहीं बना तो क्या, उसका कौन सा बच गया!

लगता है कि ठगी-बदमाशी के रास्ते मालदार और इज्जतदार बनना पहले जैसा सस्ता, सुंदर और टिकाऊ नहीं रहा। अब इस परिवर्तन पर मैं क्या कहूं। इस बात में कोई शंका नहीं होनी चाहिए कि इतिहास के इस काल-खंड को मेरे नाम से जाना जाएगा। लोग मुझे दिल से याद करेंगे कि उस युग में कंप्यूटर तो था ही, बुलडोजर भी कम नहीं था।

(लेखक हरियाणा के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक हैं)

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