सुबह का समय है और स्टूडियो में खामोशी छाई हुई है। रोज की तरह फिल्म निर्देशक सुरेश सिन्हा शूटिंग के एक घंटे पहले खाली स्टूडियो में वक्त बिताने आते हैं। स्टूडियो की तरह उनकी जिंदगी भी देखने में आलीशान पर खाली है। उनके पीछे उनकी फिल्म की हीरोइन शांति बैठी स्वेटर बुन रही है। शांति जानती है कि सुरेश शादीशुदा है पर उनके बीच एक नया रिश्ता कायम हो रहा है। दोनों भीड़ में अकेले हैं और एक दूसरे को सहजता से समझ लेते हैं। वे आपस में कुछ बातें करने लगते हैं। मगर असल बात फिर भी अनकही रह जाती है। लेकिन जब निर्देशक गुरु दत्त हों, तो उन अनकही बातों को भी अलफाज मिल जाते हैं और नदी की तरह परदे पर कैफी आजमी के बोल बहने लगते हैं। किरदारों की तरह यह गीत भी मर्यादाओं की सीमाओं से बंधा हुआ है। गुरु दत्त की कल्पना से जब कोई फिल्म बनती है, तो नतीजा किसी जादू से कम नहीं होता।
बोलती फिल्में जब से शुरू हुईं, तब से फिल्मों में गानों की बाढ़ सी आ गई थी। निर्माताओं को जैसे ही पता चला कि गानों के दम पर फिल्में चल सकती हैं, तो कई बार गाने ठूंसे जाने लगे। तब कई बार गाने कहानी में अंतराल लाने के लिए इस्तेमाल होते थे। तब अभिनेता और अभिनेत्री गायन में निपुण होते थे, तो पूरा ध्यान गायन पर ही केंद्रित होता था। मगर राज कपूर और उनके बाद गुरु दत्त और फिर विजय आनंद ने गानों को पटकथा के साथ सम्मिश्रित कर दिया और गीतों के फिल्मांकन का नजरिया ही बदल दिया। गुरु दत्त के पास इसका एक और फायदा भी था।
साल 1941 और 1944 के बीच गुरु दत्त ने महान नर्तक उदय शंकर के साथ काम किया था, जहां उन्होंने नृत्य और कोरियोग्राफी में प्रशिक्षण लिया। बाद में जब उन्होंने प्रभात फिल्म कंपनी में काम शुरू किया, तो वहां भी बतौर सह निर्देशक और कोरियोग्राफर काम किया। यहीं से गुरु दत्त का नाता फिल्मी गीतों से जुड़ गया। उनमें नृत्य और निर्देशन का ऐसा अनोखा संगम बना, जो इससे पहले हिंदी सिनेमा में कभी देखने को नहीं मिला था। इस संगम की झलक लोगों को उनकी पहली फिल्म बाजी (1951) में ही दिख गई थी। फिल्म में देव आनंद एक क्लब में जुए की बाजी हारने के डर से निकल रहे होते हैं। उसी क्लब में गीता बाली गिटार बजाती हुई उन्हें एक और बाजी खेलने के लिए रोकने की कोशिश में गाती हैं, ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले, अपने पे भरोसा है तो एक दांव लगा ले।’ इसमें संवाद कहां खत्म हुआ और गीत कहां शुरू हुआ, दर्शकों को पता ही नहीं चलता। गुरु दत्त के फिल्मांकन में गाने मात्र सुनने का साधन न रहकर दृश्य और अनुभव बन जाते थे। इस अनुभव का भव्यता से कोई संबंध नहीं था। लेकिन यह देखने में बिलकुल अलग थे।
शांताराम के गाने भी भव्य और नाटकीय थे। मगर उन गानों को बड़े कैनवास की जरुरत होती थी। मगर गुरु दत्त के गानों की पृष्ठभूमि आम इंसान के रोजमर्रा के जीवन से ताल्लुक रखती थी। वह गाड़ी का गेराज भी हो सकता था, (‘सुन सुन सुन सुन जालिमा’ आर पार, 1954), बंबई का फुटपाथ भी (‘दिल पर हुआ ऐसा जादू’, मिस्टर एंड मिसेस 55, 1955)या चलती गाड़ी भी हो सकती थी (‘ये लो मैं हारी पिया’, आर पार, 1954) या किसी नवाब की हवेली भी (‘बदले-बदले मेरे सरकार’, चौदहवीं का चांद, 1960) भी। हर गाने में गुरु दत्त की छाप अमिट थी।
