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13 जून 2022 · JUN 13 , 2022

ज्ञानवापी विवाद: पुराने विवाद पर नई सियासत

इतिहास की गलतियां सुधारने के नाम पर सांप्रदायिक दावानल भड़काने की नई कोशिश के राग-रंग
विवाद की जगहः वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद

अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह मामला अपवाद है और अब इसके बाद 1947 में देश की आजादी के पहले के पूजा-स्‍थलों और ऐतिहासिक स्मारकों पर कोई विवाद वैध नहीं माना जाएगा। अदालत ने इसके लिए 1991 के पूजा-स्‍थल कानून का हवाला दिया और कहा कि वह संविधान की भावना के अनुरूप है,  इसलिए उसमें कोई संशोधन भी अवैध माना जाएगा। लेकिन ज्ञानवापी मस्जिद विवाद ने एक नया राग छेड़ दिया है, जिससे देश भर में तमाम विवाद ऐसे उभर आए हैं, मानो किसी ने बर्र के छत्ते को छेड़ दिया हो। ऐसा करने वाले इसे इतिहास की गलतियां सुधारने की दुहाई दे रहे हैं लेकिन दूसरे लोगों का कहना है कि यह संविधान के विरुद्ध है। जो भी हो, इसके सियासी पहलू भी बदस्तूर हैं, वरना यह इस कदर अचानक हो-हल्ले के साथ शुरू नहीं होता। विपक्षी पार्टियां इसे महंगाई, बेरोजगारी से ध्यान बंटाने का शगल मानती हैं।

जरा इसकी बानगी देखिए। ज्ञानवापी मस्जिद से शुरू हुआ विवाद मथुरा की शाही ईदगाह, ताजमहल, कुतुबमीनार, दिल्ली की जामा मस्जिद, कर्नाटक के श्रीरंगपट्टनम की जामिया मस्जिद तक पहुंच गया है और यह बढ़ता ही जा रहा है। इसलिए जब ज्ञानवापी मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो उम्मीद थी कि वह संविधान सम्मत निर्णय देकर दशकों पुराने इस विवाद की इतिश्री करेगा। लेकिन उसने वाराणसी सिविल जज से मामले को जिला जज के पास स्थानांतरित कर दिया और कहा कि ‘वरिष्ठ और अनुभवी न्यायिक अधिकारी इसे देखें।’

ज्ञानवापी की अंजुमन इंतजामिया मस्जिद समिति की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाइ चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत और पीएस नरसिंह की पीठ ने वाराणसी जिला अदालत से पहले मामले की मेंटेनिबिलिटी तय करने को कहा है, यानी मामला बनता है या नहीं। मस्जिद समिति का कहना है कि पूजा-स्थल (विशेष प्रावधान) कानून 1991 के तहत किसी पूजा-स्थल का धार्मिक स्वरूप बदलने की याचिका दायर नहीं की जा सकती है। शीर्ष अदालत ने मस्जिद के वजूखाने में तथाकथित शिवलिंग मिलने के दावे की जगह को सुरक्षित रखने और मुसलमानों को नमाज पढ़ने की अनुमति का अंतरिम आदेश दिया था। यह आदेश मेंटेनिबिलिटी पर जिला जज का फैसला आने और उसके बाद आठ हफ्ते के भीतर किसी भी पक्ष के ऊपरी अदालत में जाने तक मान्य रहेगा। बेंच ने वजू का वैकल्पिक इंतजाम करने को भी कहा है।

कोर्ट के निर्देश के बाद कड़ी सुरक्षा

कोर्ट के निर्देश के बाद कड़ी सुरक्षा

ज्ञानवापी से जुड़ा मामला 1936 में जब अदालत में पहुंचा था तो वह मुस्लिम पक्ष की ओर से था। तब दीन मोहम्मद नाम के शख्स ने वाराणसी कोर्ट में याचिका दायर की थी कि ज्ञानवापी मस्जिद के आसपास की जमीन वक्फ की है, इसलिए नमाज पढ़ने और अन्य धार्मिक आयोजनों के लिए वह जमीन मुसलमानों को दी जाए। लेकिन कोर्ट ने यह कहकर याचिका खारिज कर दी कि मस्जिद हिंदू मंदिर की जगह बनाई गई थी। दीन मोहम्मद इलाहाबाद हाइकोर्ट गए, लेकिन वहां भी उनकी याचिका खारिज हो गई। उसके बाद 1991 में मामले ने तब तूल पकड़ा जब ज्ञानवापी परिसर में हिंदू रीति से पूजा-अर्चना की अनुमति के लिए कई याचिकाएं दायर की गईं। स्थानीय वकील विजय शंकर रस्तोगी ने अपनी याचिका में दावा किया कि राजा विक्रमादित्य ने करीब 2050 साल पहले वहां मंदिर बनवाया था, जहां अभी मस्जिद है। उन्होंने मस्जिद गिराने और जमीन हिंदुओं को सौंपने की अपील की। अंजुमन इंतजामिया मस्जिद समिति ने 1998 में इलाहाबाद हाइकोर्ट में याचिका दायर की और कहा कि पूजा-स्थल कानून 1991 की धारा 4 के तहत हिंदू पक्ष का दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता। हाइकोर्ट ने तब निचली अदालत में सुनवाई पर रोक लगा दी थी।

