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आवरण कथा/आलेख : नृशंस साम्राज्य

ऐसा प्रचंड संकट आजादी के बाद से नहीं आया था, अब तो मोदी समर्थक भी मानने लगे हैं कि महामारी में सरकार का रवैया सारे दायित्व से हाथ झाड़ लेने का रहा है
आर्ट: संजय बसाक

इस 9 मई को पिंजरा तोड़ आंदोलन की अगुआ छात्र एक्टिविस्ट नताशा नरवाल के पिता महावीर नरवाल कोविड महामारी से जंग हार गए। वे दुनिया से विदा होने के पहले अपनी बेटी से मिल या बात नहीं कर सके। नताशा लगभग साल भर से यूएपीए के तहत तिहाड़ जेल में बंद थीं। अगर आपको नरेंद्र मोदी सरकार के चरित्र को किसी एक घटना में समेटना हो, तो शायद यह एकदम फिट है। यह छोटी-सी घटना याद दिला जाती है कि सात साल की मोदी सरकार कैसे मौत और दुख-तकलीफों के पहाड़ पर सिंहासन जमाए बैठी है। महामारी की दूसरी लहर देश में कुछ ज्यादा ही तबाही मचा रही है। लेकिन यह भी निर्विवाद है कि मोदी सरकार की बेरुखी, नाकारापन और बेरहमी ने मौत के तांडव को ज्यादा ही बढ़ावा दे दिया है, वरना शायद इतना न होता। लेकिन ऊपर की कहानी दूसरे मामलों में भी मिसाल जैसी है। एक युवा छात्र एक्टिविस्ट आतंक विरोधी कानूनों के तहत जेल में है। यह याद दिलाता है कि सरकार ने राजनैतिक विरोध प्रदर्शन या कानून तोड़ने की छोटी-मोटी वारदात को देशद्रोह में बदल दिया है; वह कानून को दमन का औजार बना चुकी है। यह इसकी भी मिसाल है कि देश की स्वतंत्र संस्थाएं- जैसे अदालतें- कुछ अपवादों को छोड़कर, बुनियादी नागरिक स्वतंत्रता या विधिसम्मत प्रक्रियाओं की रक्षा करने में नाकाम हुई हैं। नताशा पर आरोप है कि वह दिल्ली दंगों की पूर्व-नियोजित साजिश का हिस्सा रही है। हकीकत यह है कि कई दूसरे राजनैतिक कैदियों की तरह उस पर भी यूएपीए लगाया गया, जबकि हिंसा को खुलकर भड़काने वाले सत्ताधारी पार्टी के लोग छुट्टा घूम रहे हैं। इससे जाहिर होता है कि सरकार और सरकारी तंत्र कैसे खुलेआम सांप्रदायिक और पक्षपाती हो गया है। और फिर इस कहानी का एक बेहद निजी पहलू है, जो इस राजनैतिक आरोप-प्रत्यारोप में खो जाएगा। वह है सरकार की बंदी बनाई गई अपनी आदर्शवादी बेटी, जो हमसाया कामरेड की तरह है, की रिहाई के लिए संघर्षरत पिता की उसे देखे बिना मृत्यु। जिस दौर में हजारों चिताएं जल रही हों, किसी की त्रासदी का अलग से तवज्जो वाकई असंभव-सा है।

देश ऐसी प्रचंड महामारी से मुकाबिल है, जैसा संकट आजादी के बाद से नहीं आया। रोजाना मौतें पहले ही 4,000 का आंकड़ा छू रही हैं और यह गिनती कम से कम तीन या चार गुना कम है। देश में कोविड की दूसरी लहर बड़ी चुनौती होनी ही थी। बीमारी संक्रामक है और लंबे समय से भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में बेहद थोड़ा निवेश किया जाता रहा है। लेकिन अब मोदी समर्थक भी मानने लगे हैं कि महामारी में सरकार का रवैया सारे दायित्व से हाथ झाड़ लेने का रहा है। अब भी किसी को जरा भी संदेह था तो सरकार ने अपने सातवें वर्ष में अपनी सत्ता और विरासत के सच्चे चरित्र को खोलकर रख दिया।