पर इन गानों को यादगार बनाने में कई हस्तियों का योगदान था। पहले गिनती में आते हैं, गीतकार जिनमें साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी और शकील बदायूंनी कुछ प्रमुख नाम हैं। इनके लिखे गीतों ने कहानी को आगे बढ़ाने का काम किया और इनको ओ. पी. नैयर, सचिन देव बर्मन, हेमंत कुमार और रवि जैसे संगीतकारों ने बेहतरीन धुनों से सजाया। मगर इन गानों को जीवंत करने में प्रमुख भूमिका निभाई उनके सहयात्री और छायाकार वी.के. मूर्ति ने। गुरु दत्त की कल्पना को पर्दे पर साकार रूप देने का श्रेय मूर्ति को ही जाता है। ब्लैक एंड वाइट छायांकन का पूरा लाभ उठाते हुए मूर्ति ने चियारोस्कूरो लाइटिंग तकनीक और कैमरा मूवमेंट से कुछ ऐसे कारनामे दिखाए जिससे लोग विस्मित रह गए। चाहे वह कागज के फूल (1959) का ‘वक्त ने किया क्या हसीन सितम’ हो या साहिब बीवी और गुलाम (1962) का ‘साकिया आज मुझे नींद नहीं आएगी’ हो। ये गाने, पर्दे पर प्रकाश और किरदारों की परछाई के साथ आंख मिचौनी खेलते दिखते हैं। दरअसल, इन गानों की लाइटिंग कहानी और किरदार दोनों की मनस्थिति को दर्शाने का काम भी करती है।
कागज के फूल न चल पाने के बाद से गुरु दत्त ने अपना नाम निर्देशक के रूप में कभी नहीं दिया। मगर उनके सह निर्देशक और पटकथा लेखक अबरार अल्वी ने अपनी एक किताब में लिखा था कि चौदहवीं का चांद और साहब बीवी और गुलाम के गानों का फिल्मांकन गुरु दत्त ने ही किया था। यह गुरु दत्त का ही कमाल है कि चौदहवीं का चांद शीर्षक गीत में बिस्तर पर नव दंपत्ति के रोमांस को अनूठे ढंग से फिल्माया गया है। वहीं साहब बीवी और गुलाम के ‘न जाओ सैंया’ में वही बिस्तर प्रेम की याचना का प्रतीक बनता है। मिस्टर एंड मिसेस 55 में बंबई की भीड़ भरी सड़कों में भी ‘दिल पर हुआ ऐसा जादू’ कह कर वे अपने नए प्यार का अनुभव दोस्त के साथ बांटते हैं। वहीं प्यासा (1957) में कलकत्ते की सुनसान सड़क में ‘बात कुछ बन ही गई’ कह कर एक नई प्रेम कहानी का बीज बोते हैं। प्यासा के इसी गीत में ऐसा लगता है कि गुलाबो विजय को एक अदृश्य धागे से खींचती हुई अपने खोली की तरफ ले जा रही है। वह बार-बार पीछे पलट कर, विजय को अपने नशे में डूबाने की कोशिश करती है। वह उसे ग्राहक समझती है और उसे यह पता नहीं कि विजय वही शायर है जिसकी नज्में उसके हाथ में हैं। आखिर में बात कुछ बन ही जाती है। एक इंटरव्यू में माला सिन्हा ने कहा था कि गाने बनाने में गुरु दत्त का योगदान काफी अहम होता था।
शायद गुरु दत्त देश के पहले हिंदी अभिनेता थे, जिन्होंने नृत्य का बाकायदा प्रशिक्षण लिया था। इसलिए आर पार और मिस्टर एंड मिसेस 55 जैसी फिल्मों में डांस के हल्के फुल्के स्टेप्स वे सहजता से कर पाए थे। इन गानों के कोरियोग्राफर भी वे स्वयं ही थे। नृत्य में पारंगत होने के नाते, उन्हें लय की अच्छी समझ थी जो गानों, किरदारों और कैमरा के चलन में खूब देखने को मिलती है। अपने जीवन के गीत को अगर वे कुछ वर्ष और चलने देते तो शायद हिंदी सिनेमा की कहानी कुछ और ही होती। लेकिन आज सिर्फ उन गीतों की गूंज बची है, जिन्हें गुरु दत्त ने अपने कौशल से बनाया था।