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किसान आंदोलन: हक लेने का हौसला

प्रतिकूल मौसम, साथियों की मौतें भी किसानों के हौसले पस्त करने में नाकाम, किसानों की एकता ने गाढ़ी की सरकार की चिंता
7 दिसंबर को कुंडली-मानेसर बॉर्डर पर किसान ट्रैक्टर रैली

हाड़ कंपाती ठंड और कई दिनों की बारिश के बीच राजधानी दिल्ली की सीमा पर हर ओर तकरीबन पांच-छह मोर्चे पर डटे किसान आंदोलन को लगातार तेज करते जा रहे हैं। सरकार बातचीत के तकरीबन आठ दौर संपन्न होने के बाद भी किसानों को नए कृषि कानूनों के पक्ष या कुछ संशोधन पर मनाने में नाकाम रही। किसान सितंबर 2019 में पारित हुए तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को खारिज करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी स्वरूप देने पर अड़े हैं। इन दो प्रमुख मांगों को लेकर किसान संगठनों की 4 जनवरी को केंद्रीय मंत्रियों के साथ हुई आठवें दौर की बेनतीजा बातचीत से संकेत है कि सरकार इन दोनों मांगों पर हां कहने को तैयार नहीं है। बातचीत जारी है क्योंकि कोई भी पक्ष यह नहीं चाहता कि उस पर पीछे हटने की तोहमत लगे। लेकिन सरकार के रवैए और किसानों के कड़े होते तेवर से टकराव के आसार बन रहे हैं।

उधर, सरकार के लिए यह सिर्फ नाक का सवाल ही नहीं है, बल्कि ऐसा लगता है कि वह देश के मात्र 6 फीसदी किसानों से गेहूं, धान, दलहन और तिलहन की एमएसपी पर खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली से भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) पर सालाना डेढ़ लाख करोड़ रुपये से अधिक के बोझ को हल्का करना चाहती है। इसलिए सरकार की योजना कृषि व्यापार में कॉरपोरेट का हस्तक्षेप बढ़ाकर इस क्षेत्र से भी पल्ला झाड़ने की लगती है। कृषि कानून बनाने वाली टीम में हिस्सा रहे एक कृषि अर्थशास्त्री नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहते हैं, “सरकार का एजेंडा चरणबद्ध तरीके से एमएसपी पर सरकारी खरीद को खत्म करने की है इसलिए कृषि कानून में किसानों के लिए खुला बाजार बढ़ाने पर जोर दिया गया है।” उनका कहना है कि केंद्रीय पूल में एफसीआइ के पास गेहूं और चावल का स्टॉक जरूरत से करीब साढ़े तीन गुना अधिक है। 250 लाख टन जरूरी बफर स्टॉक की तुलना में 700 लाख टन गेहूं और चावल एफसीआइ गोदामों में है। ऐसे में एमएसपी न देने और अनाज न खरीदने का दबाव साल दर साल बढ़ता जा रहा है।