कोई अदना-सा आदमी ही शायद नरेंद्र मोदी के सात साल का आकलन पारंपरिक मानकों से करे। मसलन, देश ने कितनी वृद्धि दर हासिल की? कितनी कल्याणकारी योजनाएं शुरू की गईं? अपने प्रतिद्वंद्वियों से देश कितना सुरक्षित है? भ्रष्टाचार कितना कम हुआ? संस्थाओं का कामकाज कैसा रहा? क्या हम बतौर समाज एक दशक पहले के मुकाबले अधिक मजबूत, लचीले और समावेशी बने हैं? ये वाजिब और खास सवाल हैं जो सात साल के रिपोर्टकार्ड का हिस्सा होते। लेकिन नरेंद्र मोदी वाजिब सवालों के जवाब से आंके जाने के लिए चुने नहीं गए थे; दरअसल वे किसी वाजिब सवाल का जवाब कतई नहीं देते हैं। इसलिए ऐसे सवाल उन पर थोपना निहायत नाइंसाफी होगी। उन्हें 2019 में एक विचारधारात्मक मकसद, भारत में हिंदू राष्ट्र को संस्थागत रूप देने के लिए दोबारा चुना गया था। उन्हें ऐसे राजकाज के लिए सराहा गया था, जिसकी पहचान बेरोकटोक राजनैतिक नृशंसता है। सातवें वर्ष में ये उपलब्धियां अपने पूरे शबाब पर प्रदर्शित हुईं। इस परियोजना में दूसरा कोई नीतिगत कदम या उपलब्धि बस संयोग मात्र है।

सरकार को जल्दी ही इस बात का एहसास हो गया कि यूपीए की जिस मनरेगा स्कीम का उसने मजाक उड़ाया था, वह ज्यादातर गरीब भारतीयों के जीवन का एकमात्र सहारा है

लेकिन आप फिर भी यह देखकर चौंके होंगे कि महामारी में मोदी सरकार ऐसी लाचार क्यों दिखने लगी है। इसे सिर्फ सत्ता के अहंकार का असर कहकर खारिज कर देने का लोभ होता है। अक्सर सत्ता के अहंकार में सरकारें लोगों से दूर हो जाती हैं। अपने पहले कार्यकाल में काफी बेहतर कामकाज करने वाली यूपीए सरकार दूसरे कार्यकाल के दूसरे वर्ष में ही बेहद कमजोर और लाचार दिखने लगी थी। पहले कार्यकाल में वह देश को 8 फीसदी वृद्धि दर की ओर ले गई, कल्याणकारी योजनाओं में नई-नई मिसालें रखीं, सूचना का अधिकार जैसे संस्थागत सुधार के कदम उठाए, इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश किया और लोकतंत्र तथा आर्थिक वृद्धि दोनों को मजबूती प्रदान की। शायद उसने अपनी कामयाबियों से आकांक्षाएं कुछ ज्यादा ही बढ़ा लीं और भ्रष्टाचार, नीतिगत लकवाग्रस्तता, सांस्थानिक अराजकता, सरकार चलाने की इच्छा का अभाव जैसी आलोचनाओं को बुलावा दे बैठी। हालांकि आज जब हम पाते हैं कि इस सरकार ने हमें बेसहारा छोड़ दिया है, तो आलोचना के वे स्वर छोटे दिखने लगते हैं।

सातवें वर्ष में यूपीए में सरकार चलाने की इच्छा के अभाव से इस सरकार के सातवें वर्ष की कोई तुलना नहीं हो सकती है। यह सरकार बेहद अपशकुनि भी साबित हो रही है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि यूपीए में सरकार चलाने की इच्छा का अभाव था, लेकिन इस सरकार की नाकामियां उसके राजकाज के दर्शन का ही नतीजा है। क्रूरता, नृशंसता और निकम्मापन इस सरकार का चरित्र दिखता है, कमजोरी नहीं।

