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आवरण कथा/नजरिया: झारखंड को बंजर बनाती आग

झरिया में तो शायद बहुत देर हो चुकी, लेकिन अन्य जगहों पर जल्द आग नियंत्रित करने के उपायों की जरूरत
झरिया की आग के 105 साल पूरे होने पर लड़कियों ने वहां अग्नि वंदना की ताकि प्रशासन का ध्यान आकृष्ट हो

झरिया पूरे भारत को ऊर्जा देने का प्रमुख केंद्र है, लेकिन झरिया की यही खासियत इसके लिए अब अभिशाप बन गई है। यहां की भूमित खदानों में पिछले सौ वर्षों से लगी आग ने इस शहर के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। यदि हम यह कल्पना करें कि किसी शहर को पृथ्वी से निकलती आग कैसे लील रही है, तो वह शहर है झरिया। लग रहा है इस शहर को निर्जन होने में ज्यादा देर नहीं है।झरिया के नीचे उच्च गुणवत्ता का कोयला मौजूद है, जिसमें साल 1916 से आग लगी हुई है। अनुमान है कि अब तक लगभग छह करोड़ टन कोयला जल चुका है। यहां 23 भूमिगत और नौ खुली खदानें हैं। यहां 18 वर्ग किलोमीटर में 20 जगहों पर आग लगी हुई है, जो धरती से 40 मीटर नीचे है।

झारखंड में झरिया ही नहीं, बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी भूमिगत आग ने खतरा पैदा कर दिया है। बोकारो स्थित सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड की कल्याणी परियोजना के चार से पांच स्थलों पर भूमिगत आग से गोमो-बरकाकाना रेलमार्ग और बेरमों-चंद्रपुरा-धनबाद राट्रीय राजमार्ग को खतरा पैदा हो गया है। धनबाद जिले में एक अन्य खदान में आग बासजोरा रेल मार्ग के लिए खतरा है। भूमिगत आग रांची-पटना राष्ट्रीय राजमार्ग के लिए भी खतरनाक है, जिसे रामगढ़ प्रशासन ने 7 अगस्त 2009 से सभी वाहनों के लिए बंद कर दिया है। आग करीब 750 वर्ग मीटर के दायरे में फैल चुकी है।

वैसे तो झारखंड के दूसरे क्षेत्रों में भी कोयले की खुली खानों में आग लगी हुई है लेकिन यह खतरनाक स्तर तक नहीं पहुंची है। अगर देखा जाए तो झारखंड के सभी कोयला क्षेत्र में आग लगी हुई है। फर्क सिर्फ इतना है कि कहीं ज्यादा है तो कहीं कम। आग की वजह से प्रभावित क्षेत्रों में जमीन धंसने का खतरा बढ़ रहा है। कई जगहों पर जमीन एवं मकानों में दरार आने लगी है। प्रभावित क्षेत्रों में हल्के भूकंप के झटके भी आते रहते हैं।

झारखंड में यह आग क्यों लगी, इस पर मतभेद है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यहां आग स्वत: लगी एवं कुछ के अनुसार यहां मौजूद ‘वन तुलसी’ नामक झाड़ी के कारण आग लगी। जब तक कोयला ऑक्सीजन एवं आद्रता के संपर्क में नहीं आता, आग लगने की आशंका कम होती है। कोयला कार्बनिक पदार्थ है। जब यह ऑक्सीजन के संपर्क में आता है तो कोयला ऑक्सीजन सोखता है, जिससे तापमान में वृदि्ध होती है। यदि कोयले की खदानों में वेंटिलेशन ठीक से काम नहीं कर रहा हो तो कोयला ज्यादा ऑक्सीजन सोखेगा। इससे तापमान में उतनी ही वृदि्ध होगी। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कोयले में आग नहीं लग जाती। कोयले में आग लगने का यह एक प्रमुख कारण है। अन्य कारण हैं जंगल में आग लगना, आसमान से बिजली गिरना आदि। पृथ्वी के भीतर भूगर्भीय हलचल की वजह से भी भूमिगत खदानों में तापमान में अचानक वृदि्ध होती है जिससे आग लग जाती है। कभी-कभी लोग जलती हुई सिगरेट, बीड़ी आदि छोड़ देते हैं जिससे सूखे घास में आग लग जाती है जो धीरे-धीरे कोयले के संपर्क में आ जाती है।