हिसार में भाजपा विधायक सुनीता दुग्गल के घर के सामने किसानों का प्रदर्शन

हिसार में भाजपा विधायक सुनीता दुग्गल के घर के सामने किसानों का प्रदर्शन

30 दिसंबर की बैठक में सरकार ने किसान संगठनों की दो छोटी मांगों को मान लिया। पहली, पराली जलाने पर किसानों पर कोई केस दर्ज नहीं होगा। पहले पराली जलाने पर 5 साल तक की जेल और 1 करोड़ रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान था। दूसरे, कृषि क्षेत्र में बिजली सब्सिडी को लेकर सरकार कानून नहीं बनाएगी। सरकार 2003 के बिजली कानून को संशोधित कर नया कानून लाने की तैयारी कर रही थी, जिसके मसौदे में किसानों को मुफ्त बिजली या बिजली पर मिलने वाली सब्सिडी खत्म करने जैसे प्रावधान हैं। इन दो मांगों को बहुत मामूली बताते हुए स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव का कहना है कि जब तक तीनों कृषि कानून रद्द नहीं किए जाते और एमएसपी की कानूनी गारंटी नहीं होती तब तक किसानों के हित दांव पर हैं। यादव ने कहा, “सरकार कृषि कानूनों को नाक का सवाल बनाकर हठधर्मिता दिखा रही है और लोकतंत्र को झुकाने की जिद पर अड़ी है। यह संवैधानिक अधिकार पर चोट करने की हठ है जिसने उसे सत्ता के सिहांसन पर बैठाया है।” आउटलुक से बातचीत में भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के अध्यक्ष बलबीर सिंह राजेवाल ने कहा, “तीनों कृषि कानूनों के रद्द होने और एमएसपी पर कानून बनाने की मांग पूरी होने तक आंदोलन खत्म नहीं होगा।” किसान संघर्ष समन्वय समिति के मुताबिक देशभर में आंदोलन और अधिक व्यापक रूप लेगा। दिल्ली की सीमाओं पर लगे मोर्चों से किसान 26 जनवरी को दिल्ली में घुसकर किसान गणतंत्र परेड निकालेंगे। 6 से 20 जनवरी तक देश जागृति पखवाड़ा मनाया जाएगा। 13 और 14 जनवरी को लोहड़ी और संक्राति के दिन देशभर में किसान संकल्प दिवस है और उस दिन तीनों कानूनों को जलाने की योजना है। 18 जनवरी को महिला किसान दिवस और 23 जनवरी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्म दिवस को आजाद हिंद किसान दिवस के रूप में मनाकर सभी राजधानियों में राजभवनों का घेराव होगा।

किसान करीब डेढ़ महीने से कड़ाके की ठंड और बरसात में दिल्ली की सीमाओं पर टेंट-ट्रॉलियों में मौत से जूझ रहे हैं। इन 45 दिनों में 60 से अधिक किसान अपनी जान गंवा चुके हैं और कई मोर्चा स्थल पर खुदकशी कर चुके हैं। 4 जनवरी की बातचीत के दौरान इन शहीदों को श्रद्घांजलि देने के लिए किसान दो मिनट मौन में खड़े हो गए, तो सरकारी पक्ष को भी ऐसा करना पड़ा। लेकिन सरकार की ओर से कोई औपचारिक बयान नहीं आया। इसके बदले आंदोलन को कमजोर करने के लिए खालिस्तानी, अलगावादी, अर्बन नक्सल और वामपंथियों की शिरकत जैसे आरोप उछाले गए। यही नहीं, सियासी ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ने की भी कोशिशें हुईं। सरकार को शायद यह भी लग रहा है कि कानून खारिज करने से विपक्ष की जीत होगी और उसका एजेंडा सफल होगा। इसके संकेत उन आरोपों में भी मिलते हैं कि विपक्ष किसानों को भ्रमित कर रहा है और उनके कंधे पर बंदूक रखकर चला रहा है।

नए कृषि कानून के विरोध में एकजुटता

नए कृषि कानून के विरोध में एकजुटता

गृह मंत्री अमित शाह, कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर, रेल तथा उद्योग-वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल और पंजाब का प्रतिनिधित्व कर रहे उद्योग और वाणिज्य राज्यमंत्री सोमप्रकाश से वार्ताओं के कई असफल दौर के बाद किसानों का सरकार पर भरोसा कमजोर पड़ता जा रहा है। आठ दौर की लंबी वार्ताओं में सरकार किसान संगठनों की न कमजोर कड़ी पहचान पाई, न उसे तोड़ पाई। दरअसल व्यवस्थित, अनुशासित और संतुलित 40 से अधिक किसान संगठनों की बागडोर किसी एक बड़े किसान नेता के हाथ में नहीं है, जिसे सरकार साध ले। फिर इन 40 संगठनों से देश भर के करीब 500 किसान संगठनों के जुड़े होने का दावा संयुक्त किसान संघर्ष समिति करती है। इसी की अगुआई में टिके अभी तक के आंदोलन ने उन तमाम संभावनाओं को धराशायी कर दिया, जिसकी उम्मीद सरकारी तंत्र को थी। उसने कुछ छोटे-मोटे संगठनों और कुछ व्यक्तिगत किसानों से बातचीत का दावा किया, जो कानून के पक्ष में हैं। लेकिन आंदोलनरत किसान नेताओं का कहना है कि इनमें ज्यादातर बीज, खाद कंपनियों और एफपीओ के प्रतिनिधि हैं। सरकार के साथ बैठक में किसान नेताओं ने इनके नाम-पते जाहिर करने की भी मांग की।