मोदी की राजनैतिक कामयाबी अपनी शख्सियत में स्थितियों को आत्मसात करने की उनकी क्षमता में निहित है। इसके सूत्र कुछ हद तक उनके उत्थान से जुड़े हैं, जो सरमाएदारी और वंशगत विरासत की पुरानी व्यवस्था को नकार की तरह देखा जाता है। इसका दूसरा अंश बढ़ती हिंदू कट्टरता से पैदा हुआ है। यह उन्होंने अपने को हिंदुओं का राजनैतिक रक्षक, उनका सबसे बड़ा हिमायती बताकर किया है, जिसने उन्हें प्रतीक के तौर पर ही सही, हजारों साल की गुलामी से मुक्त किया और निर्मम राजनैतिक ताकत के रूप में खड़े होने का गुर सिखाया। इसी कायाकल्प पर उनका जोर है, वे शायद अपने सात साल की बुलंदी अयोध्या में भूमि पूजन को मानते हों। उनकी कामयाबी कुछ हद तक उनकी संवाद शैली में है, जिसमें लोगों की इच्छाओं को स्वर देने का दावा किया जाता है। यहां संवाद शायद सही शब्द नहीं है क्योंकि इस शैली में सिर्फ कहना होता है, सुनना नहीं। जैसा कि वे 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान कहा करते थे, ‘‘जो थारे दिल में छे, वो म्हारे दिल में छे।’’ (जो आपके दिल में है, वही मेरे दिल में है)।

लेकिन उनका अंतर्ज्ञान हमारे दिलों का अंधेरा पक्ष है: कि अगर क्रूरता को कला में बदल लोगे तो वह शक्ति का प्रदर्शन मान लिया जाएगा। वे अपनी करुणा की भावना, दूसरों के दुखों को अपना बनाने, सामान्य लोगों के सरोकार की वजह से चुनाव नहीं जीतने जा रहे थे। देश बेरोकटोक शक्ति प्रदर्शन का भूखा था। सत्ता पर उनका नियंत्रण बनाए रखने के लिए साधन और मीडिया का विशाल तंत्र मुहैया कराने वाले भारतीय पूंजीपतियों तथा अमीरों के लिए उनकी सत्ता लोकप्रिय मांगों को अनुशासित करेगी। इन कल्याणकारी और लोकलुभावन योजनाओं की नींव पूर्ववर्ती सरकारें रख चुकी थीं। कुछ कम सुविधा संपन्न लोगों के लिए, वे उस पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त करने का वादा लेकर आए थे, जो सांस्कृतिक तौर पर पराए एलीट का प्रतिनिधित्व करती है। बेशक, इसके लिए निरंकुश सत्ता का प्रदर्शन जरूरी था। यूपीए-2 के आखिर में देश को शायद यह यकीन भी हो चला था कि वह ज्यादा ही नरम रुख का हो गया है। मसलन, हम पड़ोसी देशों के प्रति ज्यादा ही नरम हैं, अल्पसंख्यकों के प्रति ज्यादा ही नरम हैं, अलोचना पर भी बेहद उदार हो उठते हैं, फैसले लेने के वक्त भी ज्यादा लचीले हो उठते हैं। सिर्फ नरम या उदार रुख वाले ही लोकतांत्रिक बातचीत से राष्ट्रीय पहचान बना सकते हैं, या संतुलन और मर्यादाओं का ख्याल रख सकते हैं या तथ्यों से बंधे महसूस कर सकते हैं।

यही बुनियादी सच्चाई है, जो इस सरकार का आदर्श या सांचा तैयार करने जा रही थी। वजह यह कि सरकार की कामयाबी उसकी उपलब्धियों से नहीं नापी जानी थी, वह तो सिर्फ इससे नापी जानी थी कि निरंकुश सत्ता के प्रदर्शन में उसकी काबिलियत क्या है। इसलिए जितना ही कठोर और घमंडी दिखोगे, उतने ही कामयाब कहलाओगे। एक हद तक नोटबंदी इस सत्ता और ताकत के प्रदर्शन की मिसाल थी। वह इसलिए कामयाब नहीं बताई गई क्योंकि उसका कोई मकसद पाया जा सका, या काला धन घटा या अर्थव्यवस्था में नकदी की आमद कम हुई। वह इसलिए कामयाब बताई गई क्योंकि वह सत्ता का अपूर्व प्रदर्शन था, कठिनाई थोपने की इच्छा का इजहार करना था। जितनी मुश्किलें थोपी गईं, यह राज उतना ही कामयाब लगने लगा, आखिरकार यही तो वह संकेत है जिसे हम कामयाबी नापने के लिए तलाश रहे थे।  सो, पारंपरिक स्कोरकार्ड तैयार करने का कोई मतलब नहीं है। ऐसे किसी भी स्कोरकार्ड में आर्थिक मोर्चे पर प्रदर्शन पहले दिखेगा। इस मोर्चे पर प्रदर्शन खराब से औसत रहा है। विश्व अर्थव्यवस्था में सुस्ती और कमजोर बैंकिंग सेक्टर के चलते सरकार को विरासत में डावांडोल अर्थव्यवस्था मिली थी। लेकिन सात वर्षों में सरकार यह दिखाने में नाकाम रही कि अर्थव्यवस्था आठ फीसदी औसत विकास दर की सुरक्षित राह पर है, जैसा 2002 से 2010 के दौरान देखने को मिला था। अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक झटके लगते रहे। पहले तो नोटबंदी के रूप में स्वनिर्मित झटका लगा। उसके बाद महामारी आ गई। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महामारी से पहले लगातार आठ तिमाही से विकास दर लगातार गिर रही थी। कुछ लोग अर्थव्यवस्था की हालत ज्यादा खराब न होने देने के लिए मोदी सरकार को अधिक अंक देते हैं, लेकिन इसकी बड़ी वजह कच्चे तेल के दाम में बड़ी गिरावट है। इससे एक तो भुगतान संतुलन नियंत्रण में रहा, और दूसरे, सरकार को महंगाई का जोखिम उठाए बिना अधिक राजस्व हासिल करने का मौका भी मिला।