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के एक महीने बाद वकील रस्तोगी ने दिसंबर 2019 में ज्ञानवापी ढांचे के पुरातात्विक अध्ययन की मांग की। वाराणसी कोर्ट ने अप्रैल 2021 में भारतीय पुरातत्व विभाग को सर्वेक्षण करके रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया। तब मस्जिद समिति के साथ उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने भी उसका विरोध किया। मामला फिर हाइकोर्ट पहुंचा जिसने निचली अदालत के सर्वेक्षण के आदेश पर रोक लगा दी और कहा कि 1991 के कानून के तहत पूजा-स्थल का धार्मिक स्वरूप नहीं बदला जा सकता। पूजा-स्थल (विशेष प्रावधान) कानून 1991 के मुताबिक 15 अगस्त 1947 को जिस पूजास्थल का जो धार्मिक स्वरूप था, उसे बदला नहीं जा सकेगा।

अदालती हस्तक्षेप की मांग का नया सिलसिला 18 अप्रैल 2021 को वाराणसी की लक्ष्मी देवी, सीता साहू, मंजू व्यास, रेखा पाठक और दिल्ली की राखी सिंह की नई याचिका से शुरू हुई। इन याचिकाओं में मस्जिद परिसर की बाहरी दीवार पर लगी शृंगार गौरी और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों की नियमित पूजा-अर्चना की अनुमति मांगी गई। इसी याचिका के आधार पर सिविल जज (सीनियर डिवीजन) रवि कुमार दिवाकर ने इस साल 26 अप्रैल को परिसर का सर्वेक्षण करने और वीडियोग्राफी करने के निर्देश दिए। मस्जिद समिति फिर हाइकोर्ट गई लेकिन उसने सर्वेक्षण पर रोक लगाने से इनकार कर दिया तो समिति सुप्रीम कोर्ट गई। शीर्ष अदालत ने मामला सिविल जज से जिला जज को ट्रांसफर करते हुए निर्देश दिया कि केस की मेंटेनिबिलिटी पर फैसला करने के बाद ही सर्वेक्षण की रिपोर्ट को खोला जाएगा।

ज्ञानवापी मामले में याचिका दायर करने वाली महिलाएं

ज्ञानवापी मामले में याचिका दायर करने वाली महिलाएं 

हिंदू पक्ष के वकील सीएस वैद्यनाथन ने कहा कि मेंटेनिबिलिटी तय करने के लिए आयोग की रिपोर्ट पर विचार करना जरूरी है। इसका विरोध करते हुए मस्जिद समिति के वकील हुजैफा अहमदी ने कहा कि रिपोर्ट के चुनिंदा हिस्से लीक किए जा रहे हैं और एक नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की जा रही है, इसे रोका जाना चाहिए। अहमदी ने कहा कि जिस जगह पर 500 वर्षों से नमाज पढ़ी जा रही थी, वहां सिविल कोर्ट के आदेश से यथास्थिति बदली जा रही है। उन्होंने कहा कि निचली अदालत ने भले ही पूजा-स्थल कानून 1991 को दरकिनार किया हो, लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इसकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए।

