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गांधी, टैगोर और राष्ट्रवाद

भारत में राष्ट्रवाद ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विकसित हुए राष्ट्रीय आंदोलन के गर्भ से निकला
गांधी और टैगोर (फाइल)

नोबेल पुरस्कार से अलंकृत भारतीय अर्थशास्‍त्री अमर्त्य सेन को पिछले दिनों एक ही दिन में दो बार सुनने का मौका मिला। वे केवल शीर्षस्थ अर्थशास्‍त्री ही नहीं बल्कि संस्कृत के विद्वान, दार्शनिक और भाषाविद् भी हैं। उनके पितामह क्षितिमोहन सेन थे, जिन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर का कबीर से परिचय कराया था और जिनका आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पर गहरा प्रभाव था। अनेक विषयों पर विचार प्रकट करते हुए अमर्त्य सेन ने राष्ट्रवाद के बारे में रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी के विचारों का भी उल्लेख किया और कहा कि आज तो शायद उन्हें भी राष्ट्र विरोधी माना जाता क्योंकि अब तो यह स्थिति है कि सरकार की आलोचना को ही राजद्रोह और देशद्रोह माना जा रहा है।

समस्या यह है कि अब देश प्रेम, राष्ट्रवाद और राज्यवाद को एक ही समझा जाने लगा है। देश प्रेम का अर्थ है देश और देश वासियों से प्रेम। जब कालिदास ‘मेघदूत’ में भारत के विभिन्न स्थानों की प्राकृतिक सुषमा और वहां रहने वालों की जीवनशैली का वर्णन करते हैं, तो यह देश प्रेम है। राष्ट्र की अवधारणा तो यूरोपीय समाज के विकास क्रम में उभरी और वहां के राष्ट्रों में राज्य और राष्ट्र का आवयविक संबंध बना। वहां राज्य समाज का अंग था और यूरोपीय समाजों में उसे केंद्रीय स्थान प्राप्त था। इसके विपरीत प्राचीन समय से ही भारत में समाज धर्म के अनुसार चलता था, राज्य का उस पर नियंत्रण बेहद कम था। टैगोर के समय में भारत पर जिस राज्य के सहारे ब्रिटेन का शासन चलता था, वह भारतीय जनता पर थोपा हुआ राज्य था।

भारत में राष्ट्रवाद ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विकसित हुए राष्ट्रीय आंदोलन के गर्भ से निकला। रवीन्द्रनाथ टैगोर प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान देख चुके थे कि किस प्रकार यूरोपीय देशों के परस्पर विरोधी राष्ट्रवाद के कारण भीषण तबाही मची थी। उन्हें ऐसे राष्ट्रवाद से परहेज था जिसका लक्ष्य केवल राजसत्ता की प्राप्ति हो क्योंकि वह समाज के ऊपर राज्य की सत्ता के विरुद्ध थे। राष्ट्रवाद की सीमाओं के बारे में उनका महात्मा गांधी के साथ विवाद भी हुआ क्योंकि जहां कवि टैगोर आत्मशक्ति की बात कर रहे थे, वहीं राजनीतिक नेता महात्मा गांधी को व्यावहारिक नीतियों का पक्ष लेना पड़ रहा था, हालांकि दोनों के बीच कुछ बिंदुओं पर मत-साम्य भी था।

भविष्य दृष्टा टैगोर ने तभी इस सत्य के दर्शन कर लिए थे कि जो राज्य समाज की विकास प्रक्रिया के भीतर से न उपजा हो, उसके नीचे केवल परतंत्रता ही पनप सकती है और यदि अंग्रेज शासकों की जगह भारतीय शासक ले लें, तब भी स्थिति बदलने वाली नहीं। 29 अगस्त, 1921 के दिन ‘सत्य का आह्वान’ शीर्षक से दिए एक व्याख्यान में उन्होंने कहा, “भारत में अंग्रेजों का आविर्भाव एक ऐसी सत्ता है जिसके कितने ही रूप हो सकते हैं। आज वह अंग्रेज की मूर्ति धारण कर रही है; कल किसी अन्य विदेशी का रूप और परसों स्वयं भारतवासी का निदारुण रूप उसमें देखा जा सकता है। यदि इस परतंत्रता का हम तीर-कमान हाथ में लेकर पीछा करें, तो अपने आवरण बदल-बदल कर वह हमें थका देगी। लेकिन जब हम देश के अस्तित्व को ही सत्य समझें और उसे प्राप्त करें तो बाहर की माया अपने-आप दूर होगी।”

महात्मा गांधी ने भी देश प्रेम को मानवता के समतुल्य माना था और कहा था कि देश प्रेम में मानवता की सेवा निहित है। उनका कहना था कि उन्हें उम्मीद है कि भारत की स्वाधीनता प्राप्ति के जरिए वे मनुष्य के भ्रातृत्व का मिशन आगे बढ़ाने और उसे साकार करने में सफल होंगे। महात्मा गांधी के विचार में “आधुनिक राष्ट्रों की संकीर्णता, स्वार्थपरता और गैर-समावेशी चरित्र ही उनका अभिशाप है, शैतानियत है।” लेकिन इन दो महान विचारकों के विचार केवल विचार ही रह गए क्योंकि पूरी तरह से अपने अंतिम स्वरूप को प्राप्त करने से पहले ही भारतीय राष्ट्रवाद हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता के उभार के कारण खंडित हो गया और विश्व बंधुत्व का लक्ष्य धरा का धरा रह गया।

भारतीय समाज में आधुनिक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में प्रविष्ट हुई और इसके साथ राष्ट्रवाद की यूरोपीय विचारधारा जुड़ी हुई थी। भारत और उस जैसे अनेक अन्य देशों के राष्ट्रवादी नेता इस बात पर सहमत थे कि समुचित राष्ट्रवादी भावनाओं और राष्ट्र-राज्य का अभाव भारतीय समाज की बहुत बड़ी कमियां हैं और इनसे उसके पिछड़ेपन का पता चलता है। प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक और चिंतक आशीष नंदी का कहना है कि गांधी और टैगोर दोनों के लिए ही भारतीय स्वाधीनता आंदोलन केवल राष्ट्रवादी सुदृढ़ीकरण की अभिव्यक्ति नहीं रह गया था, बल्कि राजनीतिक न्याय और सांस्कृतिक गरिमा के लिए सार्वभौमिक संघर्ष का प्रतीक बन गया था। दोनों की ही कोशिश थी कि राष्ट्र-राज्य भारतीय समाज और सभ्यता पर हावी न हो जाए और उसका संगठन करने वाला तत्व न बन सके। उनका देश प्रेम राष्ट्रवाद की तुलना में सर्व-समावेशी था और उनमें राष्ट्रवाद की आलोचना भी निहित थी।

आज फिर से इस बात की जरूरत है कि देश प्रेम, राष्ट्रवाद और राजद्रोह में अंतर किया जाए। राष्ट्रवाद अक्सर दो राष्ट्रों के राष्ट्रवाद के बीच का संघर्ष बन जाता है और नागरिकों के देश प्रेम का आकलन राज्य के प्रति उनकी भक्ति के आधार पर या शत्रु राष्ट्र के प्रति द्वेष और घृणा के आधार पर किया जाने लगता है। ये दोनों ही मिथ्या कसौटियां हैं।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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