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बॉलीवुड/इंटरव्यू/मनीष मुंद्रा: संवेदनशील फिल्म को दर्शक नहीं मिलते

फिल्मकार को प्रेरणा तो समाज से ही मिलती है। देश में पिछले कुछ वर्षों में बलात्कार की ऐसी कई वीभत्स घटनाएं हुईं, जिनके विषय में जानकर हृदय में पीड़ा उठी और यह ख्याल आया कि इस मुद्दे पर फिल्म बनानी चाहिए
मनीष मुंद्रा

मनीष मुंद्रा हिंदी सिनेमा जगत के बेहद संवेदनशील फिल्म निर्माता हैं। ग्लैमर की चकाचौंध से भरी फिल्मी दुनिया में उनकी निर्माण कंपनी दृश्यम फिल्म्स सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बनाने के लिए जानी जाती है। मसान, कड़वी हवा, रुख, न्यूटन, आंखों देखी, और रामप्रसाद की तेरहवीं जैसी कलात्मक फिल्मों से उन्होंने विशेष पहचान बनाई है। बलात्कार जैसे संवेदनशील विषय पर बनी फिल्म सिया से मनीष मुंद्रा बतौर निर्देशक अपनी शुरुआत करने जा रहे हैं, जो जल्द ही प्रदर्शित होने जा रही है। इस फिल्म और अपने सिनेमाई सफर के बारे में मनीष मुंद्रा ने गिरिधर झा से बातचीत की। संपादित अंश:

आपने बलात्कार जैसे मुद्दे पर बहुत ही हार्ड-हिटिंग फिल्म सिया बनाई है। क्या इसे बनाने का ख्याल हाथरस जैसी घटना से आया?

फिल्मकार को प्रेरणा तो समाज से ही मिलती है। देश में पिछले कुछ वर्षों में बलात्कार की ऐसी कई वीभत्स घटनाएं हुईं, जिनके विषय में जानकर हृदय में पीड़ा उठी और यह ख्याल आया कि इस मुद्दे पर फिल्म बनानी चाहिए। यूं तो कई बार रेप पर फिल्में बनी हैं मगर मेरी कोशिश थी कि मैं अपनी फिल्म में रेप विक्टिम और उसके परिवार के उस संघर्ष को दिखाऊं, जिसका उन्हें तब सामना करना पड़ता है, जब वे डरने, चुप रहने की बजाय न्याय के लिए लड़ाई लड़ने का फैसला करते हैं। उन्हें कितनी मुश्किलें आती हैं, क्या कीमत चुकानी पड़ती है?  इसी विचार के साथ मैंने अपनी टीम के साथ देश में पूर्व में घटित हुई रेप की छह घटनाओं का बारीकी से अध्ययन किया और उनका निचोड़ फिल्म सिया के रूप में दर्शकों के सामने है।

इस फिल्म को बनाने के पहले आपने किस तरह का रिसर्च किया?

हमने छह केस स्टडी ली और पाया कि सबमें एक तरह का पैटर्न था। हर केस में एक बाहुबली था, जिसके पास पावर है और जो अपनी सारी शक्ति उन्हें तबाह और बर्बाद करने में लगाता है जो न्याय की गुहार लगते हैं। रिसर्च के बाद जो हमें कॉमन एलिमेंट मिले, उसे हमने इकट्ठा करके कहानी का स्वरूप दिया। इसे हम किसी एक केस से नहीं जोड़ सकते हैं लेकिन अगर हम पांच-छह केस देखें तो हमें एक ही तरह का घटनाचक्र मिलेगा चाहे वह विक्टिम और उसके परिवार वालों को मारना या प्रताडि़त करना हो या उनके खिलाफ पुराने केस खोलकर उन्हें जेल में डालना हो। इन सबके बीच मेडिको-लीगल-पुलिस की भी मिलीभगत सामने आती है। अक्सर  मेडिकल और टेक्निकल कारणों से मामले को लंबित कर विक्टिम को हताश और प्रताडि़त किया जाता है। रेप केस की सुनवाई तो होती है, लेकिन उसे अंजाम तक पहुंचने में कई साल लग जाते हैं। 

फिल्म सिया का दृश्य

क्या आप फिल्म के माध्यम से यही संदेश देना चाहते हैं?

मेरी फिल्म का मुख्य संदेश यह है कि अपराध पर तब तक नियंत्रण पाना संभव नहीं है, जब तक हम समाज के रूप में एकजुट नहीं होते। जब तक हम अपने दायित्व से मुंह छिपाते रहेंगे, बलात्कार की क्रूर घटनाएं होती रहेंगी। मेरी फिल्म की कहानी में ऐसे कई अवसर नजर आते हैं, जब किसी पुलिस अधिकारी, किसी डॉक्टर की जागरूकता या पहल से बलात्कार की घटना पर रोक लगाई जा सकती थी। लेकिन किसी ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया और इसलिए एक जघन्य कृत्य को शह मिल गई। वे भले प्रत्यक्ष रूप से स्वयं आपराधिक कृत्य में शामिल नहीं थे लेकिन वे भी पार्टनर-इन-क्राइम बन गए। 

इस फिल्म से आप बतौर निर्देशक सामने आ रहे हैं? निर्देशक बनने का इरादा कब और क्यों आया?