दरअसल, मस्जिद परिसर के निरीक्षण और वीडियोग्राफी के लिए सिविल जज ने अजय मिश्र के नेतृत्व में एक एडवोकेट कमीशन नियुक्त किया था। लेकिन बाद में ‘गैरजिम्मेदाराना व्यवहार’ के लिए मिश्र को हटा दिया और विशेष एडवोकेट कमिश्नर विशाल सिंह के नेतृत्व में नई कमीशन को सर्वेक्षण का जिम्मा सौंपा। विशाल सिंह ने आरोप लगाया था कि मिश्र निजी कैमरामैन लेकर जा रहे हैं और मीडिया में बाइट दे रहे हैं। विशाल सिंह कमीशन ने 14, 15 और 16 मई को सर्वेक्षण के बाद 19 मई को रिपोर्ट दी। हटाए जाने के बावजूद मिश्र ने भी अपनी रिपोर्ट सौंपी है। हालांकि रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं की गई है, लेकिन मीडिया में आई खबरों के अनुसार वजूखाना के बीच में सिलिंडर आकार का काला पत्थर है। मस्जिद समिति इसे फव्वारा बता रही है तो हिंदू पक्ष शिवलिंग मान रहा है। सर्वे टीम को यहां स्वास्तिक, त्रिशूल, डमरू, घंटियां, देवी देवताओं की मूर्तियां मिलने का भी दावा किया जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट में भी मस्जिद समिति ने यही दलील दी है कि पूरी प्रक्रिया 1991 के कानून का उल्लंघन है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक्जीक्यूटिव मेंबर कासिम रसूल इल्यास आउटलुक से कहते हैं, “1991 के कानून में ही यह बात स्पष्ट हो गई थी कि 15 अगस्त 1947 को जिस मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या चर्च की जो भी स्थिति थी, वह बनी रहेगी। अब जितने भी नए मसले खड़े किए जा रहे हैं, वह 1991 के कानून का उल्लंघन है। किसी भी कोर्ट को ऐसी याचिका स्वीकार नहीं करनी चाहिए।” पर्सनल लॉ बोर्ड अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी को कानूनी मदद मुहैया करा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने 9 नवंबर 2019 को राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर फैसला सुनाया तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यह कड़वाहट दूर करने का दिन है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी अयोध्या में ही विराम लगाने के संकेत दिए थे। भाजपा और संघ नेतृत्व ने अपने कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कोई जश्न न मनाया जाए। लेकिन अब इनका स्टैंड बदलता लग रहा है। संघ के वरिष्ठ नेता और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार ने कहा, “ज्ञानवापी मस्जिद, ताजमहल, कृष्ण जन्मभूमि और देश में दूसरी जगहों के बारे में चर्चा हो रही है। हर व्यक्ति उनके बारे में सच जानना चाहता है। यह किसी के खिलाफ द्वेष या राजनीति के कारण नहीं है।” संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा, “सत्य अपनी राह खोजता ही है। आप कितने दिनों तक किसी चीज को दबा कर रख सकते हैं। अब ऐसे तथ्यों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने, समझने और पूरे समाज के सामने रखने का समय है।” उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री और पुराने विहिप नेता केशव प्रसाद मौर्य ने कहा, “आप सच को चाहे जितना छिपाएं एक दिन वह सामने आ ही जाएगा क्योंकि सत्य ही शिव है। बाबा की जय, हर हर महादेव।” संघ और भाजपा नेता पूजा-स्थल कानून 1991 में संशोधन की बात करने लगे हैं। उनका कहना है कि यह कानून भगवान ने नहीं संसद ने बनाया है। जब यह कानून बना था तब वास्तविकता अलग थी, शिवलिंग पाए जाने के बाद सब कुछ बदल जाएगा। आउटलुक से बातचीत में आंबेकर कहते हैं, “आप यह भी देखिए कि 1991 में विधेयक किस तरह लाया गया और तब किसने क्या स्टैंड लिया।”

पूजा-स्थल (विशेष प्रावधान) कानून 1991 राम जन्मभूमि आंदोलन के शिखर के समय लाया गया था। तब भाजपा ने विधेयक का विरोध किया था। अयोध्या विवाद को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया था। कानून बनने के साल भर बाद 6 दिसंबर को 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी गई जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2019 के अपने फैसले में आपराधिक कृत्य बताया। उस फैसले में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सभी धर्मों की समानता और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करना राज्य की जिम्मेदारी है, यह संविधान की बुनियादी विशेषता है।

लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट का स्टैंड भी बदलता लग रहा है। उसने यह कह कर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है कि पूजा-स्थल कानून 1991 में किसी पूजा-स्थल का धार्मिक स्वरूप बदलने की मनाही है, धार्मिक स्वरूप तय करने की मनाही नहीं है। इल्यास कहते हैं, “हमें उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट विवाद को खत्म करेगा और कोई नया विवाद खड़ा नहीं होने देगा। पूजा-स्थल का स्वरूप तय करने की अगर अनुमति होगी, तो फिर रह ही क्या जाएगा। अगले दिन यह दावा किया जाएगा कि इसका स्वरूप ऐसा है तो इसे बदला जाए। इस तरह अगर आप रास्ता खोलेंगे तो वह यहीं तक सीमित नहीं रहेगा। कल बौद्ध कह सकते हैं कि हमारे धर्मस्थल तोड़े गए, परसों जैन आ सकते हैं। इस तरह तो पूरे देश में नया हंगामा खड़ा हो जाएगा।” वे यह भी कहते हैं, “बाबरी मस्जिद मामले में भी सुप्रीम कोर्ट की सारी टिप्पणियां हमारे पक्ष में थीं, लेकिन कोर्ट ने फैसला हमारे खिलाफ सुनाया।”

इत्तेहाद मिल्लत काउंसिल के प्रमुख तौकीर रजा का कहना है कि मंदिर गिराकर मस्जिद नहीं बनाई गई, बल्कि जब लोगों ने इस्लाम को धारण किया तो उन्होंने अपने पूजास्थल को मस्जिद में तब्दील कर दिया। उन्होंने कहा कि नफरत फैलाने वालों को हर उस मस्जिद में शिवलिंग नजर आएगा जहां फव्वारा है। दूसरी तरफ, विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय महासचिव मिलिंद परांदे ने ज्ञानवापी मस्जिद को राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद से जोड़ते हुए कहा कि दोनों मुगल आक्रांताओं के विध्वंस के प्रतीक हैं। यह बात मथुरा स्थित श्रीकृष्ण जन्म भूमि-शाही ईदगाह मस्जिद पर भी लागू होती है।

दावे-प्रतिदावेः मथुरा का कृष्ण जन्मभूमि मंदिर और शाही ईदगाह

दावे-प्रतिदावेः मथुरा का कृष्ण जन्मभूमि मंदिर और शाही ईदगाह

काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट काउंसिल अभी तक अदालती मामले में पार्टी नहीं था, लेकिन अब वह भी पार्टी बनना चाहता है। ट्रस्ट के प्रेसिडेंट नगेंद्र पांडे का कहना है कि जब बाबा विश्वेश्वर की मूर्ति मिली है तो वह वजूखाना कैसे हो सकता है। हमारी मांग है कि जब तक कोर्ट का फैसला नहीं आता तब तक शिवलिंग काशी विश्वनाथ न्यास को सौंप दिया जाए। ट्रस्ट चाहता है कि वहां अब रोजाना श्रृंगार, भोग, प्रार्थना आदि आयोजित किए जाएं। 23 मई को जिला जज की अदालत में काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत डॉ. कुलपति तिवारी की तरफ से नई याचिका दायर की गई। इसमें शिवलिंग वाली जगह पर रोजाना पूजा करने की अनुमति मांगी गई है।

धर्म का इतिहास भारत ही नहीं, अनेक देशों में रक्त रंजित रहा है। शायद उन सबको पीछे छोड़ने के लिए ही आजादी की तारीख से पूजास्थल कानून को लागू करने की बात कही गई थी। सत्तारूढ़ भाजपा चाहे तो इस कानून में संशोधन कर सकती है, लेकिन क्या वह संविधान की भावना के अनुरूप होगा? औरंगजेब ने सिर्फ हिंदू मंदिर नहीं गिराए, उसने सिख गुरुओं को भी निशाना बनाया था। हमें पंजाब की 21 मई की इस घटना से सीख लेनी चाहिए। लुधियाना के पास करीब 1400 मतदाताओं वाले सिख बहुल फेरुरियां में सिर्फ चार मुस्लिम परिवार हैं। उनके लिए सिख समाज मस्जिद बनवा रहा है। मस्जिद बनाने के लिए गुरुद्वारे में ही अरदास और दुआ की गई। मस्जिद के लिए नींव की 13 ईंटें भी गुरुद्वारे से गईं। निर्माण के लिए ज्यादातर दान सिखों ने ही दिया है। गुरुद्वारा के प्रेसिडेंट इकबाल सिंह के अनुसार, “गांव में गुरुद्वारा और मंदिर तो है लेकिन मस्जिद नहीं थी, इसलिए हम एक मस्जिद भी बनाना चाहते हैं।” यह घटना आश्वस्त करती है कि सियासतदानों की तमाम कोशिशों के बावजूद भारत की गंगा-जमुनी तहजीब अभी खत्म नहीं होने वाली।

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