सुधारों की बात करें तो जीएसटी एक बड़ा कदम था। लेकिन इसके अमल को अनावश्यक रूप से जटिल बना दिया गया। आइबीसी जैसे विधि सुधारों के अमल में भी अड़चनें रहीं। विश्व अर्थव्यवस्था के साथ जुडऩे का भारत का नजरिया बेहद अस्पष्ट है। ‘मेक इन इंडिया’ को बदल कर ‘आत्मनिर्भर भारत’ कर दिया गया। देश में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने और भारत की आर्थिक क्षमता के विविधीकरण के प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए। उत्पादन से जुड़ी इन्सेंटिव स्कीम के कुछ फायदे हो सकते हैं। लेकिन भारत में तेज विकास की उम्मीद भरे दिन अब लद गए हैं। मोदी सरकार ने सत्ता में अमीर वर्ग के दखल को खत्म करने का वादा किया था, लेकिन हकीकत तो यही है कि आज भारत में पूंजी का केंद्रीकरण बढ़ गया है, बड़े पूंजीपतियों का पक्ष पहले से अधिक लिया जाता है।

जनकल्याण की बात करें तो सरकार को जल्दी ही इस बात का एहसास हो गया कि यूपीए की जिस मनरेगा स्कीम का उसने मजाक उड़ाया था, वह ज्यादातर गरीब भारतीयों के जीवन का एकमात्र सहारा है। सही मायने में देखा जाए तो इसी स्कीम की बदौलत महामारी के बाद हम मानवीय त्रासदी को टालने में कामयाब हुए। स्वच्छ भारत अभियान का श्रेय सरकार को दिया जाना चाहिए, जिसे इसने बड़े जोश के साथ लागू किया और उसे सामाजिक आंदोलन में बदलने की कोशिश की। इसके फायदे भी हुए। लेकिन ‘खुले में शौच से मुक्त भारत’ के लक्ष्य को 95 फीसदी हासिल करने का दावा करके सरकार ने अपनी सफलता पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया। इसने गैस, बिजली और घर का एक डिलीवरी मॉडल भी शुरू किया। इसमें केंद्र ने राज्यों की तर्ज पर प्रधानमंत्री के नाम पर वस्तु वितरण शुरू किया। ऐसी कुछ योजनाओं को थोड़ी सफलता भी मिली। उज्ज्वला स्कीम में 2020 तक आठ करोड़ गैस कनेक्शन दिए गए। सरकार को इसका कुछ फायदा चुनावों में जरूर मिला होगा। लेकिन अगर आप गैस के इस्तेमाल का आंकड़ा देखें तो योजना कोई खास प्रभावी नहीं लगती। सरकार ने निजी स्वास्थ्य बीमा को भी बढ़ावा दिया। दूसरी तरफ सरकार की तरफ से दी जाने वाली शिक्षा और स्वास्थ्य की अनदेखी की गई।