संकल्प और अनुशासन

यूं तो किसानों के संकल्प और अनुशासन को सभी मोर्चों और यूनियनों में देखा जा सकता है, लेकिन पंजाब में किसानों के सबसे बड़े संगठन भारतीय किसान यूनियन (उग्राहां) के टिकरी मोर्चे का अनुशासन और महिलाओं की भागीदारी देखते ही बनती है। उसके नेता जोगिंदर सिंह उग्राहां और महिला शाखा की अध्यक्ष हरिंदर कौर बिंदु भी अपने अलग विचारों के लिए जाने जाते हैं। उग्राहां यूनियन का पंजाब के मालवा क्षेत्र के 14 जिलों में व्यापक जनाधार है। इस संगठन से उन हजारों किसानों की विधवाएं और परिवार जुड़े हैं, जो कर्ज के बोझ से परेशान होकर आत्महत्याएं कर चुके हैं। टिकरी बॉर्डर पर यही संगठन सबसे ज्यादा सक्रिय है और इस संगठन का मंच बाकी के संयुक्त संगठनों से अलग लगा हुआ है। उग्राहां वही संगठन है जिसके मंच पर दिल्ली दंगों के आरोपियों के पोस्टर दिखे तो कुछ टीवी चैनलों ने इसे शाहीनबाग की तर्ज पर अलगाववादी आंदोलन का रंग देने की कोशिश की। लेकिन उग्राहां का कहना है कि बिना आरोप-पत्र गिरफ्तार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को रिहा करने की मांग तो किसानों के 24 सूत्री मांग-पत्र में शामिल है और यह घटना मानवाधिकार दिवस की है। अनुशासन और जज्बा सभी मोर्चों सिंघू, गाजीपुर, पलवल, ढांसा, शाहजहांपुर बॉर्डर में समान रूप से दिखता है।

विकट मौसम में भी डटे हुए हैं किसान

विकट मौसम में भी डटे हुए हैं किसान

बीकेयू की हरियाणा इकाई के अध्यक्ष गुरनाम चढ़ूनी का कहना है कि किसान आंदोलन की दो सबसे बड़ी मांगों- तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने और एमएसपी की लिखित कानूनी गारंटी को सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया है। नए कानूनों में संशोधन के प्रस्ताव से कोई फायदा नहीं है। किसानों के खिलाफ अंग्रेजों के काले कानूनों के विरोध में शहीदे आजम भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह द्वारा छेड़े गए आंदोलन के दौरान 3 मार्च 1907 को लायलपुर (पाकिस्तान) की एक बड़ी रैली में गूंजे गीत, ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ से पूरे आंदोलन का नाम ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ पड़ा। 113 बरस बाद यही गीत फिर से इन तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन में गूंज रहा है। किसानों ने अपनी पगड़ी इस मुद्दे पर संभाली हुई है कि जब तक कानून पूरी तरह से रद्द नहीं होंगे तब तक किसान अपना आंदोलन वापस नहीं लेंगे।

किसान संगठनों का कहना है कि अगर सरकार को लग रहा है कि किसी मेले में आए किसान थक-हार कर अपने घरों को लौट जाएंगे, तो यह उसका भ्रम है क्योंकि किसानों का जज्बा जुनूनी है।  किसान “थक कर नहीं, हक ले के जाएंगे।” पोह (पोष) का महीना गुरु तेग बहादुर की शहादत और दसवें पातशाही गुरुगोबिंद सिंह जी की मां गुजरी और उनके चार साहिबजादों की शहादत का महीना है, जो आज भी सिखों में हकों के लिए शहादत और जज्बे का संचार करता है। दिल्ली की सीमाओं पर लगे मोर्चों पर किसान परिवार गुरु पर्व और साहिबजादों के शहीदी दिवस को जज्बे के साथ मनाने के पक्के हैं। ‘जो बोले सो निहाल’ के गूंजते नारों के बीच पंजाबी लोकगायक भी किसानों के साथ दिन-रात डटे हैं। मंचों पर लोकगायक शहीदे आजम भगत सिंह, ऊधम सिंह, सुभाष चंद्र बोस की गाथाओं से आंदोलन को दिनों-दिन और मजबूत कर रहे हैं। पहले दिन से सिंघु और टिकरी बॉडर्र पर किसानों के साथ डटे पंजाबी लोकगायक कंवर ग्रेवाल ने मौक पर कई गीत रचे, जिनमें एक गीत बार-बार दोहराया जा रहा है। 