 

वातावरण पर प्रभाव

कोयले में लगी आग से फैल रहा प्रदूषण वायु, जल, धरती एवं स्वास्थ्य को एकसाथ प्रभावित करता है। इस आग से जहरीली गैसें निकल रही हैं, जो उस इलाके की 10 से 15 लाख की आबादी के लिए खतरनाक है। इन जहरीली गैसों में प्रमुख हैं नाइट्रोजन, सल्फर एवं कार्बन डाय ऑक्साइड एवं कार्बन मोनो ऑक्साइड। यही नहीं, इस आग की वजह से भूमिगत जल के अम्लीय होने का खतरा हुआ है। गैस के साथ जो महीन कण वातावरण में मौजूद हैं, उनसे लोगों में फेफड़े एवं चर्म रोग के बढ़ने का खतरा बढ़ गया है। उपग्रह से लिए गए चित्रों में भी प्रभावित क्षेत्रों के ऊपर हमेशा एक धुंध सा दिखता है जो खतरनाक संकेत है।

कोयले में मौजूद विषैले धातु जैसे सीसा, आर्सनिक, क्रोमियम, कोबाल्ट आदि कोयले की राख के साथ उड़कर वातावरण में आते हैं तथा उस क्षेत्र की मिट्टी, पानी एवं हवा को जहरीला बनाते हैं। आग की वजह से धरती के तापमान में वृदि्ध होती है जिसके फलस्वरूप सतही जल का वाष्पीकरण होता है। पेड़-पौधे जलते हैं सो अलग। यदि आग को बढ़ने से नहीं रोका गया तो झारखंड के कई क्षेत्र बंजर हो जाएंगे।

कैसे करें इस आग पर काबू

वैसे तो झरिया शहर में आग बुझाने के लिए काफी देर हो चुकी है, क्योंकि अब कई जगह जमीन धंसने लगी है। मकानों में खतरनाक रूप से दरारें पैदा हो रही हैं एवं कभी भी कोई भयानक त्रासदी हो सकती है। यदि पांच रिक्टर पैमाने का भूकंप आ गया तो स्थिति और बिगड़ जाएंगी। यदि हम कुछ प्रयास आज भी शुरू करते हैं तो शायद बाकी क्षेत्रों को बचाने की कुछ आस बंध सकती है। पहली बात यह है कि आग लगते ही इसे रोकने के प्रयास किए जाएं। दूसरा उपाय है धरती में छेद कर अक्रिय (इनर्ट) गैसों को भीतर डालना। दीवारें बनाना ताकि आग आगे न फैले। आजकल सीमेंट, चूना एवं सोडियम सिलिकेट का घोल काफी कारगर साबित हो रहा है। प्रभावित क्षेत्रों में बालू भरना चाहिए।

जिन खानों से कोयला निकाला जा चुका है उन्हें पूरी तरह बंद करवा देना चाहिए क्योंकि वे ज्यादा खतरनाक होते हैं। गांव के लोग जब इस क्षेत्र से कोयला निकालते हैं तो हमेशा जलती हुई बीड़ी, सिगरेट आदि वहां छोड़ देते हैं जिससे कोयले में आग लग जाती है। कोयले पर चूने का लेप लगाने से यह ऑक्सीजन के संपर्क में नहीं आ पाती। यह तरीका भी फलदायी हो सकता है। इन उपायों को तत्काल लागू करने की जरूरत है वर्ना आधा झारखंड आग की भेंट चढ़ जाएगा।

नीतीश प्रियदर्शी

(लेखक पर्यावरणविद् और रांची विश्वविद्यालय के भूगर्भ विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं)

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