सिर्फ नीतियों के पैमाने पर इस सरकार को आंकने का मतलब सिस्टम के उस सर्वनाश को नजरअंदाज करना होगा, जो इन्होंने किया है। इन्होंने सिस्टम का जितना नाश किया, इनके शक्तिशाली होने की बात उतनी अधिक मुखर होती गई। हमारे जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलुओं, सत्य और पहचान को नियंत्रित करने में इनकी ताकत ज्यादा स्पष्ट दिखती है। सत्य पर इनके अधिकार को देखिए। अनेक विशेषज्ञ मानते हैं कि यह सरकार सूचना को पूरी तरह से नियंत्रित करती है। इसके लिए इसने धनबल, अंतरराष्ट्रीय सोशल मीडिया कंपनियों, चुनावों में अपारदर्शी फंडिंग और राज्य के अधिकारों का बेजा इस्तेमाल किया। उन्होंने जितना ज्यादा प्रचार, झूठ और लंबे-चौड़े दावों का सहारा लिया, वे उतने ज्यादा शक्तिशाली नजर आए। ऐसा नहीं कि सरकार के झूठ या बढ़ा-चढ़ा कर किए जाने वाले दावों को कोई समझ नहीं रहा था। भाजपा समर्थक भी तथ्यों के आधार पर तर्क करते समय इन बातों के प्रति सजग रहते हैं। ऐसा लगने लगा मानो झूठ बोलना ही सरकार का काम हो। सत्यनिष्ठा के लिए जरूरी है कि सत्ता उसे अपने से ऊपर समझे। लेकिन जब शक्ति दिखाना ही मकसद हो तो आप जितना झूठ बोलेंगे उतना अधिक शक्तिशाली नजर आएंगे।

दूसरी रणनीति पहचान पर अधिकार हासिल करने की थी। भाजपा का अपना मजबूत हिंदुत्व का एजेंडा है। इसका मकसद बहुसंख्यक हिंदू शक्ति को जतलाना और उसे नीतियों तथा कानूनों में समाहित करना था। यह बात भेदभाव वाले नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) में, अलग-अलग धर्म के युवक-युवती के बीच शादी के कानूनी अड़चन में, गोरक्षा के नाम पर बनने वाले कानूनों में स्पष्ट होती है। दूसरा मकसद नस्ली पहचान के रूप में हिंदुत्व को नए सिरे से परिभाषित करना है। इसमें हिंदुत्व की समृद्ध, आध्यात्मिक और बौद्धिक परंपरा की जगह हिंसा ने ले ली है। इसमें हिंदुत्व का इस्तेमाल शक्ति हासिल करने के औजार के रूप में किया जाता है। हिंदुत्व की इस नई पहचान को अस्वीकार करने वाला राष्ट्र विरोधी घोषित कर दिया जाता है। उसकी असहमति मात्र राष्ट्र के लिए खतरा बन जाती है। इन सबके लिए काल्पनिक खतरों का सृजन किया गया- अल्पसंख्यक, बौद्धिक, वामपंथी या वे हिंदू जो उनके हिंदुत्व की अवधारणा को चुनौती देने का साहस करते थे।

हमें नतीजों की चाह नहीं थी, हम आदेशों को लागू होते देखना चाहते थे। इसलिए जब सच्चाई या पहचान के ऊपर एकाधिकार थोपा जाने लगा तो हमें वह अटपटा नहीं लगा। इस तरह निष्ठुरता ने संस्थागत रूप ले लिया। सबसे पहले हत्याएं (लिंचिंग) शुरू हुईं। संख्या के लिहाज से यह भले महत्वपूर्ण न हो, लेकिन वे निष्ठुरता की बड़ी मिसाल थीं। हत्याएं करने वालों को कहीं सजा नहीं हो रही थी, बल्कि उन्हें आदर्श माना जा रहा था। इस तथ्य से लोगों में डर पैदा करने वाला संदेश गया। उसके बाद कश्मीर आया। यह सच है कि भारत सरकार, स्थानीय आतंकवादी और पाकिस्तान के मौजूदगी के बीच कश्मीर का हाल का इतिहास खून से सना और विश्वासघात का रहा है। अनुच्छेद 370 को बेमानी करने के मेरिट पर बहस की जा सकती है। लेकिन एक राज्य का दर्जा घटाकर केंद्र शासित प्रदेश कर देना, जिसके पीछे उसे अपमानित करने के सिवाय और कोई वजह न हो, गिरफ्तार व्यक्ति को कोर्ट में पेश करने का प्रावधान निलंबित करना, जिसकी वजह से देश की कोई भी अदालत लोगों को राहत न दे सकी, इंटरनेट पर सबसे लंबी पाबंदी... यह सब संकल्प और शक्ति प्रदर्शित करने के लिए किया गया।