उठके जो बैठकां चौं,धरने ते आए नें,साडे नाल खड़े भवें ए मरने ते आए ने,

हो गइयां बुर्ज ठंडे, ए दिल्ली दियां सड़कां,उतों वेख मौसमां दे हाल नौंजवानिए

नी रखी बेबे-बापू दा ख्याल, औ मेरे प्यारयो रखी बेबे-बापू दा ख्याल

रोटियां पकोंदीं बेबे, औ अंखा विच उम्मीद है

ऐदे दाल फुलके दा सच्ची रब वी मुरीद है

वरीया ए अन्न सारे जग नू छकान वाला, कानू करे भूख हड़ताल

नी रखी बेबे-बापू दा ख्याल, नौंजवानिए।

 

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भाजपा-जजपा पर भारी किसान आंदोलन

हरियाणा में किसान आंदोलन भाजपा-जननायक जनता पार्टी (जजपा) गठबंधन सरकार पर भारी पड़ा है। दिसंबर में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में 7 में से 5 शहरों के निकायों में गठबंधन सरकार का सफाया हो गया। बाजी निर्दलीयों के हाथों में रही और सत्तारूढ़ दलों को हार का सामना करना पड़ा। आंदोलनरत किसानों के प्रति सहानुभूति के माहौल ने प्रदेश में भाजपा-जजपा का माहौल बिगाड़ दिया है। सरकार ग्राम पंचायतों के चुनाव अगले दो महीने तक टालने की तैयारी में है। किसानों का मसला नहीं सुलझा, तो पंचायत चुनाव पर भी असर दिख सकता है। ग्रामीण इलाकों में पैठ रखने वाली जजपा के लिए किसानों की नाराजगी, खतरे की घंटी साबित हो सकती है। दो साल पहले हुए पांच नगर निगमों-यमुनानगर, करनाल, रोहतक, हिसार और कुरुक्षेत्र में भाजपा ने क्लीन स्वीप किया था। नवंबर के पहले सप्ताह में हुए बरोदा‌ विधानसभा उपचुनाव में हार के बाद भाजपा-जजपा गठबंधन के लिए सात शहरी निकायों में पांच पर हार एक बड़ा सबक है जबकि गठबंधन सरकार के कार्यकाल में अभी चार साल बाकी हैं।

नगरपालिकाओं में कांग्रेस के उम्मीदवार पार्टी चुनाव चिन्ह पर नहीं लड़े, जिसका खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ा। कांग्रेस, भाजपा-जजपा गठबंधन की जगह लोगों ने ज्यादा निर्दलीयों को चुना। किसान आंदोलन के समर्थन में खुलकर आगे आई कांग्रेस भी सोनीपत का मेयर पद पाने तक ही सिमट कर रह गईं है। पूर्व मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा के लोकसभा क्षेत्र रहे सोनीपत में कांग्रेस के मेयर पद पर हुड्डा के करीबी निखिल मदान की भाजपा उम्मीदवार ललित बत्रा पर 13 हजार से अधिक मतों की जीत ने हुड्डा गुट को कांग्रेस की सियासत में और सशक्त किया है।

हरियाणा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुमारी सैलजा के संसदीय क्षेत्र अंबाला और पंचकूला में पार्टी चौथे नंबर पर रही। यहां कांग्रेस के पूर्व विधायक एवं मंत्री विनोद शर्मा की हरियाणा जनचेतना पार्टी से उनकी पत्नी शक्ति रानी की मेयर पद पर जीत ने विनोद शर्मा के धूमिल राजनीतिक भविष्य में आशा की किरण जगाई है। भाजपा-जजपा की हार पर हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर की सफाई है कि गठबंधन सरकार का मत प्रतिशत बढ़ा है और सबसे ज्यादा 36 पार्षद गठबंधन के जीते हैं जबकि कांग्रेस के 13 पार्षद जीते हैं।