निर्देशन का विचार तो मेरे जेहन में कई वर्षों से था मगर मुझे उचित अवसर की तलाश थी। फिल्म सिया के विचार को विकसित करने के लिए मैंने जिन लेखकों के साथ काम किया, उन्होंने संतोषजनक कहानी पेश नहीं की। तब मैंने खुद पटकथा लिखनी शुरू की और इस प्रक्रिया में मुझे लगा कि मुझे इस फिल्म का निर्देशन करना चाहिए।

फिल्म सिया का दृश्य

हाल में आपने कहा कि छोटी फिल्म दर्शकों तक नहीं पहुंच पाती क्योंकि उसमें बड़े स्टार नहीं होते। आपको ऐसा क्यों लगता है? 

फिल्मकार के नाते मैंने बहुत नजदीक से देखा कि हमारे देश में ग्लैमर फिल्में हर तरह से हावी हो गई हैं। छोटे बजट और नए कलाकारों को लेकर बनी संवेदनशील फिल्म को न तो दर्शक मिलते हैं और न उनका ठीक से प्रमोशन हो पाता है। राष्ट्रीय मीडिया, सोशल नेटवर्किंग साइट्स आदि पर छोटी फिल्में गुम ही रहती हैं। हम विदेशों में बनी कलात्मक फिल्मों का तो बड़े शौक से जिक्र करते हैं, लेकिन जब उसी किस्म की फिल्म अपने देश में बनती है तो उसे देखने के लिए थियेटर नहीं पहुंचते। फिर हमारी शिकायत रहती है कि हिंदी सिनेमा में अच्छी फिल्में नहीं बनाई जाती। हमें बदलाव करना है तो एकजुट होकर प्रयास करना पड़ेगा। सभी को एकसाथ आना होगा। तभी बदलाव आएगा। दर्शकों को भी जागरूक होकर सहयोग करना पड़ेगा। तभी नए फिल्मकार हिंदुस्तान की कहानियों को कहने का सामर्थ्य जुटा पाएंगे। आज नहीं तो कल वह समय आएगा। 

इतने साल इंडस्ट्री में काम करने के बाद आप बड़े स्टार के साथ भी काम कर सकते थे लेकिन आपने नए कलाकारों को ही क्यों चुना?

नए कलाकारों के साथ काम करना, मुझे हमेशा उत्साहित करता है। मैं कई बार इस बात को कह चुका हूं कि हमारी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में गिने चुने कलाकारों को ही फिल्में ऑफर होती हैं। हम नए चेहरों के साथ काम करने से परहेज करते हैं। इस कारण हमारी फिल्मों से ताजगी गायब हो गई है। दर्शक हर किस्म के किरदारों में एक ही शक्ल और सूरत को देखकर उकता गए हैं। यही कारण है कि आज बड़े बजट और स्टार कास्ट की फिल्में धराशाई हो रही हैं। मेरी फिल्म सिया में पूजा और विनीत कुमार ने जिस तरह से काम किया है, उस काम में एक ताजगी है, जो पूरी टीम को ऊर्जा देती है। मेरा अटूट विश्वास है कि यह ऊर्जा स्क्रीन पर दर्शक को भी जरूर महसूस होगी।

फिल्म सिया का दृश्य

फिल्मकार के रूप में अभी तक की अपनी यात्रा को कैसे देखते हैं?

मैं जब अपने सिनेमाई सफर को देखता हूं तो मुझे संतुष्टि मिलती है। इस संतुष्टि का कारण यह है कि मैं फिल्मों में जिस तरह का काम करना चाहता था, जो बात मुझे फिल्मों के माध्यम से कहनी थी, उसे बिना समझौते किए मैं कह पाया हूं और आज भी कह रहा हूं। तमाम प्रलोभन, भटकाव और संघर्ष के बावजूद मैं अच्छा सिनेमा बनाने के प्रति समर्पित हूं। यह मेरी सफलता है। मुझे खुशी है कि मैं दृश्यम फिल्म्स के माध्यम से ऐसी जगह स्थापित कर सका हूं, जो विश्वसनीय, संवेदनशील और सशक्त कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती है।

सिया के बाद आपकी क्या योजनाएं हैं?

सिया के रिलीज होने के बाद, अगले एक साल में मेरी दो फिल्में और रिलीज हो जाएंगी। साथ ही तीन फिल्मों का निर्माण कार्य किया जाएगा। देश में इन दिनों ऐसी कई घटनाएं हो रही हैं, जहां देखने में आ रहा है कि स्त्रियों को सिर्फ इसलिए जलाकर मार दिया जा रहा है, क्योंकि वह पुरुष के प्रेम को स्वीकार करने से इनकार कर रही हैं। इस क्रूरता को देखकर मन भयंकर पीड़ा और निराशा का अनुभव करता है। मैं इस विषय पर निकट भविष्य में जरूर एक सार्थक फिल्म बनाना चाहता

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