इन तरीकों की जरूरत थी या नहीं, वह एक खुला प्रश्न है। ये तौर-तरीके मानो निष्ठुरता आजमाने के लिए अभ्यास की तरह थे। बाद में एक के बाद एक प्रदर्शनों पर इनका इस्तेमाल किया गया। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हम एक कदम और आगे निकल गए। वहां हमने ऐसी राजनीतिक संस्कृति रची जिसमें सत्ताधारी दल के लिए गुंडागर्दी करने वाले को सजा देने के बजाय पुरस्कृत किया जाता है। सूची लंबी है। महामारी जब शुरू हुई तब सीमित लॉकडाउन पर्याप्त हो सकता था। लेकिन जिस तरह लॉकडाउन लागू किया गया और उसका कहर प्रवासी मजदूरों को झेलना पड़ा, वह भी निष्ठुरता का एक उदाहरण है। आज अगर सरकार बेफिक्र और दंभी लगती है, तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यही इसका असली चरित्र है। और यह प्रक्रिया जारी है।

2019 के चुनावों तक प्रधानमंत्री पर अक्सर ‘‘ढोंगी’’ होने का आरोप लगता था, सभी के लिए मानो सब कुछ। उस आरोप में कुछ तो दम था, लेकिन ‘‘ढोंगी’’ होने में एक अजीब छुपी हुई स्वीकृति यह होती है कि उन्हें यह ख्याल रखना है कि दूसरों की नजर में वे कैसे हैं, उनको उन्हें धोखा देने की दरकार है। दिखावे की राजनीति में एक लोकतांत्रिक स्पर्श भी है। लेकिन बीते दो वर्षों में धीरे-धीरे क्या बदला है, वह देखिए। एक अभिमानी और सर्वशक्तिमान शख्स, जिसके हाथों में सभी अधिकार हैं, उसे अब ढोंग करने की भी आवश्यकता नहीं। यह अनायास नहीं कि महामारी के समय हमारे दुखों और शोक से व्यथित होने का ढोंग भी प्रधानमंत्री ने नहीं किया। वे अपनी शक्ति को नई ऊंचाई पर ले गए हैं। पहले वे आपको मूर्ख बनाने के लिए अधिकारों की मांग करते थे, अब जब उनके पास अधिकार आ गए हैं तो वे आपको मूर्ख बनाने की जहमत भी नहीं उठाते।

उनकी कार्यान्वयन क्षमता के क्या कहने। इसी प्रधानमंत्री ने ज्यादा सक्षम देश बनाने का वादा किया था। लेकिन सात वर्ष पहले की तुलना में भारत आज कई मायने में कम सक्षम नजर आ रहा है। यह सरकार राष्ट्र की सुरक्षा की बात हमेशा बढ़ा-चढ़ा कर करती है, जबकि इसके समय जीडीपी की तुलना में रक्षा पर खर्च कम हुआ है। वैक्सीन खरीद की ही बात लीजिए। जिस वैक्सीन की कमी की भारत बड़ी कीमत चुका रहा है, उसे खरीदने में सरकार ने अपने ही गोल पोस्ट में गोल दाग दिया। देश में सबको वैक्सीन लगाने का खर्च 60,000 करोड़ रुपये से अधिक नहीं होगा। यह खर्च वहन करने लायक है। वैक्सीन की खरीद कोई रॉकेट साइंस नहीं। लेकिन क्या सरकार को सचमुच परवाह नहीं थी? भारतीय अपवाद के बारे में क्या इसने अपने झूठ पर ही भरोसा कर लिया? क्या इसके पास नौकरशाही और तकनीकी दक्षता नहीं है? या फिर, इसने जानबूझ कर वह परिस्थिति आने दी जहां वैक्सीन की कमी है और उसे खरीदने के लिए सब आपस में प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।