तीन नगरपालिकाओं के चेयरमैन पद पर निर्दलीयों ने कब्जा किया। इनमें दो पर जजपा और एक पर भाजपा ने गठबंधन में अपने चुनाव चिन्ह पर प्रत्याशी उतारे थे। पंचकूला में भाजपा के कुलभूषण गोयल कांग्रेस की उपिंद्रजीत कौर वालिया से मेयर पद छीनने में कामयाब रहे। अंबाला में भाजपा को मेयर पद जनचेतना पार्टी की शक्ति शर्मा के हाथों गंवाना पड़ा। राजनीतिक विश्लेषक किसान आंदोलन को भाजपा-जजपा गठबंधन हार की प्रमुख वजह बता रहे हैं। जहां चुनाव थे, वहीं आंदोलन का असर ज्यादा है।

हरीश मानव

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भुगतान को दर-दर भटक रहे किसान

भोपाल में नए कृषि कानून का विरोध करते किसान

मध्य प्रदेश में जबलपुर में निजी खरीद केंद्र बनाकर किसानों से धान खरीदी मामले में किसानों को भुगतान नहीं मिला है। शिकायत के बाद मामला दर्ज हुआ लेकिन किसानों को अभी भी उपज की कीमत नहीं मिली। प्रदेश भर में इस तरह के कई मामले आ रहे हैं। मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री कमल पटेल को सार्वजनिक रूप से बयान जारी करना पड़ा कि किसान व्यापारियों से एडवांस लेकर उपज बेचें। पटेल ने किसानों से अपील की कि अपनी उपज व्यापारियों को देने के पहले किसान अपने खाते में एडवांस राशि जमा कराएं।

यही नहीं, निजी खरीद केंद्र खुल जाने से मंडियों की स्थिति खराब होती जा रही है। मध्य प्रदेश की 47 मंडियों में आवक शून्य हो गई है। इसमें इंदौर, उज्जैन, ग्वालियर, सागर और रीवा संभाग की मंडिया शामिल हैं। बड़ी मंडियों की स्थिति भी लगातार खराब हो रही है। प्रदेश की सबसे बड़ी मंडी इंदौर में अनाज की आवक पचास फीसदी तक कम हो गई है। नवंबर महीने के आंकड़ों के अनुसार सभी संभागों की मंडियों की आवक में 23-65 फीसदी तक गिरावट आई है, क्योंकि मंडी में फसल बेचने पर किसानों को 0.50 फीसदी का मंडी शुल्क देना पड़ता है। पहले यह शुल्क 1.50 फीसदी था। हाल में केवल तीन माह के लिए यह शुल्क कम किया गया है। इसके अलावा बड़ी संख्या में निजी खरीद केंद्र खुल गए हैं, जहां किसानों को मंडियों से 50 रुपये तक अधिक कीमत दी जाती है। संभावना है कि रबी सीजन की आवक तक प्रदेश की बड़ी मंडियों में नाममात्र की आवक होगी। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार जानबूझ कर मंडियों को खत्म करने का षड्यंत्र कर रही है। जब बाहर बेचने पर कोई शुल्क नहीं है, तो मंडी में शुल्क की क्या आवश्यकता है।  

सरकार यह भी भ्रम फैला रही है कि नए कानून के बाद किसान मंडी के बाहर भी अपनी फसल बेच सकेगा। ऐसा पहले भी होता रहा है। नए कानून से पहले ही मध्य प्रदेश में लगभग 5000 निजी खरीद केंद्र थे। मंडी बोर्ड की ओर से उनको  खरीदी का लाइसेंस जारी किया जाता था। इसमें आइटीसी सरीखी कंपनियां भी शामिल हैं। नए कानून में यह प्रावधान खत्म कर दिया गया है। मंडी समिति के एक अधिकारी कहते हैं, नए कानूनों में बदलाव की आवश्यकता है। अभी कोई भी कहीं भी केंद्र खोलकर खरीदी शुरू कर देता है। भुगतान न होने की स्थिति में किसान हमारे पास आते हैं। उनके पास केवल सादी पर्ची होती है जिसमें खरीदी गई मात्रा लिखी होती है। जारी करने वाले के बारे में कोई उल्लेख नहीं होता। सरकार सभी खरीद केंद्रों का मंडी बोर्ड पोर्टल में पंजीकरण अनिवार्य करे। खरीद करने वाले प्रतिदिन जानकारी पोर्टल पर हो। इससे सरकार को जानकारी रहेगी। कहीं समस्या आती है, तो किसानों के पास बिक्री का आधार रहेगा।

शमशेर सिंह

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