कार्यान्वयन क्षमता की अलग कहानी है। भारत में क्षमता हमेशा असमान रही है। एक बात इस संकट ने साबित की है कि जरूरत पडऩे पर सरकारी कर्मचारी कितनी मेहनत करते हैं। लेकिन इस सरकार ने राज्य की क्षमता को जो नुकसान पहुंचाया है, वह जितना दिखता है, उससे कहीं अधिक घातक है। जब राज्य का उद्देश्य शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति की शक्ति को प्रदर्शित करना हो, तब राज्य की ऊर्जा भी छवि चमकाने में व्यर्थ होती है। सरकार के लिए काम करने वाले सबसे कुशल और कुशाग्र व्यक्ति भी अपनी स्वतंत्रता या दक्षता दिखाने का साहस नहीं कर पा रहे हैं। वर्ना क्या वजह है कि एस. जयशंकर जैसा बुद्धिमान और परिश्रमी व्यक्ति भी, जिन्हें महान के. सुब्रमण्यम का बौद्धिक वारिस कहा जाता है, महज लीपापोती के काम में लगा है।

अब उन्हें ढोंग करने की भी आवश्यकता नहीं। यह अनायास नहीं कि महामारी के समय हमारे दुखों और शोक से व्यथित होने का ढोंग भी प्रधानमंत्री ने नहीं किया। वे अपनी शक्ति को नई ऊंचाई पर ले गए हैं

इस कहानी का एक अभिप्राय है, और वह यह कि सत्ता का रहस्य किसी भी कीमत पर बरकरार रहना चाहिए। इसके लिए सबसे कुशल और कुशाग्र को निष्ठुरता की मशीन का एक पुर्जा बनाकर रख देने से अच्छा और क्या तरीका हो सकता है। कोई भी नौकरशाह या वैज्ञानिक या कोई और जिसके पास अपनी स्वतंत्र बुद्धि हो, उसे सत्ता के इस रहस्य को बनाए रखने में लगा दिया जाता है। उनका काम नियंत्रण एवं संतुलन का नहीं, बल्कि सत्ता की बेवकूफियों को बढ़ा चढ़ा कर पेश करने का है। सबकुछ नेतृत्व की सेवा में पेश करने के बाद राज्य कोई और सेवा करने के काबिल नहीं रह जाता है।

हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि महामारी से निपटने के सरकार के तरीके ने निष्ठुरता और अक्षमता की दुखद गाथा में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। हमने अक्षमता की परवाह नहीं की, क्योंकि सत्ता के दावे ज्यादा मायने रखते थे, नतीजे नहीं। देश में हाशिए पर पड़े लोग हमेशा हाशिए पर ही रहे। विशिष्ट वर्ग हमेशा एक कवच के भीतर रहा, उसके पास हमेशा बचने के तरीके थे। बीते सात वर्षों में हमने किसी बात की परवाह नहीं की। नियंत्रण और संतुलन का क्षरण, नागरिक अधिकारों का ह्रास, सिविल सोसायटी में सांप्रदायिक भेद, असमान आर्थिक प्रदर्शन, सीमा पर सुरक्षा के बिगड़ते हालात। फिर भी हमने हमेशा यही कहा, "वाह, क्या सरकार है!" लोगों की इसी सोच के कारण वे हर नाकामी के बाद भी बने रहने में कामयाब हुए।

हर विरोध प्रदर्शन, चाहे वह सीएए के खिलाफ हो या किसानों का प्रदर्शन, कमजोर होकर खत्म हो गया। क्योंकि उन्हें समाज के बड़े वर्ग का समर्थन नहीं मिला। विरोध प्रदर्शनों पर सख्ती ने सरकार को और मजबूती ही दी। लेकिन अब जब मौत हर दरवाजे पर दस्तक दे रही है, तो शायद हम नींद से जागें। हम महसूस करें कि इस सरकार ने एक राष्ट्र के रूप में हमारे साथ क्या किया है। सात वर्षों में इस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि इसने हमें संकीर्ण विचारों वाला राष्ट्र बना दिया जहां लोगों के दिलों में क्रोध भरा है। हम इसे विफलता कह सकते हैं, लेकिन मोदी सरकार इसी को अपनी सफलता गिनाएगी, क्योंकि वह अभी तक सफलतापूर्वक ऐसा करती आई है।

(लेखक राजनीतिक टीकाकार हैं, यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

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